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Self-Help | 24 Chapters
Author: Acharya Prashant
Bhagat Singh fought for the freedom of the whole country because there is nothing called as individual freedom. This was not really a social or political initiative. It was not just resentment or revolution against any barbaric, foreign rule. Originally, it was a campaign of spiritual liberation. A liberation in which you say, "My body is not worth much. I am twenty-three years old, if I am hanged, how does it matter? I have not identified with t....
मनुष्य को ज्ञात सबसे प्राचीन शास्त्रों में वेद शीर्ष पर आते हैं और वेदांत वैदिक सार के परम शिखर हैं।
आज दुनिया ऐसी समस्याओं से जूझ रही है जो इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गईं। अतीत में हमारी समस्याएँ अक्सर बाहरी परिस्थितियों के कारण होती थीं, जैसे कि भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, प्रौद्योगिकी का अभाव, स्वास्थ्य संबंधित समस्याएँ आदि। संक्षेप में कहें तो चुनौती बाहरी थी, दुश्मन – चाहे वो सूक्ष्म जीव के रूप में हो या संसाधनों की कमी के रूप में – बाहर था। सीधे कहें तो मनुष्य अपनी बाहरी परिस्थितियों के दबाव में संघर्षरत रहता था।
परन्तु बीते सौ वर्षों में बहुत से बदलाव हुए हैं। मनुष्य के संघर्षों ने इस सदी में एक बहुत ही अलग और जटिल रूप ले लिए हैं। पदार्थ को किस तरह से अपने उपभोग के लिए इस्तेमाल करना है, वह आज हम जानते हैं; परमाणु और ब्रह्मांड के रहस्य मनुष्य के अथक अनुसंधान के आगे ज़्यादा छिपे नहीं रह गए हैं। आज गरीबी, अशिक्षा और बीमारी अब वैसी अजेय समस्या नहीं रही जैसे पहले प्रतीत हुआ करती थी। इसी के चलते अब हमारी महत्वाकाँक्षा दूसरे ग्रहों में बसने और यहाँ तक कि मृत्यु को मात देने की हो गई है।
वर्तमान काल मनुष्य के इतिहास में सबसे अच्छा होना चाहिए था। इससे कहीं दूर, हम अपने आप को आंतरिक रंगमंच में चुनौती के एक बहुत ही अलग आयाम पर पाते हैं। बाहरी दुनिया में लगभग हर चीज़ पर विजय प्राप्त करने के बाद मनुष्य पा रहा है कि वह आज पहले से कहीं ज़्यादा गुलाम है। और यह एक अपमानजनक गुलामी है – सभी पर वर्चस्व जमाना और फ़िर यह पाना कि भीतर से एक अज्ञात उत्पीड़क के बहुत बड़े गुलाम हैं।
मनुष्य भले ही प्रकृति पर अपना नियंत्रण बनाने में सफल हो गया हो लेकिन वह स्वयं अपने आंतरिक विनाशकारी केंद्र द्वारा नियंत्रित है, जिसका उसे बहुत कम ज्ञान है। इन दोनों के साथ होने का मतलब है कि मनुष्य की प्रकृति का नाश करने की क्षमता असीमित और निर्विवाद है। मनुष्य के पास केवल एक ही आंतरिक शासक है: इच्छा, उपभोग करने और अधिक-से-अधिक सुख का अनुभव करने की अनंत इच्छा। मनुष्य सुख का अनुभव तो करता है पर फ़िर भी स्वयं को अतृप्त ही पाता है।
इस संदर्भ में आध्यात्मिकता के शुद्ध रूप में वेदान्त आज पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। वेदांत पूछता है: भीतर वाला कौन है? उसका स्वभाव क्या है? वह क्या चाहता है? क्या उसकी इच्छाओं की पूर्ति से उसको संतोष मिलेगा?
