आवाज़

फंतासी
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आवाज़

मैं बचपन में अपने से बड़ी उम्र के लड़कों और लफंगों के साथ रहा, मैं महज सात साल का था, लेकिन तकरीबन जवान हो चुके लड़कों से मेरी दोस्ती रही. उनके साथ क्रिकेट खेला. अखाड़ों में कुश्‍ती लड़ी, वर्जिश की. अपने उस्ताद के पैरों और पीठ पर सरसों का तेल मला. कुछ दाव लगाने सीखे और फिर उस्‍ताद के कहने पर पास के गांव में लगने वाले मेले में आयोजित दंगल में भाग लेने जाता था.

उन दिनों तीन रंगों की लगोंट हुआ करती थी, लाल, सफेद और काली. उन तीन रंगों में से मैंने अपने लिए लाल रंग की लंगोट चुनी. लफंगों के साथ जंगल में खूब भटका. ज़्यादातर दोपहरें पेड़ों पर गुजारी. कबूतरों को पीछे भागा. तीतर- बटेर का पीछा किया. उन्‍हें कीटनाशक डीडीटी पावडर खिलाकर मारा, फिर लकड़ी पर सेंक के खाया. यही वो दिन थे, जब मैंने बीड़ी पीना सीखा. कभी- कभी सिगरेट. फिर धीमे-धीमे गांव की अंधेरी गलियों में शराब पीना सीखा.

देर रात तक गांव की अंधेरी गलियों में बैठकर मैं यह जानने की कोशिश करता था कि कैसे धुएं के छल्‍ले बनते हैं, बादलों का धुंऐ से क्‍या संबंध है. शायद यहीं से कविताओं ने मेरे भीतर जगह बनाना शुरू की होगी, लेकिन तब मैं जानता नहीं था कि कविता भी कोई चीज होती हैं. हालांकि अब भी मुझे नहीं पता कि कविता क्‍या होती है, लेकिन मैं उसे बार बार लिखकर समझने की कोशिश करता रहता हूं. मैं अब तक वो कविता नहीं लिख पाया हूं जिसका मुझे सबसे ज्‍यादा इंतजार है.

खैर, मैं असल कहानी पर आता हूं. तो उन दिनों उस नाजुक उम्र में मैंने शराब, सिगरेट और कुश्‍ती जैसे यह सारी सख़्त चीजें कीं।

इनमें से बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जो उस वक़्त नहीं की जाना चाहिए थीं, लेकिन उम्र हमेशा मुझे अपने से आगे की और धकेलती रही.

मैं उन दिनों जंगल, घास, फूल, कांटे, गायें, बेल, तालाब, कुओं और फसलों की संगत में रहता था. मुझे लगता था एक दिन मैं इनमे से ही कुछ बन जाऊंगा.

मैं किसी दिन मैं घास बन जाऊंगा और हवा के साथ रहूंगा. कभी लगता मैं कोई कुआं हो सकता हूं, जिसका पानी खेतों में जाएगा.

कई बार सोचता था कि हो सकता है मैं बड़ा होकर कोई फूल बन जाऊं जो किसी दिन किसी देवता के सिर पर रखा जाऊं या कोई सुंदर स्‍त्री के बालों के जूड़े में ठूंस दिया जाऊं.

खुले आसमान के नीचे मैं अपने घर की टीन की चद्दरों पर सोए हुए इन्‍हीं सारी कल्‍पनाओं में खोया रहता था. कभी आसमान का तारा बन जाता तो कभी, जंगल का कोई कांटा.

फिर एक दिन मैंने अपने पुरखों से सुना कि मरे हुए लोगों का पेट भरने और उनकी प्‍यास बुझाने के लिए कौवे छतों पर आते हैं. वे कौवे ही होते हैं जिनकी वजह से पुरखों की मृत आत्‍माएं तृप्‍त होती हैं.

