6.31 K Views

Chautha Dhandha

Literature & Fiction | 1 Chapters

Author: Ayodhya Prasad

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Media, often referred to as the fourth pillar of democracy, has been turned into a business—Chautha Khabha or merely Chautha Dhandha. “Dhandha” is also a slang used to refer to prostitution.So what happens when Alisha—a sex worker from the city’s red light area tells a reporter Shailesh, “You are a bigger dhandhebaaz than us?” When the reporter decides to expose his universe, the result comes out as a compilation of stories. They br....

दिल की बातें

सबसे पहले, सबसे बड़े सवाल का जवाब दे दिया जाए। ये कहानियाँ इस भ्रम के साथ कतई नहीं लिखी गईं हैं कि लोकतंत्र का चौथा खम्भा माने जाने वाले, पत्रकारिता के पेशे को बदनाम किया जाए।

शायद नेगेटिव बातें हमारे दिमाग में ज़्यादा देर तक टिकती हैं। इसलिए जब एक पूर्व पत्रकार की काल्पनिक डायरी हाथ लगी तो लिखने लायक और रीडर्स के साथ जो शेयर करने लायक कुछ मिला, वो ऐसी कहानियाँ थीं जिनमें एक पत्रकार खुद को टटोलने के मूड में नज़र आता है।

सच्चाई तो ये है कि भारत के डेमोक्रेटिक सिस्टम में, आज भी अगर कोई वर्टिकल खुदके गिरेबां में झाँकने की, खुद को कोसते हुए ठीक करने की हिम्मत रखता है तो वो…मीडिया ही है। लोकतंत्र के दूसरे स्तम्भ इतनी हिम्मत जुटा पाए हैं? शायद नहीं।

“चौथा धंधा” - ये टाइटल रखे जाने का श्रेय बीबीसी की राजस्थान में पहचान कायम करने वाले सीनियर जर्नलिस्ट नारायण बारेठ को जाता है। “लोकतंत्र का चौथा खम्भा अब केवल चौथा धंधा बन कर रह गया है,” उनकी एक स्पीच में कहा गया ये वाक्य मेरे दिमाग में जम सा गया।

मेरी पहली बुक ‘द रॉयल ब्लू’ को मिले उत्साहजनक फीडबैक ने मुझे हिम्मत दी कि साल भर के अंदर ही मैं दूसरी बुक पेश कर सकूँ। इस बार वीर दुर्गादास राठौड़ के जीवन की कुछ घटनाओं को लेकर ‘दुर्ग गाथा’ लिखी। पाठकों के साथ-साथ इतिहासविदों का स्नेह भी इस दूसरी बुक को मिला। मित्र निर्मल गहलोत, स्वाति और अरु व्यास साथ-साथ जुटे और इस बुक पर आधारित लाइट एंड साउंड शो ने राजस्थान में नया सांस्कृतिक इतिहास रच दिया।

ये तीसरी पुस्तक कहानियों का संग्रह है। पिछली बुक्स से ज़रा हट कर मैंने कोशिश की है कि इतिहास से इतर कुछ नए विषय पर कलम चलाई जाए। समानता ये है कि इस पुस्तक में भी स्टोरीज का संबंध सच्ची घटनाओं से है।

ये मेरे और दोस्तों के रिपोर्टिंग अनुभवों से निकले स्टोरी आइडियाज थे, जिनको तथ्य और कल्पनाशीलता के मिक्सचर के रूप में आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। इनमें से दो कहानियाँ ऑल इंडिया रेडियो पर ज़फर खान सिन्धी जी की आवाज़ में खूब पसंद की गईं। ‘द मिडनाइट ट्रेन’ कहानी का आईडिया पुरुषोत्तम दिवाकर जी के संस्मरणों से मिला।

सबसे ज़्यादा धन्यवाद उन रीडर्स का और दोस्तों का जिन्होंने बार-बार तारीफ़ कर मुझे और लिखने के लिए एनर्जी दी। आभार मेरी माँ अयोध्या कुमारी, पत्नी गरिमा, बेटी भव्या और बेटे भुवन का। इनका सपोर्ट सिस्टम, मेरे लिखते रह पाने की मूल वजह है। निर्मला राव का आभार, उन्होंने फाइनल एडिटिंग में मेरा साथ दिया।

