वैवाहिक बलात्कार(marital rape)

कथेतर
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वैवाहिक बलात्कार (marital rape )


पैसे दे कर कुछ पलों के लिए ऐसा शख्स मिल गया जिसके सीने मे सर रख कर वो अपनी हर कहानी सुना सके, ना वो जिस्म देखे ना रंग, ना रूप केवल प्यार दे वो प्यार जिसके हक़दार है, जिससे वो वंचित है और फिर जी भर कर रो ले दर्द सुना कर ...मतलब ये कहा सकते है चन्द पैसों से खरीदे है जज़्बात सुनने वाला पुरुष, ऐसे शख्स को आस पास के लोग सेक्स वर्कर बुलाते है...

मगर वो कुछ पलों के लिए ख़रीदा हमदर्द बुलाती है ...

वो ऐसे समाज मे रहती है, जहाँ औरत को त्याग की देवी कहाँ जाता है जिसकी जज़्बात पुरुष अपने दोनों पैरो के बिच दबा कर रखता है...
उसे रोज रात को ख़ुश करना ही महिला की जिम्मेदारी बन जाती है ....
उसके दर्द और जज़्बात रात के अंधरे मे पुरुष बिस्तर मे ही दफ़न कर देता है,
क्या एक महिला सेक्स के लिए ही बनी होती है क्या उसके अस्तित्व सेक्स से शुरू और मर्दो की पैरो के निचे ही ख़त्म होती है?

जो प्यार और इज्ज़त की हक़दार थी...

आज ऐसे ही औरत की कहानी बया करती है मेरी अल्फाज़...

मैं शादी के अटूट बंधन मे बंधने जा रहु हु, दिल थोड़ा बेचैन है मगर ख़ुश हु क्योकि वो हमसफ़र मिलने वाला था, जिसका इंतज़ार बरसों से था

मेरी शादी हो गई, मैं सोच ली थी अपनी नयी जीवन की सुरवात पुरे सिद्दत से कर करुँगी , कोई वजह नहीं छोडूगी जिससे मेरे पति को ताखिफ़ हो या कमी महसूस हो, मेरे खाने से ले कर कपड़ो तक उनकी पसंद के होंगी क्योंकि माँ कहा करती थी "पति ही सब कुछ है उसकी खुशी मे ख़ुश होना उसके दर्द मे रोना उसके हिसाब से रहना कभी मोल भाव मत करना औरत है औरत की तरह रहना " ये माँ की बात गांठ बांधकर रख ली थी, मैं सब करते रही मेरी कोई पहचान नहीं रहा अब मेरे पति के हिसाब से जीने लगी थी मेरी पसंद नापसंद कुछ नहीं रहा|

अब हमारी शादी को 3 साल पूरे होने वाला था, मगर इन 3 साल में और भी कुछ हुआ जिसे बताने में थोड़ा हिचकिचाहट हो रहा है शर्म महसूस हो रहा है कैसे कहूं कहां से शुरू करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा है बताते वक्त मेरी जुबान लड़खड़ा रही है मेरी रूह डर से कांप रही है क्योंकि मां ने इसके बारे में जिक्र ही नहीं किया था बस कहां था कि जो भी हो जैसा भी हो समझौता कर लेना...

मगर कैसे करू समझौता उस हर रात से जिस रात मे मेरा पति जानवरो की तरह सुलूक किया करता है,एक दवा देता है और मुझसे बिना पूछे हैवानों की तरह नोचता है, मेरे जिस्म के रोम रोम मे ऐसा दर्द देता है की आवाज तक नहीं निकलता और ये एक रात की नहीं रोज रात की बात है, दर्द से आँशु तक नहीं निकलता था मगर कभी कभी खून जरूर निकल जाता है, दर्द से बिखरी पड़ी होती हूँ बेबस लाचार और औरत क्यों हूँ करके अपने किस्मत को बार बार कोसती हूं,