आज मानव जाति जिन परिस्थितियों में खुद को पाती है, उसकी प्रतिक्रिया के रूप में आचार्य प्रशांत वेदांत के सार को आज दुनिया के सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। उनका उद्देश्य वेदान्त के शुद्ध सार को सभी तक पहुँचाना और वेदान्त द्वारा आज की समस्याओं को हल करना है। वर्तमान की ये समस्याएँ मनुष्य के स्वयं के प्रति अज्ञान से उत्पन्न हुई हैं, इसलिए उन्हें केवल सच्चे आत्म-ज्ञान से ही हल किया जा सकता है।
आचार्य प्रशांत ने दो तरीकों से वेदांत को जन-सामान्य तक लाने का प्रयास किया है: पहला, उन्होंने कई उपनिषदों और गीताओं पर सत्र लिए हैं और उनकी व्यापक टिप्पणियाँ वीडियो श्रृंखला और पुस्तकों के रूप में उपलब्ध हैं (लिंक: solutions.acharyaprashant.org)। दूसरा, वे लोगों की दैनिक समस्याओं को संबोधित करते हुए उन्हें वेदांत के प्रकाश में सुलझाकर उनका मार्गदर्शन करते हैं। उनके सोशल मीडिया चैनल्स ऐसे हज़ारों सत्रों के प्रकाशन के लिए समर्पित हैं।
संक्षिप्त जीवनी
प्रशांत त्रिपाठी का जन्म 1978 को महाशिवरात्रि के पावन अवसर पर उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में हुआ था। वे तीन भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं, उनके पिता एक प्रांतीय प्रशासनिक अधिकारी थे और माता एक गृहिणी। उनका बचपन ज़्यादातर उत्तर प्रदेश में ही बीता।
माता-पिता और शिक्षकों ने उन्हें एक ऐसा बालक पाया जो कभी शरारत करता तो कभी अचानक गहन चिंतन में डूब जाता। दोस्त भी उन्हें एक अपरिमेय स्वभाव वाला याद करते हैं, अक्सर यह सुनिश्चित नहीं होता था कि वे मज़ाक कर रहे हैं या गंभीर हैं। एक प्रतिभाशाली छात्र होने के कारण वे लगातार अपनी कक्षा में शीर्ष पायदान पर रहे और एक छात्र के लिए उच्चतम संभव प्रशंसा और पुरस्कार प्राप्त किए। उनकी माताजी को याद है कि कैसे उन्हें अपने बच्चे के बेहतर शैक्षिक प्रदर्शन के कारण कई बार ‘मदर क्वीन’ की उपाधि से सम्मानित किया जाता था। शिक्षक कहते हैं कि उन्होंने पहले कभी ऐसा छात्र नहीं देखा था जो मानविकी में उतना ही प्रतिभाशाली हो जितना विज्ञान में, जो भाषाओं में उतना ही निपुण हो जितना गणित में और अंग्रेजी में उतना ही कुशल जितना हिंदी में। राज्य के तत्कालीन राज्यपाल ने उन्हें बोर्ड परीक्षाओं में एक नया मानदंड स्थापित करने और एनटीएसई स्कॉलर होने के नाते एक सार्वजनिक समारोह में सम्मानित किया था।
वे पाँच साल की उम्र से ही एक जिज्ञासु पाठक थे। उनके पिता के व्यापक गृह पुस्तकालय में उपनिषद् जैसे आध्यात्मिक ग्रंथों सहित दुनिया के कुछ बेहतरीन साहित्य शामिल थे। लंबे समय तक वे घर के किसी शांत कोने में बैठ जाते और उन किताबों में डूबे रहते जो केवल परिपक्व पुरुष ही समझ सकते थे। पढ़ने में खो जाने के कारण वे कई बार भोजन किए बिना ही सो जाते। दस साल का होने से पहले ही उन्होंने पिता के पुस्तक-संग्रह से लगभग सब कुछ पढ़ लिया था तथा और अधिक की माँग कर रहे थे। उनमें गहराई के शुरुआती लक्षण तब प्रकट हुए जब उन्होंने ग्यारह वर्ष की उम्र में कविताएँ रचनी शुरू कीं। उनकी कविताएँ रहस्यमयी रंगों से ओत-प्रोत थीं और ऐसे प्रश्न पूछ रही थीं जिन्हें अधिकांश वयस्क भी नहीं समझ पाते।