दिल से शुक्रिया ईश्वर का। उन्होंने मुझे माध्यम चुना ताकि मैं सृजन कर इन कृतियों को आप तक पहुँचा पाऊँ। सब कुछ उन्हीं को समर्पित।

***

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गिद्धों का महाभोज

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“एपी! यार, आज फ्रंट पेज के लायक कोई लोकल खबर ही नहीं है…कुछ फाइल कर रहे हो क्या?” मेरी अंगुलियाँ की-बोर्ड पर धीमे-धीमे चल ही रही थीं, तभी संपादक जी ने पीछे से आ कर जैसे सोते से जगाया।

“खबर!! हाँ खबर ही तो फाइल कर रहा हूँ…” मैंने सोचा।

एक और फ्रंट पेज बाई-लाइन खबर की उम्मीद के साथ बोल पड़ा… “बस चल ही रही है…खबर की थीम है ‘बुरा मानसून यानि कि अच्छा बिजनेस’…मतलब ये कि…अकाल का साया राजस्थान पर गहराता जा रहा है और यहाँ के उनींदे से कस्बे फलौदी में बरसात के होने, या…न होने को ले कर सट्टे का बाज़ार गरम हो गया है।” मैंने बात खत्म कर के संपादक जी का रिएक्शन नोट किया…लग रहा था कि बात कुछ जमी नहीं।

“ये तो हर अकाल का किस्सा है। इसमें नया क्या? फाइल कर दे लेकिन फ्रंट पेज की खबर नहीं है ये”…कहते हुए संपादक जी क्राईम-डेस्क की तरफ बढ़ गए जो कि पहले पन्ने के लायक मसाला, अक्सर दे देती थी।

फ्रंट पेज का फार्मूला सीधा था। जितनी बुरी घटना उतनी अच्छी खबर। दुर्घटना हो गई? ब्रीफ बना दो। एक मर गया? फोटो भी है? लास्ट पेज पर जगह है? लगा दो। चार मर गए?? अरे वाह!! फ्रंट पे ले लो।

आज फिर फ्रंट पेज का लोकल कोना भूखा था और मेरी खबर के फ्रेम में अकाल जैसी घटना तो थी लेकिन…उसमें लाश की कमी थी।

अपने भाग्य को कोसता हुआ मैं आगे लिखने की कोशिश करने लगा…लेकिन दिमाग मानो ‘हैंग’ हो गया था। बादलों की आकृति और रंग, गर्जन से ले कर बरसात में छप्पर से गिरने वाली पानी की धार की मोटाई पर होने वाली सट्टेबाजी कुछ देर पहले मेरे लिए जितनी ‘खबरनाक’ लग रही थी…अब उसमें कोई रस ही नहीं रह गया था।

सोचा…अगर बरसात की सट्टेबाजी से बर्बाद हुए किसी परिवार की कहानी मिल जाए तो! हाँ…शायद स्टोरी को थोडा पुश मिल जाए। बर्बादी के अफसाने कन्फर्म होने से पहले ही उसका कोई रोचक हैडिंग सोचते हुए मैंने अपने ‘सोर्स’ को फ़ोन लगाने का मानस बनाया तभी…स्टेट डेस्क की तरफ हलचल बढ़ी हुई नज़र आई। लाश…मेरा मतलब…फ्रंट पेज स्टोरी की खोज शायद पूरी हो चुकी थी।

“ये है तगड़ी स्टोरी…” कंप्यूटर स्क्रीन पर नज़र गडाए संपादक जी को मानो मन की मुराद मिल गई थी। मामला रेगिस्तान के किसी गाँव का ही था। भुखमरी के चलते एक ग्रामीण के मरने की एक्सक्लूसिव खबर मोटे-मोटे अक्षरों में चमक रही थी।

मुझे ईर्ष्या होने लगी। जिसके मरने की खबर लोकल रिपोर्टर को मिल गई उसकी खबर, मेरे सोर्स को भला क्यूँ ना लगी?

