कभी कभी इत्तेफाक से

रोमांस
4 out of 5 (12 )

"ये सब तुम क्या कह रही हो काया! अपनी सोच, अपने विचार, अपने जज्बातों पर काबू पाओ। काया तुम मेरे लिए हमेशा से ही मेरी अच्छी दोस्त रही हो, ये इश्क विश्क न तो मेरी समझ में कभी आया था और न ही कभी आने वाला है। मै बंदा बड़ा डिसेंट हूं मेरे लिए सिर्फ मेरा लक्ष्य मायने लगता है। और मेरा लक्ष्य अभी बहुत बडा है, बहुत कुछ चाहिए मुझे जिंदगी से! इसीलिए इश्क विश्क के लिए मेरे पास समय नहीं है, सॉरी टू से लेकिन मै तुम्हारे प्रेम को एक्सेप्ट नहीं कर सकता। ", उसने थोड़े रूखेपन से कहा और वह चला गया।


काया नाम की वो लड़की उसे देर तक जाते हुए देखती रही। उसकी आँखे नम थी और वह एक हरे भरे पार्क के अंदर ख़डी थी। दूर कहीं पश्चिम की तरफ ढलता हुआ सूरज अपने साथ उसकी उम्मीदों को भी अपने साथ ले जा रहा था। उसके कदम स्थिर हो चुके थे और वो शख्स अब बिन पीछे उसकी तरफ मुड़े उसकी आँखों से ओझल हो चुका था।


वह धड़ाम से बेजान शरीर की तरह बेंच पर गिर पड़ी। उसे लग रहा था जैसे ये सारा संसार ही निर्मूल है। उसके जीवन में कुछ भी विशेष नहीं रहा अब। एक एक कर उसकी आँखों के सामने से अब कुछ दृश्य गुजरने लगे। कभी लाइब्रेरी में घंटो साथ बैठ कर पढ़ना और फिर भूख लगने पर किताबों को समेट किसी रेस्टोरेंट का रूख करना। रेस्टोरेंट में भी अपनी अपनी पसंद को लेकर कितना सारा झगड़ना, कभी अंधेरा होने पर उसका उसे घर छोड़ कर आना तो कभी उसके घर में पूजा होने पर अपने घर से उसके लिए कुछ खाने योग्य चीज लेकर जाना कितनी यादें थीं उसकी उसके साथ... उसके यानी अर्चित।


वह काफ़ी देर तक वहीं बैठी रही। सूरज की लालिमा छुपने के बाद अब आसमान दूधिया होने लगा था। चांदनी रात में काया अभी भी आसमान के नीचे पार्क में शांत बैठी थी। उसका फोन घनघना रहा था। उसके कानो में आई आवाज से उसे एहसास हुआ उसे अब यहाँ से निकलना चाहिए, उसके अपने अभी भी उसके इंतजार में है।

वह उठी और वहां से निकल गयी। घर पहुँच कर उसने दोबारा कभी उसका सामना न करने का निर्णय लिया। प्रेम ठहरा बावरा, हमेशा ऐसे ही रास्ते ढूंढता है जो जग से निराले हो। कभी पर्वतो का सीना चीर कर रास्ता बनवा ले, तो कभी मटकी की मदद से नदी पार करवा ले। कभी एक तिनके से त्रिलोक विजयी दशानन को भयग्रस्त कर दे तो कभी ये झूठन में भी तृप्ति का अनुभव करवा दे। काया की काया, मन आत्मा सभी को तकलीफ हो रही थी लेकिन फिर भी वह अपने आप को मजबूत बना रास्ता बदल कर जाने लगी। लेकिन वह अर्चित को भूल नहीं पाई। हर रोज उसकी ईश्वर से प्रार्थना होती अर्चित को जो चाहिए वह मिल जाये। एक अटूट रिश्ता बन चुका था उसका दुआओ से। दिन, महीने और फिर साल भी गुजर गया न ही अर्चित ने कभी उसका रास्ता देखा न ही काया ने कभी उसका रास्ता काटने की कोशिश की। समय के साथ काया ने खुद को सम्हाला और उसका सिलेक्शन एक अच्छे पद पर हो गया। काया को शहर छोड़ कर जाना पड़ा। बावजूद इसके भी उसकी दुआ में कोई कमी नहीं आई। व्यस्त शिड्यूल होने के बावजूद भी वह हर रोज नियम से ईश्वर से उसके लिए प्रार्थना अवश्य करती। उसके हर जन्मदिवस पर वह दान करना नहीं भूलती थी। उम्र निकलती जा रही थी यह जान कर उसके पेरेंट्स ने एक जगह उसके रिश्ते की बात की और उससे एक शख्स से मिलने के लिए कहा। काया को समझ नहीं आ रहा था वह क्या निर्णय ले। उलझन में थी, दुविधा में थी। होना स्वाभाविक भी था मन के किसी कोने में अर्चित अभी भी कहीं न कहीं समाया हुआ था। इसीलिए जैसे ही रिश्ते ही बात चलती उसकी आत्मा एक अव्यक्त तड़प से तड़प उठती। और कुछ दिनों तक वो खुद को खुद में ही झोंक लेती।