अब मैं कमजोर होने लगी थी शरीर भी साथ नहीं दे रहा था थक जाती हूँ मगर मेरे पति को उसे मतलब नहीं उसे तो काली रात से मतलब था मैं रोज ईश्वर से भीक मांगा करती हूँ की आज दिन ना ढले क्योंकि जैसे ही काली रात होती है वैसे ही मेरी ज़िन्दगी काली करते जाती है,

वक्त के साथ चुप रहा कर दर्दों का आदत डालने लगी कोई नहीं होता मेरे पास की ये तख़लीफ़ बांट सकूं, जिसके सीने मे सर रखकर रो सकूँ | जानती हूँ माँ कहेगी औरत है समझौता करना सीख इसलिए और अकेला महसूस होने लगा है, एक रोज मेरी नज़र पेपर के कोने मे गया जहाँ लिखा था चंद पैसे से बुलाओ अपना दुखी का साथ (कॉल बॉय ) मैं अपने जीवन से इतनी हताश हो गई थी की सही गलत समझ ही नहीं आ रहा था मैं बिना सोचे समझें उस नंबर पर कॉल डायल कर ली और उसे मिलने जाने का विचार बना ली

मेरे पति को काम से कुछ दिनों की लिये बाहर जाना पड़ रहा था और वही सही मौका था मेरे लिये, मेरे पति के निकलते ही दूसरे दिन गई उस अजनबी से मिलने, बहुत डरी हुई सी थी मगर फिर भी गई, जैसे ही होटल के रूम 403 पहुंची वो दरवाजा लॉक कर दिया मैं घबरा गई फिर वो मेरे बेजान आँखों को देखे जा रहा था, मैं भी उसकी और देखीं और रो पड़ी, मुझे बेड मे बैठा कर मेरे क़दमों के निचे बैठ गया और बोला क्या दर्द छिपाये बैठी हो, आज तक मेरे पति ने जो सवाल नहीं पूछा जो वो उस अनजान से पूछ लिया...मैं रोते रोते अपनी कहानी बताते गई, और उसकी भी आँखे नम हो गई वो और कहने लगा की क्यों बरदास करती हो इतना सब कुछ सिर्फ समाज के लिए, तुम्हारी पहचान नहीं है क्या, तुम्हारी पसंद ना पसंद नहीं है क्या... औरतों हो मोम की पतला नहीं तुम्हारे अंदर भी दर्द है तुम्हारे अंदर भी जज़्बात है, चुपचाप रहकर सिर्फ सहती रहोगी या आवाज उठाओगी अपने अधिकार के लिए लङोगी औरत हो कोई अबला नारी नहीं

तुम्हें पता नहीं है जो तुम सहती हो वह बलात्कार का एक रूप है जिसे वैवाहिक बलात्कार कहा जाता है, तुम कानून की मदद लो क्योंकि तुम्हारी छोटी सी हिम्मत पूरी समाज की औरतों का सोच बदल सकता है उनके साथ हो रहा अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने का हिम्मत देगा उन सब के अधिकार के लिए लड़ो... ये जो कहा था उसने इससे मुझे यह समझ आ गया कि अब वक्त आ चुका है कि अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाओ इतना आसान नहीं था क्योंकि पूरी जिंदगी डर से ही निकाला मगर आप सहन कर ली तो मेरी बची जिंदगी नर्क बन जाएगी

उस अनजान इंसान ने बंद कमरे मे मुझे हाथ तक नहीं लगाया, बस एक उम्मीद दे गया जीने के लिये,

मैं दूसरे दिन है माँ के सारे बातो को भुला कर बड़े हिम्मत से पुलिस के पास गई और कोर्ट मे तलाक की माँग की नहीं कुछ महीनों बाद केस जीत गाई मैं....

अब ज़िन्दगी सिर्फ काट नहीं रही खुशी से जी रही हूँ उन बुरी यादों को मिटता तो नहीं सकती मगर नई यादे जरूर बना सकती हूँ...

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