ख़ैर…मृतक की रोती-कलपती बीवी का फोटो हमारे सामने था। गाँव के सरपंच का बयान लिया जा रहा था। आसपास के परिवार के सदस्यों की बताई बातों को स्टोरी में गूंथ दिया गया था…और हमारी पहले पन्ने की चमकती-दमकती स्टोरी “अकाल से हारी सरकार- भुखमरी से हारी मानवता-एक की मौत” तैयार थी।

दूसरे दिन…इस खबर के छपते ही, सरकारी हलके में भूचाल आ गया। संपादक जी ने रात को ही अपना फ़ोन स्विच-ऑफ कर दिया था, ताकि सुबह उनकी नींद तो पूरी हो सके। फ़ोन को ऑन करते ही व्हाट्सप्प मेसेज का दरिया बह चला। चीफ मिनिस्टर के प्रेस अटेची से लगा कर जिला कलेक्टर तक…सभी उनसे बात करना चाह रहे थे।

सूरज अभी सरकारी दफ्तरों के गलियारों को गरम कर भी न पाया था कि बरसाती कुकुरमुत्तों की तरह फैले सामाजिक और राजनैतिक संगठनों की नींद अचानक खुल गई।

‘सरकार को धिक्कार’, ‘हर मोर्चे पर हारी है सरकार’ से लगा कर ‘मुख्यमंत्री इस्तीफ़ा दे’…ऐसे बयान लैटरपेड़ के मैदानों में कुलाँचें मारने लगे।

सरकारी अमला भी कहाँ पीछे रहने वाला था! पौ फटने से पहले ही लाल बत्तियों में सवार साहेब लोग पूछते-पुछाते भुखमरी के गाँव की तरफ भागे। सरकारी डॉक्टर का हवाला देते हुए, सरकार ने बयान भी ज़ारी कर दिया कि फलां अखबार में छपी खबर की सच्चाई ये है कि…फलां आदमी भुखमरी नहीं बल्कि कुपोषण जैसी किसी बीमारी से मरा था।

संपादक जी ने ‘कुपोषण’ और ‘भुखमरी’ के बीच के वैज्ञानिक-सामाजिक-राजनैतिक अंतर की गहराई में नहीं जाने की चतुराई दिखाते हुए अपने भरोसेमंद खबरचियों की टीम को सुबह-सुबह ही प्रेस बुला लिया। मैं भी उस टीम में शामिल था।

“सरकार खंडन कर रही है…लाश पर राजनीति होने वाली है…तुम लोग मौके पर जा कर पूरी खबर ले आओ। एक भी साइड स्टोरी मिस नहीं होनी चाहिए,” हमें रवाना करते हुवे उन्होंने हिदायत दी। अखबार के सीनियर फोटो एडिटर को हर एंगल से तस्वीर की हिदायत सहित हमारे साथ कर दिया गया।

तीन घंटे की यात्रा के बाद हम तहसील मुख्यालय पहुँचे तो सबसे पहले हमारा स्वागत लोकल रिपोर्टर ने किया। कार से उतरते ही मैंने उसको गले लगा कर धाँसू खबर निकाल लाने की बधाई दे डाली। हालाँकि, अंदर से हम अभी भी उससे जलते हुए…अपने सोर्स को कोस रहे थे।

दूसरी तरफ, लोकल रिपोर्टर का उत्साह तो सातवें आसमान पर था: “सर! बस थोड़े दिन और रुक जाओ। अभी तो और मौतें होंगी,” उन्होंने चहकते हुए कहा।

ये उसकी भविष्यवाणी थी या सट्टेबाजी! मैं अनुमान नहीं लगा पाया।

हमारे साथ गाडी में सवार हो कर वो हमें उस गाँव ले गया जो एक दिन के लिए हुक्मरानों का तीर्थ बन चुका था। सभी, मानो अपने पाप धोने के लिए भुखमरी की देहरी पर माथा टेकने आए थे। पत्रकार आ रहे हैं…ये खबर शायद हमसे पहले उन तक पहुँच गई थी। शायद इसीलिए जब हम उस अभागे की झोपड़ी तक पहुँचे तो वहाँ अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था।