पुरखे से तो यह भी सुनते आया हूं कि कौवे ही पुरख़े बनकर लौटते हैं घरों की छतों पर. आसमान में उड़ते सैकड़ों कौओं को देखकर मैं बहुत आत्‍मीय हो जाता था. मुझे लगता था कि मैं बस कौवों को देखता और निहारता रहूं. इसी चाह में मैं उनकी हर वक्‍त प्रतीक्षा करता रहता था. क्‍योंकि यह बात पुरखों ने कही थी कि कौवे इसलिए हमारी छतों पर आते हैं ताकि वे दाना-पानी चुगे तो उससे मरे हुए लोगों के पेट भर जाए. कौओं के इस अगाध निस्‍वार्थ को महसूस कर के मैं बहुत भावुक हो जाता था.

मेरे मन से फिर फूल, कांटा, जंगल, कुआ यह सब बनने का ख्‍वाब निकल सा जाता था, मुझे लगता था कि सबसे अच्‍छा काम तो कौए करते हैं. किसी मरे हुए आदमी का पेट भरना और उसकी प्‍यास बुझाने से पुण्‍य का काम दुनिया में और क्‍या हो सकता है भला.

इसीलिए मैं दिन-रात अपने घर के टीन के चद्दरों पर बैठकर कौओं की प्रतीक्षा करता रहता था.

उन दिनों प्रतीक्षाएं करते- करते मुझे कौवों से प्रेम हो गया. इसी स्‍नेह के चलते हुए मैं सारी इच्‍छाएं त्‍याग कर अंत में एक कौआ बन जाने का फैसला किया. मैंने कौआ बन जाने का ख्‍वाब देख लिया.

मेरी इच्छा थी कि मैं एक कर्कश आवाज़ वाला बे-लिहाज कौवा बन जाऊं. क्योंकि उन दिनों कौवें बहुत तेजी से कम हो रहे थे. दूसरा कारण था कि मैं कुछ भी खाऊंगा या पानी पियूंगा तो वह सब मेरे मरे हुए पुरखों के पेट में चला जाएगा.

जिस तेजी से कौए खत्‍म हो रहे थे मैं जल्‍दी ही कौआ बन जाना चाहता था. मेरे भीतर वो चीज़ बनने की इच्छाएं शुरू हो गई थी, जो चीज़ खत्म हो रही होती थी. उन दिनों मुझे नहीं पता था कि दुनिया में क्या- क्या खत्म हो रहा है. मुझे लगता था कि सिर्फ कौए ही खत्म हो रहे हैं, तो मैं वही खत्म होते हुए कौए बनना चाहता था. मैं हर वो चीज बन जाना चाहता था, जो दुनिया से खत्म हो रही हैं.

बस इसी इच्छा के चलते मैं अपने घर की टीन वाली छत पर आने वाले कौवों को देखता रहता. उनसे बहुत सी चीजें सीखने लगा. उनके तौर-तरीके. उड़ने के अंदाज. पर पसारने के तरीके भी.

कौओं ने मुझे बहुत सारी चीज़ें सिखाईं. मैंने कौओ से प्रतीक्षाएं सीखीं. कर्कशता से बोलना सीखा और फिर किसी दिन बे-लिहाज, बेशर्म होकर चीखना भी सीख लिया. मैंने उनसे प्रतीक्षाओं के साथ बा-वक्त प्रेम करना भी सीखा. मैंने सीखा कि कैसे मरे हुए पुरखों का पेट भरना है, उनकी प्‍यास बुझाना है.

धीमे-धीमे मैं कौओं की तरह बहुत होशियार हो गया. अब भी मैं बहुत होशियार हूं, सतर्क और चालाक भी, कौओं की तरह ही.

उन दिनों, जब मैं देर तक कौओं का इंतजार करता था तो मेरी कौआ बनने की चाह को मेरी मां ने भांप लिया. मेरी हरकतों से हैरान और परेशान होकर मां ने मुझे एक दिन एक दूसरे शहर रहने के लिए भेज दिया. मां को लगता था कि अब अगर मैं यहां ज्यादा दिनों तक रहा तो एक दिन बे-लिहाज़ कौवे में तब्दील हो जाऊंगा. मेरी त्वचा काली हो जाएगी और आवाज़ कौवे की तरह कर्कश हो जाएगी. उसे लगता था कि मेरे पर और पंख निकल आएंगे. बस यही सोचकर, मां ने मुझे एक दूसरे सभ्य शहर में भेजने का फैसला कर लिया.

