JUNE 10th - JULY 10th
ये उन दिनों की बात है जब कॉलेज में पढ़ा करते थे। हज़ारीबाग़ तब बिहार का ही हिस्सा था। इस शांत और खूबसूरत शहर में पढ़ाई-लिखाई का माहौल हमेशा से अच्छा रहा है। बिहार के अलग-अलग इलाक़ों से विद्यार्थी इस शहर में पढ़ने आते थे। हम छात्र बहुल इलाक़े कोर्रा में रहते थे। 15-20 लड़कों की हमारी मंडली थी। एक बार छुट्टी का समय था, संयोग से हम में से सिर्फ़ दो ही तब घर नहीं गये थे।
छुट्टियों में कोर्रा का समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र सब बदल जाता है। कोर्रा चौक के बाज़ार में सन्नाटा पसरा था। इस माहौल में हम दोनों मित्र बोर हो रहे थे। प्लान बना कि रिक्शे से आज शहर भ्रमण किया जाए। यहॉं रिक्शा मतलब साइकिल रिक्शा। हमने अपना रूट और प्लान तय किया। कोर्रा चौक से मटवारी, कचहरी होते हुए इंद्रपुरी चौक, यहॉं से झंडा चौक या पंचमंदिर तक, फिर लौटते में बस स्टैंड से सदानंद रोड, कॉलेज मोड़, झंझरिया पुल, देवांगना चौक होते हुए कोर्रा वापसी करेंगे। बीच में झंडा चौक में मेट्रो स्वीटस की मिठाई और बस स्टैंड में लिट्टी और कॉफी की पार्टी भी होगी।
हमारे पास समय और दोस्त के पास पर्याप्त पैसे थे। वैसे था तो वह कंजूस लेकिन बोरियत इतनी भारी थी कि वह खर्च करने को राज़ी था। हमारी गरीब मंडली में वह थोड़ा पैसे वाला माना जाता था। जहॉं तब के हमारे जीवन की शैली में सारे जुगाड़ वाली सस्ती चीजों की ही छाप थी लेकिन उसकी ज़िन्दगी में थोड़ी-थोड़ी ब्रांडेड चीजों की दख़ल हो चुकी थी। उदाहरण के लिए उसके पास टाइटन की घड़ी, लिबर्टी की कूलर सैंडिल, मोंटो कार्लो के स्वेटर आदि थे। आम कॉलेजियट दोस्ताना माहौल की तरह यहॉं भी चड्डी-बनियान को छोड़कर मंडली में कोई भी अपने सामान पर एक्सक्लूसिव टाइप का दावा नहीं कर सकता था।
कोर्रा चौक से हमने रिक्शा लिया और हमारा सफ़र शुरू हुआ। उस दिन का संयोग ऐसा कि मेरे पैरों में उसकी लिबर्टी वाली सैंडिल और मेरे स्लीपर उसके पैरों में थे। चूँकि कॉलेज तो जाना नहीं था तो हमने अपनी कोई ख़ास सज्जा नहीं कर रखी थी। उस दोस्त ने जो शर्ट पहनी थी उसका एक बटन भी टूटा था, जिस पर उसका ध्यान बाद में गया।
रिक्शा जब मटवारी से गुजरने लगी तब लगा कि हमें अपनी सजावट पर ध्यान देना चाहिए था। मैं तो फिर भी ठीकठाक था लेकिन वह रबर वाली स्लीपर पहने हुए था। वह लगातार उस कोशिश में था चप्पलों की अदला-बदली हो जाये। मैंने मर्यादा की दुहाई दी और अब उसकी सैंडिल उसकी तभी हो पायेगी जब हम कमरे पर लौट जायेंगे। तब तक उसे अपनी क़मीज़ का टूटा बटन भी उसे दिख चुका था।
ख़ैर, वह कुढ़ तो रहा था लेकिन बेचारा कुछ कर नहीं सकता है। रास्ते में जब-जब हरियाली दिखती उसका कुढ़ना बढ़ जाता। अपने मुँह मियाँ-मिटठू बनना भी समझ सकते हैं लेकिन मैं उससे थोड़ा ज़्यादा हैंडसम और क्यूट था। ऊपर से उसके पैरों में हवाई चप्पल और टूटे बटन वाली क़मीज़, वह कॉम्प्लेक्स खा रहा था।