झोपड़ी के आस-पास कोई भी मौजूद नहीं था। “भुखमरी वाला इलाका कुछ ख़ास नज़र आता होगा क्या…?” ये शायद मुझे पता नहीं था लेकिन गाँव वालों से इतना तो पता चल ही चुका था कि गाँव में एक ही आटा-चक्की थी जो कुछ महीने पहले बंद कर दी गई थी।

“अनाज ही नहीं था तो पीसता क्या?” गाँव वाले के इस बयान ने मुझे एक बॉक्स आईटम लिखने का मसाला दे दिया। झोपड़ी के अन्दर मृतक की विधवा घुटनों में सिर घुसाए सुबक रही थी। हमारी खबर को पुख्ता करने और सरकार को करारा जवाब देने के लिए मृतक की विधवा का तगड़ा सा बयान ज़रूरी था।

मैंने सीनियर रिपोर्टर पारीक जी की तरफ देखा। उन्होंने मुझे आगे बढ़ने का इशारा किया और…मैंने सवालों का मोर्चा संभाल लिया। महिला के पास घुटनों के बल बैठते हुए मैंने सवाल दागा: “आपसे कुछ पूछ लूँ? आपके घर-धणी का स्वर्गवास हो गया…हम सभी को दुःख है…लेकिन आपसे, मुझे कुछ पूछना है…हम अखबार से आए हैं…सच्चाई जानने…”

मैं अपनी आवाज़ में कम्पन को छुपाने की सफल कोशिश करते हुए उसका रिएक्शन देखने लगा। कपडे की गठरी में हलचल हुई…शायद उसने ‘हाँ’ ही कहा हो।

मैंने अपने पेन को नोट्स लेने के लिए तैयार किया ताकि मैं कुछ भी चूक न जाऊँ। बात आगे बढ़ाने की कोशिश में मैंने फिर बताया कि किस तरह सरकार के सामने सच्चाई लाने के लिए हम उसके पास आए हैं।

सहानुभूति के दो-तीन संवादों के बाद जब दूसरी तरफ सन्नाटा बरक़रार रहा तो मैं असली बात पर आ गया।

“सरकार कह रही है कि आपका पति भुखमरी का शिकार नहीं था…वो बीमार था…आप, गाँव वाले सरकार से मुआवजा लेने के लिए कहानी बना रहे हो!”

इससे पहले कि मैं बात को आगे बढ़ा पाता, कपडे की गठरी से आँसू की धारा बह निकली।

ऊँची आवाज़ मैं रोने का सुर ज़्यादा हावी था… “नहीं चाहिए मुझे रूपया…नहीं चाहिए सरकार का मुआवजा, कोई सच्चाई नहीं बची अब…मेरा धणी चला गया…मैं किसके लिए झूठ बोलूंगी! आपसे हाथ जोड़ के अरज है…मुझे अकेला छोड़ दो। मुझे कुछ नहीं चाहिए!” वो जोर-जोर से सुबकने लगी।

लिखते-लिखते पेन पर मेरी पकड़ ढीली होने लगी। इससे पहले कि मैं रोती हुई लाचार विधवा से कुछ भी कह पाता…एक जानी-पहचानी आवाज़ और उनके रोने ने मेरा ध्यान खींच लिया।

“वापस चलते हैं…कुछ नहीं पूछना इससे। हम क्या कर रहे हैं? क्यूँ कर रहे हैं? एक-दो दिन खबरें फ्रंट पेज पर आ भी गई तो क्या होगा?” पारीक जी बच्चों की तरह सुबकते हुए कहते जा रहे थे।

मैं हक्का-बक्का, कुछ नए सवालों से घिरा पारीक जी को चुप करने लगा। रो रही महिला को चुप कराने की हिम्मत मुझमें बिल्कुल नहीं थी।