मैं अपना बोरिया बिस्‍तर समेटकर उस शहर आ गया, जहां मुझे मां ने भेजा था. यहां मैंने देखा कि लोग यहां भी शराब पीते हैं, सिगरेट पीते हैं और गोश्त खाते थे. लेकिन उनके पास शराब और सिगरेट पीने का एक खास सलीका था. लोग यहां कांटों से पकड़कर गोश्त खाते थे. वे यहां सिगरेट का धुआं भी सलीके से हवा में उड़ाते थे. मैं वहां बे-लिहाज़ धुआं उड़ाया करता था. मैने देखा यहां के लोगों के सिगरेट के धुएं में छल्ले बन जाते थे, उनके धुएं से आसमान में गुब्बारे उड़ते थे. मैं वहां फूंक मार छल्‍ले बनाने की कोशिश करता था. मैं उस धुएं से उलूल जुलूल कविताएं लिखता था.

मुझ में और यहां के शहरी लोगों में बहुत फर्क था. यहां के लोग अपने संताप, विलाप और दुखों के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराते थे, वे अपने सामने खड़े किसी भी अजनबी पर अपने दुख का कारण थोप देते थे, वहां मैं अपने दुखों के लिए खुद ही को जिम्मेदार मानता था. और खुद ही को कौसता रहता था. यहां के लोग तब रोते थे, जब उन्हें कुछ लोग या बहुत सारे लोग देख रहे होते, जबकि वहां मैं रोना आते ही भीड़ से एक तरफ तरफ चला जाता था. ये लोग कौओं जैसे ही थे, लेकिन कौए नहीं थे.

फिर बहुत दिनों तक जब मैं यहां की उस सरकारी इमारत जिसे होस्टल कहते थे में रहने लगा तो यहां भी मैं जोरों से चीखता था, लेकिन हैरत की बात कि यहां भी कोई नहीं सुनता था. फिर मैं धीमे-धीमे चुप रहने लगा. कई बार मुझे लगता था कि मैं एक चुप्पी में बदल गया हूं. मैं अपने कमरे की खिड़कियों से घंटों तक ताकता रहता था. कई दोपहरों और शामों में मैं खिड़कियों के बाहर ताकता रहा. मैने खिड़कियों के सहारे इस पार से कई मौसम देख डाले. कई गर्मियां, बारिशें और पतझड़ इन खिड़कियों से देखे. फिर उन दिनों मैं चुप रहने लगा. मैं भूल गया कि चिल्लाना और चीखना भी चाहिए. मैने कई दिनों तक खुद की आवाज नहीं सुनी. मैं तभी अपनी आवाज सुन पाता था, जब मेरी मां मुझे चिठ्ठी लिखा करती थी. तब मैं मां की चिठ्ठी को मन ही मन पढ़ता था. और मन में पढ़ते वक्त भी मैं अपनी आवाज सुन पाता था.

मेरे और मेरे पिता के बीच इतना ही भर रिश्ता था कि जब मां चिठ्ठी लिखती थी तो पिता उसे मेरे होस्टल के पते पर पोस्ट कर दिया करते थे. ऐसा नहीं है कि मां मुझे चिठ्ठी न लिखती तो मेरे और पिता के बीच कोई संबंध न होता. मुझे लगता है कि जैसे मैं उन्हें याद करता था, या अभी भी, इन दिनों कभी-कभी याद करता हूं ठीक वैसे ही वे भी मेरे बारे में सोचते होंगे, मुझे याद करते होंगे.