पंद्रह वर्ष की आयु में, कई वर्षों तक लखनऊ शहर में रहने के बाद, उन्होंने अपने पिता की स्थानांतरणीय नौकरी के कारण स्वयं को दिल्ली के पास गाज़ियाबाद में पाया। बढ़ती उम्र और शहर के परिवर्तन ने उस प्रक्रिया को गति दी जो पहले से ही गहरी जड़ें जमा चुकी थी। वे रात में जागने लगे और पढ़ाई के अलावा अक्सर रात के आसमान को चुपचाप देखा करते। उनकी कविताएँ गहराई में उतरती गईं; उनमें से बहुत सी रात और चाँद को समर्पित थीं। उनका ध्यान शिक्षाविदों के बजाय रहस्यवादियों की ओर तेजी से बढ़ने लगा।
फ़िर भी उन्होंने शैक्षिक रूप से अच्छा प्रदर्शन करना जारी रखा और प्रतिष्ठित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली में प्रवेश प्राप्त किया। आईआईटी में उनका समय दुनिया को समझने और छात्र राजनीति में गहरी भागीदारी के बीच बीता। वे राष्ट्रव्यापी कार्यक्रमों और प्रतियोगिताओं में एक उभरते हुए डिबेटर और अभिनेता के रूप में सामने आए। वे परिसर में एक जीवंत व्यक्ति, एक भरोसेमंद छात्र-नेता और मंच पर एक भावपूर्ण कलाकार थे। उन्होंने लगातार राष्ट्रीय स्तर की वाद-विवाद और भाषण प्रतियोगिताएँ जीतीं और उत्कृष्ट नाटकों में निर्देशन और अभिनय के लिए पुरस्कार भी प्राप्त किए। एक बार उन्हें एक ऐसे नाटक में अपने प्रदर्शन के लिए ‘सर्वश्रेष्ठ अभिनेता’ का पुरस्कार मिला जिसमें उन्होंने न तो कोई शब्द बोला था और न ही कोई कदम बढ़ाया था।
वे लंबे समय से यह महसूस कर रहे थे कि जिस नजर से अधिकांश लोग दुनिया को देखते हैं, जिस तरह से हमारे दिमाग ढर्राबद्ध हो गए हैं, उसमें मूलभूत रूप से कुछ कमी है, और इस कारण हमारे आपसी सम्बन्धों, वैश्विक संस्थाओं की संरचनाओं, समाज के कार्य करने के तरीके, मूल रूप से कहें तो हमारे जीने के ढंग में ही विकृति आ गई है। उन्होंने यह देखना शुरू कर दिया था कि मानव पीड़ा के मूल में स्पष्टता व समझ का अभाव है। वे मनुष्य की अज्ञानता, जनित हीनता, गरीबी की समस्या, उपभोग की बुराई, मनुष्य, जानवरों और पर्यावरण के प्रति हिंसा और स्वार्थ व संकीर्ण विचारधारा पर आधारित शोषण से बहुत व्यथित थे। उनका पूरा अस्तित्व ही इस विस्तीर्ण पीड़ा को चुनौती देने के लिए तैयार था, और एक युवा के तौर पर उन्हें भारतीय सिविल सेवा या प्रबंधन की राह चुनना एक सही कदम लगा।
उन्होंने उसी वर्ष भारतीय सिविल सेवा और भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम), अहमदाबाद में प्रवेश प्राप्त किया। प्रशासनिक सेवाओं के आवंटन में उन्हें आईएएस का इच्छित पद न मिल सका, साथ ही तब तक यह भी दिखने लगा था कि प्रशासन में रहते हुए क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं लाया जा सकता, उन्होंने आईआईएम जाने का चुनाव किया।