‘खबर का असर’ और ‘खबर के आगे की खबर’ जैसे जुमलों के साथ अगले दिन लगने वाली स्टोरी के लिए मसाला मिल गया था। सीनियर फोटो एडिटर इतनी देर में विधवा और उसकी झोपड़ी का फोटो हर एंगल से शूट कर चुके थे।

धूल उड़ाती हमारी कार गाँव से वापस शहर की तरफ बढ़ चुकी थी।

गाँव में…सरपंच की हवेली पर बैठे गिद्ध अगले महाभोज का इंतज़ार कर रहे थे।

***

ऐवें ही कुछ भी!

हत्या के मामलों में ये भी देखा गया है कि विक्टिम (पीड़ित) अक्सर पुलिस से बात नहीं कर पाते।” - एक्सप्रेस टाइम्स

(हत्या होने के बाद कोई क्या भूत बन कर बात करेगा!)

***

बाथटब में डूबता चौथा खम्भा

बाथटब में लेट कर रिपोर्टिंग करता एक उत्साही पत्रकार: “यहाँ दर्शकों को ये बात बताना ज़रूरी है कि प्राप्त जानकारी के मुताबिक, श्रीदेवी अपनी मौत के कई मिनट पहले टब में ज़िंदा थीं!”

(अच्छा! मौत से पहले लोग ज़िंदा भी हुआ करते हैं! ऐसा दिव्य ज्ञान आपकी ब्रेकिंग न्यूज़ से ही मिल सकता है… आपके चरण कहाँ हैं?)

***

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तुम जियो हज़ारों साल

डिजिटल टेक्नोलॉजी ने ख़बरों के संसार में काम करना आसान बना दिया है। कहाँ तो वो दिन थे जब पुरानी मशीनों पर प्लेट सैट करने से पहले, एकएक अक्षर को ब्लॉक पर जमा कर हर ख़बर को आकार दिया जाता था…कहाँ अब मोबाईल और कम्प्यूटर से कंट्रोल होने वाला हाईटे प्रिन्टिंग सिस्टम!

“इसीलिए कहता हूँ कि जिन लोगों ने अभी तक कम्प्यूटर्स से फ्रेंडशिप नहीं की है…वो जल्दी से कर लो। वरना बाद में पछताना पड़ेगा,” अखबार के आईटी डिपार्टमेंट में अवतरित हुए सिन्हा ने उस शाम ज्ञान झाड़ा। स्टोरी डिटेल को एक्सेल शीट की बजाय कागज कलम पर उतार रहे मिश्रा ने मायूस हो कर सहमति में मुंडी हिला दी।

उसी रात…या यूँ कहें कि देर रात। जब एक के बाद एक, हर पेज को फ़ाइनल करने का वक्त होता है…एडवरटाइजिंग डेस्क की तरफ हलचल बढ गई।

“सिटी सेंटर से आज के विज्ञापनों की फाइल अब ई-मेल से आई है। उधर कम्प्यूटर सिस्टम में कोई वायरस गया था।” डेस्क इंचार्ज ने पेज डिज़ाइनर को सफाई देते हुए शहर के कलेक्शन सेंटर से आए मैटर को पेज 5 या 7 पर फैलाने को कहा। ये पेज श्रद्धांजलि, शोक संदेश और बधाई शुभकामना जैसे सस्ते विज्ञापन को एडजस्ट किया करते थे।

“यार सिन्हा! सारे विज्ञापनों की फोटो एक अलग फोल्डर में पार्क की है। कॉमन फोल्डर है…तुम्हारे कम्प्यूटर में खोल कर पेजमेंकिंग करवा दो,” मिश्रा ने रिक्वेस्ट की तो सिन्हा भी पेज मेकर का रोल निभाने अपने कम्प्यूटर के सामने जा डटे। कुछ मिनटों में, पेज फाइनल हो कर प्रिन्टिंग में चला गया।

अगली सुबह…संपादक जी का फोन सूरज उगने से पहले ही घनघना उठा। वो इतनी बार घनघनाया कि उन्हें फोन स्विच-ऑफ करना पड़ा। लेकिन फोन बंद करने से लोगों के मुँह और दिमाग बंद थोड़े ही किए जा सकते हैं?