दरअसल, यह कहानी कौआ होने की मेरे ख्‍वाब के बारे में है. इसलिए मैं इस बारे में ही बात करुंगा. अगर यह कहानी मेरे और मां के बारे में होती तो मैं इससे भी ज्यादा बात कर सकता था, लेकिन यदि मेरे और पिता के बारे में होती तो मैं कई हजार पन्ने या कई किताबें लिख देता मेरे और पिता के संबधों पर. क्योंकि पिता और मेरे बीच कोई संबंध नहीं था, सिवाय इसके कि मां मुझे होस्टल में चिठ्ठियां लिखती थी तो पिता उसे मेरे पते पर पोस्ट कर दिया करते थे. इसका मतलब है कि मेरे और पिता के बीच कुछ नहीं था, वहां खालीपन था. और खालीपन के बारे में बहुत कुछ कहा-लिखा जा सकता है.

खैर, मेरे और पिता के बारे में फिलहाल बताने के लिए इससे ज्यादा कुछ नहीं है, अगर होता भी तो मैं उसे किसी से बताता नहीं. तो मां ने मुझे जहां भेजा था, वहां रहते हुए मैं धीमे- धीमे उस नए शहर की नई सभ्यता का अभ्यस्त होने लगा. पहले मैं खिड़कियों से बाहर झांकता था, बाद में मैं सड़कों पर से खिड़कियों में ताकने- झांकने लगा.

इन दिनों मुझे लगने लगा कि मैं किसी कुएं में तब्दील हो गया हूं- किसी अकेले और घोर घुप्प अंधरे कुएं में. मुझे लगता कि कोई कितना भी मेरे भीतर चीखे- चिल्लाए कोई आवाज़ ही नहीं आती थी. फिर मेरी मां की चिट्ठियां भी मिलना बंद हो गई. इसलिए मैं अपनी आवाज़ सुनने के लिए उन दिनों किताबें पढ़ने लगा. इससे मेरी आवाज़ और कम होने लगी. फिर किताबों में मेरी आवाज पूरी तरह से घुट गई. मैं ज्यादा चुप रहने लगा. फिर मैं अपनी आवाज के लिए लड़ने लगा. इसलिए जोर- जोर से लिखने लगा. लेकिन मेरी आवाज़ और दबती गई. फिर मैने चुप रहना ही सीख लिया.

मेरी मां को अब भी डर था कि कहीं मैं कौवा न बन जाऊं. एक बे-लिहाज़ कौआ. नई जगह आकर मैं कुछ- कुछ, थोड़ा-बहुत कौआ बन गया था.

कौओं की तरह मेरी आवाज भी कर्कश है. अब मैं एक कौए की तरह ही हूं. लेकिन मेरी आवाज कौओं की तरह बे-लिहाज नहीं है, बल्कि कबूतरों की तरह गुंटर- गुं की तरह दबी और घुटी हुई आवाज है. मैं कई बार अपनी आवाज सुनने की कोशिश करता हूं. लेकिन पहचान नहीं पाता हूं कि मेरी आवाज क्या है?

मैं अब एक कौआ ही हूं, आवाज भी तकरीबन कौए की तरह ही है, कर्कश. मेरा रंग भी कौओं की तरह काला ही है.

लेकिन कहीं कोई छत नजर नहीं आती. न कहीं दाना-पानी. जहां बैठकर मैं अपने पुरखों के लिए उसे चुगुं और उनका पेट भरूं. मैं सोचता हूं जो मर चुके हैं उनका पेट कैसे भरता होगा, कैसे उनकी प्‍यास बुझती होगी.

अब मैं अपने पुरखों का पेट भरने, उनकी प्‍यास बुझाने के लिए बेलिहाज और कर्कश शब्‍दों का इस्‍तेमाल करता हूं. उनके लिए कविताएं लिखता हूं. मैं उन कविताओं में जंगल, घास, फूल, कांटे, तालाब, कुएं और फसलों का इस्‍तेमाल करता हूं.

मैं यकीन करता हूं मेरी कविताओं से मेरे पुरखों के पेट भर जाते होंगे, उनकी प्‍यास बुझ जाती है. जो लोग मुझसे पहले मर चुके हैं, वे इन कविताओं की आवाज से संतुष्‍ट और तृप्‍त हो जाते होंगे.

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