आज उसका जन्मदिवस था और वह हर बार की तरह उसके लिए प्रार्थना करने शहर के एक मंदिर की ओर जा रही थी। लेकिन आज उसका मन व्याकुल था। मन में अकुलाहट थी, न जाने क्यूँ एक बैचेनी जैसे कुछ विचित्र घट रहा हो किसी अपने के साथ।


'प्रेम पंथ अति सांकरा, जाकी धीमी धीमी चाल, बिन मिलन के पिय संग, रहत हाल बौरात!' वह जल्द ही मन्दिर तक पहुंची। जहाँ उसने एक बार फिर ईश्वर के सामने अर्चित के लिए प्रार्थनायें की और हमेशा की तरह उसके जन्म दिवस के उपलक्ष्य में उपहार वितरित करने लगी। अपनी सामर्थ्य और विश्वास के साथ लगन से वो ये काम कर ही रही थी तभी उसके माथे पर कुछ आकर लगा। अनजान शहर था, अभी कुछ दिनों पहले ही तो ट्रांसफर के जरिये उसने अपने कदम शहर में जमाये थे, यहाँ ऐसी घटना होना, वह हैरत में पड़ी क्यूंकि उसका माथा रक्त रंजित होने लगा था। उसने नजर उठा कर देखा, मंदिर के पास से गुजरने वाली सड़क पर शोर बढ़ता जा रहा था। साथ ही पत्थरो की बौछारें बढ़ती जा रहीं थीं उसे समझते बूझते देर न लगी शहर में पत्थर बाजी हो रही है, और इसका कारण उसे ज्ञात नहीं। काया को उन सभी नौनिहालो अनाथो, बूढ़ो की फ़िक्र हुई और उसने उन्हें तुरंत ही मन्दिर की सीढीयान चढ़कर अंदर प्रांगण में चल छुपने के लिए कहा। और तेज तेज सभी को ऊपर जाने के लिए कहने लगी, 'चलो, जल्दी, हिम्मत करो। ये लोग कब तक रुकेंगे नहीं कहा जा सकता, लेकिन सभी यहाँ से तुरंत निकलिए ऊपर,' उसके शब्दों से सभी को हिम्मत मिली, और वे सभी जल्दी जल्दी ऊपर की ओर चढने लगे। काया ने अपनी नजरें घुमाई और आते हुए उस शोर की तरफ डाली, आक्रोशित युवाओं का एक जत्था हाथो में पत्थर लेकर गुस्से से सड़क पर फेंक रहा था। भारत के शिक्षित युवाओं का ऐसा आशिक्षतता भरा ये दृश्य उसके रोम रोम में सिहरन पैदा कर गया। उसने देखा एक बुजुर्ग जिन्हे सीढीयां चढने में अत्यंत परेशानी हो रही है वे झुके और हाथो का सहारा लेकर सीढीयां चढने लगे। काया के मन में करुणा का भाव आया और वह तुरंत उनकी मदद करते हुए उन्हें ऊपर ले जाने लगी। लेकिन उन कदमो से तेज गति तो पत्थर बाजो के आक्रोश की थी, जो दिखता, उसी पर पथराव करने लगते। उनकी ही चपेट में काया और वह बुजुर्ग आ गए। एक पत्थर तेजी से घूमता हुआ काया के शरीर पर आकर पड़ा और काया ने पीछे मुड़ कर देखा। ये क्या... वही पहचानी कद काठी, वही पहचाना सा चेहरा, कुछ करने की चाह लिए आक्रोशित आँखे, और उन्हें देख काया का अंतर्मन जैसे रो पड़ा...