मैंने उसका उत्साह बढ़ाया और शानदार रिक्शा यात्रा पर फ़ोकस करने को प्रेरित किया। सड़क किनारे दिखती हरियाली की छाँव और अपने आपस में बतकही का रस लेते हुए आगे बढ़ रहे थे। आनन्द तो आ रहा था लेकिन मित्र का मन चप्पल और क़मीज़ से पूरी तरह आज़ाद नहीं हो पा रहा था। फिर भी यह तफ़रीह ख़ुशगवार लग रही थी।
इस बीच यह बता दूँ कि तब यानी नाइनटीज में हमारे कॉलेज में लड़के-लड़कियों के बीच बातचीत का चलन सहज और आम नहीं था। मेरे संत कोलम्बस कॉलेज में इंग्लिश, बायोलॉजी और ज्योग्राफ़ी विभाग में लड़के-लड़की आपस में बात कर सकने की स्थिति में होते थे। इस थोड़ी सी सहुलियत की वजह से इन विभागों में पढ़ने वाले लड़के दूसरे विभाग के लौंडों के लिए ईर्ष्या का कारण थे। मैं ज्योग्राफ़ी का विद्यार्थी हूँ।
हॉं तो उधर हमारी यात्रा मंथर गति से बढ़ रही थी तभी हमारी नज़र दूर एक मकान की छत पर पड़ती है। शाम का समय था दो लड़कियाँ उस छत के मुँडेर पर खड़ी नीचे बाज़ार में आते जाते लोगों को देख रही थीं। दो-एक मिनट में हमारी रिक्शा भी इनकी निगाहों की जद में आने वाली थी। मेरा मन प्रफुल्लित हो उठा लेकिन मित्र के मन में टूटे बटन और हवाई चप्पल का बोझ भारी हो गया।
उसका कुढ़ना बढ़ने लगा। उसकी निगाह मेरे पैर में फँसी उसकी मंहगी सैंडिल पर और मेरी नज़र ऊपर छत पर। रिक्शा उस मकान के ठीक नीचे से गुजर रही है। हमारी निगाहें मिली। एक-दूसरे को हमने पहचाना। अरे ये दोनों तो मेरे क्लास की लड़कियाँ हैं! मेरा चेहरा खिल गया। लड़कियों ने भी मुझे पहचान कर अभिवादन किया। मेरी ख़ुशी मेरे दोस्त के बर्दाश्त से बाहर हो रही थी। उसका वश चलता तो तभी मेरे पैरों से अपनी सैंडिल छिन लेता। रिक्शावाले को धीमे करने का मैं इशारा कर चुका था। लड़कियों ने हमें रूकने को कहा और चाय का न्यौता दिया। अब मेरा दोस्त फट पड़ा लेकिन आवाज़ धीमी थी। उसने धीमे से कहा कि अगर यहॉं चाय के लिए रूके तो समझ लो उन लड़कियों के सामने कह दूँगा कि तुमने मेरी सैंडिल पहन रखी है। रिक्शा ठीक से रूक भी नहीं पाई थी, मैंने उसे चलते रहने को कह दिया। चलते-चलते मन मारकर लड़कियों को सिर्फ़ इतना कह पाया “फिर कभी आऊंगा…”
... अब मुझे उसकी सैंडिल चुभ रही थी।
#249
Current Rank
11,250
Points
Reader Points 250
Editor Points : 11,000
5 readers have supported this story
Ratings & Reviews 5 (5 Ratings)
rangjohar
What a story! Superb. India needs such writers!
Vedika Singh
WoW!!! Loved it!!!
Sagar
मज़ेदार :)
Description in detail *
Thank you for taking the time to report this. Our team will review this and contact you if we need more information.
10Points
20Points
30Points
40Points
50Points