नौ बजते–बजते तो तीस–चालीस लोगों की भीड़ अखबार के ऑफिस के बाहर नारेबाजी करती नज़र रही थी। गार्ड ने सिक्योरिटी ऑफिसर को और सिक्योरिटी ऑफिसर ने संपादक जी के घर, लैंड-लाईन पर फोन लगा कर उनसे तुरंत पहुँचने की रिक्वेस्ट की।

“प्रॉब्लम क्या है तिवारी जी?” संपादक जी ने ऑफिस के बाहर भीड़ का नेतृत्व कर रहे कद्दावर आदमी से पूछा तो उनकी आवाज़ में शक्कर की एक्स्ट्रा डोज घुली हुई थी।

“मैं आदमी हूँ या भूत…” तिवारी, जो शहर का जाना-माना यूनियन लीडर था, उसने संपादक जी के सवाल का सीधे-सीधे जवाब देने की बजाय घूरते हुए ये सवाल दागा।

“भूत बनें आपके दुश्मन…आप तो हमारा भविष्य हैं। कल ही तो अपको शहर की पचास यूनियनों ने मिलकर नगर-रत्न का अवार्ड भी दिया है!” संपादक जी सुबह–सुबह किसी बहस में उलझने के मूड में नहीं थे।

“अगर मैं भूत नहीं हूँ तो…ये क्या है,” कहते हुए तिवारी ने मुडा-तुड़ा अखबार संपादक जी की तरफ धकेल दिया। अखबार पर नज़र डालते ही संपादक जी के चेहरे का रंग उड़ने लगा।

“ये क्या! ज़रूर कोई कम्युनिकेशन गेप रहा है। आप…आप मेरे साथ अंदर चलिए। अभी एक–एक की खबर लेता हूँ!” संपादक ने तिवारी को अपने साथ लिया और पीछे खड़ी भीड़ ने एक बार फिर अखबार की हाय–हाय और मुर्दाबाद का नारा बुलन्द कर दिया।

हुआ दरअसल ये था कि तिवारी जी…जिनका पूरा नाम राधेश्याम तिवारी था, उनका मुस्कराता हुआ फोटो उस दिन के अखबार में शोक संदेश–श्रद्धांजलि वाले विज्ञापन में छपा हुआ था। अखबार बंटने के साथ ही रोते–पीटते लोग उनके घर पहुँचने लगे थे और जीते–जागते तिवारी जी को घर के बाहर खड़ा देखकर उन्हें भूत समझने लगे।

“मैं सुबह से लोगों को ये जवाब देता–देता थक गया हूँ कि मैं…जिंदा हूँ,” संपादक के चैम्बर में बैठते ही तिवारी ने शिकायत का पिटारा खेल दिया।

“मैं शर्मिन्दा हूँ। समझ नहीं आता कि ऐसी ग़लती हो कैसे गई?” संपादक जी ने फोन पर टीम-लीडर्स को बुलाते हुए आश्वासन बिखेरा।

“सर! ये अकेले ही आए हैं? ये कौनसे वाले तिवारी जी की शिकायत लाए है?” प्रूफ-डेस्क इंचार्ज हाजिर हुआ तो उसकी घिग्गी बंधी हुई थी।

“क्यों? शहर में कितने तिवारी है? क्या सबको मार कर शोक संदेश छाप दिए हो तुम लोग?” तिवारी जी फिर भड़क उठे।

“सर…दरअसल दो फोटोग्राफ्स की फाइल नेम एक जैसे होने से बड़ी गड़बड़ हो गई। एक फोटो शोक संदेश के लिए था…दूसरा नगर-रत्न बनने पर बधाई के लिए था…दोनों अलग-अलग आदमी थे लेकिन दोनों के नाम राधेश्याम तिवारी ही थे,” डेस्क इंचार्ज के हकलाते हुए बात पूरी की।

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Chautha Dhandha

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