'क्या ये सच में वही है...?'


वह लगातार बुजुर्ग को संबल देते हुए ले जाती रही। उसके मन में अतीत की कुछ यादें किसी फ़िल्म की तरह घूमती रहीं। अर्चित... उसे कुछ करना था जीवन में कुछ बड़ा, कुछ यूनिक जिसके लिए उसने कभी अपने लक्ष्य से भटक किसी और को टाइम नहीं दिया लेकिन... तो क्या उसका कुछ बड़ा बदलाव लाने वाला कार्य ये है... हिंसा, अपराध। क्या उसे जिंदगी से यही चाहिए था... वह अपने मन के उफान में उलझी हुई मंदिर प्रांगण में पहुंची। उनके पहुंचते ही कपाट बंद कर दिए गए, लेकिन उसके अंतर्मन के कपाट अब व्यग्र होकर शोर करते हुए अपनी उपस्थिति का आभास करा रहे थे।


समय गुजरा और वो आवाजें समाप्त हो कहीं दूर निकल चुकी थी लेकिन काया अभी भी अपने अंतर्मन की गहराइयों में उलझी थी। क्यूँ किया अर्चित ने यह घृणित कार्य? क्या उसकी कोइ मज़बूरी थी? या उसकी कोइ ख़ुशी की वजह। ना ना... कोइ भी मजबूरी इतनी बड़ी नहीं हो सकती जो सरेआम हिंसा पर उतरने के लिए मजबूर कर दे। उसके अंदर की सारी अकुलाहट जाती रही और मन्दिर के प्रांगण की सकारात्मकता उसके रोम रोम में भर रही थी। शायद यही मेरे इस अकुलाहट के अंत होने की वजह है। मै जानना चाहती थी मेरी प्रार्थनाये पूरी हुई भी या नही, लेकिन यह दृश्य देखने ले बाद अब मुझे मेरी सरी प्रार्थनाये व्यर्थ लग रहीं हैं। अब अफ़सोस हो रहा है मेरी प्रार्थनाये किस तरह फलित हो रही हैं। जैसे भारी बरसात के बाद की धूप अधिक सुहावनी लगती है ठीक वैसे ही इस घटना से जन्मे विषाद पर अफ़सोस मनाने बाद काया का मन अब एक सही निर्णय पर पहुंचा एवम उसने उन यादों को अतीत में ही छोड़ने का निर्णय और बेसहारा निर्धन जरूरतमंदो की मदद करने का संकल्प लिया। वह सोच रही थी कभी कभी के इस इत्तेफाक से जिंदगी कितनी सुलझ जाती है। इत्तेफाक से मै अर्चित से मिली, प्यार हुआ, मेरा जताना,और उसका ठुकराना ये सब इत्तेफाक ही तो है। अगर वो नहीं करता तो शायद मै जिंदगी के कुछ रंगो से महरूम ही रह जाती। आज ज़ब इत्तेफाक से उससे मिली तो एक नया ही रंग देखने को मिला मुझे। काया ने ईश्वर को धन्यवाद दिया अब वह अपने एकमात्र लक्ष्य को साधते हुए तेजी से अपने गंतव्य की तरफ बढ़ रही थी। उसके चेहरे पर संतोष था तो वही अंतर्मन में ख़ुशी।


अपूर्वा सिंह


समाप्त...!

താങ്കൾ ഇഷ്ടപ്പെടുന്ന കഥകൾ

X
Please Wait ...