आईआईएम में उनके दो साल शैक्षणिक दृष्टि से काफी समृद्ध थे। वे ऐसे नहीं थे जो सदा ग्रेड और प्लेसमेंट की होड़ में ही लगे रहते, जैसा कि इन प्रतिष्ठित संस्थानों में सामान्यतयः देखने को मिलता है। वे नियमित रूप से गाँधी आश्रम के पास की एक झुग्गी में संचालित एक गैर-सरकारी संगठन में बच्चों को पढ़ाते, साथ ही, इस संगठन के खर्चों को देखने के लिए स्नातकों को गणित भी पढ़ाया करते थे। इसके अलावा, मानवीय अज्ञानता पर उनका गुस्सा थिएटर के माध्यम से आकर लेता था। उन्होंने ’खामोश! अदालत जारी है‘, ’गैंडा‘, ’पगला घोड़ा‘ और ’16 जनवरी की रात‘ जैसे नाटकों में अभिनय के साथ-साथ इनका निर्देशन भी किया। एक समय ऐसा भी आया जब उन्हें एक ही समय पर दो अलग-अलग नाटकों का निर्देशन एक साथ करना पड़ा। ये नाटक आस-पास और दूर-दराज से आए दर्शकों से खचाखच भरे आईआईएम के सभागार में हुआ करते थे। परिसर के लाभ-केंद्रित और स्वार्थ-प्रेरित माहौल में उन्होंने खुद को एक बाहरी व्यक्ति पाया। इन अस्तित्ववादी और विद्रोही नाटकों ने उन्हें अपनी पीड़ा को अभिव्यक्ति देने में मदद की और आगे के बड़े मंचों के लिए तैयार किया।
अगले कुछ वर्ष, जैसा कि वे अपने शब्दों में कहतें हैं, निर्जनता में व्यतीत हुए। इस अवधि को वे एक विशेष दु:ख, तड़प और तलाश के रूप में वर्णित करते हैं। शांति की तलाश में वे कॉरपोरेट जगत की नौकरियों और उद्योगों को बदलते रहे। इसी तलाश में वे समय निकालकर अक्सर शहर और काम से भी दूर चले जाया करते थे। उन्हें धीरे-धीरे यह बात स्पष्ट होने लगी थी कि वे क्या करना चाहतें हैं और वह जो उनके माध्यम से व्यक्त होने के लिए पुकार रहा था, वह किसी पारंपरिक मार्ग से प्रस्फुटित नहीं हो सकता। इस दिशा में उनका अध्ययन और संकल्प जोर पकड़ने लगा, और उन्होंने बोधग्रंथों और आध्यात्मिक साहित्य के आधार पर स्नातकोत्तरों और अनुभवी पेशेवरों के लिए एक नेतृत्व पाठ्यक्रम तैयार किया। पाठ्यक्रम कुछ प्रतिष्ठित संस्थानों में शुरू किया गया और वे कभी-कभी अपनी उम्र से बड़े छात्रों को भी पढ़ाते। कोर्स सफल रहा और उनके लिए रास्ता साफ होने लगा।
अट्ठाईस वर्ष की आयु में उन्होंने कॉरपोरेट जगत को अलविदा कह दिया और ’इंटेलीजेंट स्पिरिचुअलिटी (प्रबुद्ध आध्यात्मिकता) के माध्यम से एक नई मानवता के निर्माण‘ के लिए ’अद्वैत लाइफ-एजुकेशन' की स्थापना की। प्रयोजन था मानव चेतना में गहरा परिवर्तन लाना। उनके प्रारंभिक श्रोता थे कॉलेज के छात्र जिन्हें आत्म-विकास पाठ्यक्रम का लाभ मिला। प्राचीन साहित्य की सीख को सरल शब्दों और मनोहर गतिविधियों के रूप में छात्रों तक पहुँचाया गया।
वैसे तो अद्वैत का काम अद्भुत था और सभी ने इसकी सराहना भी की, पर दूसरी ओर बड़ी चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा। सामाजिक और शैक्षणिक व्यवस्थाओं ने छात्रों को केवल परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने और नौकरी की सुरक्षा हेतु डिग्री प्राप्त करने के लिए तैयार किया था। आत्म-विकास की शिक्षा, मन के पार की शिक्षा, जीवन-शिक्षा जो अद्वैत छात्रों के लिए लाने का प्रयास कर रहा था, वह इतनी नई और इतनी अलग थी कि अक्सर अद्वैत के पाठ्यक्रमों के प्रति उनका रवैया उदासीनता से भरा रहता और कभी-कभी तो आंतरिक विरोध का भी सामना करना पड़ता। अक्सर कॉलेजों का प्रबंधन निकाय और छात्रों के माता-पिता भी अद्वैत के इस साहसिक प्रयास की महत्ता और विशालता को समझने में पूरी तरह विफल हो जाते थे। हालाँकि इन तमाम मुश्किलों के बीच भी अद्वैत ने अच्छा प्रदर्शन करना जारी रखा। मिशन का विस्तार जारी रहा और आज भी यह हजारों छात्रों को स्पर्श कर रहा है और उनका जीवन बदल रहा है।
लगभग 30 वर्ष की आयु में आचार्य प्रशांत ने अपने संवाद (बोध-सत्र) में बोलना शुरू किया। ये सत्र महत्वपूर्ण जीवन-मुद्दों पर खुली चर्चा के रूप में हुआ करते थे। जल्द ही यह स्पष्ट होने लगा कि ये सत्र गहन ध्यानपूर्ण थे, मन को एक अनोखी शांति दिलाते थे और मानस पर चमत्कारिक रूप से उपचारात्मक प्रभाव डालते थे। आचार्य प्रशांत के शब्दों और वीडियो को रिकॉर्ड कर इंटरनेट पर उपलब्ध कराया जाने लगा। और जल्द ही उनके लेखन और उनके व्याख्यानों के प्रतिलेखन को प्रकाशित करने के लिए एक वेबसाइट भी तैयार की गई।
लगभग उसी समय उन्होंने आत्म-जागरुकता शिविरों का आयोजन करना शुरू कर दिया। वे सच्चे साधकों को लगभग 30 लोगों के समूह में एक सप्ताह की अवधि के लिए अपने साथ हिमालय ले जाते। ये शिविर गहन परिवर्तनकारी घटनाएँ बन गए और शिविरों की आवृत्ति में भी बढ़ोत्तरी हुई। अपेक्षाकृत कम समय में अपार स्पष्टता और शांति प्रदान करते हुए सैकड़ों शिविर अब तक आयोजित किए जा चुके हैं।
आचार्य प्रशांत का अद्वितीय आध्यात्मिक साहित्य मानव जाति द्वारा ज्ञात उच्चतम शब्दों के बराबर है। उनकी प्रतिभा वेदांत पर आधारित है। अपनी व्यापक वेदांतिक नींव के साथ उन्हें अतीत की विभिन्न आध्यात्मिक धाराओं के संगम के रूप में देखा जाता है, फ़िर भी वे किसी परंपरा से सीमित नहीं हैं। वे मन पर जोरदार प्रहार करते हैं और साथ ही उसे प्रेम और करुणा से शांत भी करते हैं। एक स्पष्टता है जो उनकी उपस्थिति से निकलती है और उनके होने से एक सुकून मिलता है। उनकी शैली स्पष्टवादी, शुद्ध, रहस्यमय और करुणामय है। उनके सीधे और सरल सवालों के सामने अहंकार और मन के झूठ को छुपने की कहीं जगह नहीं मिलती। वे अपने श्रोताओं के साथ खेलते हैं – उन्हें ध्यानपूर्ण मौन की गहराई तक ले जाते हैं, हँसते हैं, मज़ाक करते हैं और समझाते हैं। एक तरफ तो वे काफी करीब प्रतीत होते हैं, वहीं दूसरी तरफ यह भी दिखता है कि उनके माध्यम से आने वाले शब्दों के स्रोत कहीं और ही हैं।
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