पाप की टोकरियाँ

vaishuthapa30
रहस्य
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“मैंने अपने जीवन में नींद के अलावा और कोई ध्यान नहीं किया। यह बात कतई विश्वास करने योग्य नहीं लगती कि वहाँ पहाड़ों में कोई सन्त है जो अपराधों की अदला-बदली करता है। वो भी
आत्म-सम्मोहन के द्वारा!!, और अगर ऐसी कोई विद्या इज़ाद की भी गई है, तो भी मैं इसका भाग क्यों बनूं? देखो, मैं स्वर्ग की लालसा में नरक का भोग नहीं करना चाहता। मैंने अपने कर्मो के लिए
आठ-आठ आँसू गिरा दिए है। किसी और का अपराध लेकर अगले जन्म में अँधा-गूँगा नहीं बनना चाहता। रोमांच के लिए वहाँ दूर अपनी नौकरी छोड़ कर किसी सनकी बाबा के आश्रम चला जाऊँ, ऐसी मेरी बुद्दी भ्रष्ट नहीं हुई। लंगड़ू ने दो टूक जवाब दे दिया।


यह सुमेरपुर की रात थी यहाँ दिन जितना तपता था रात उतनी ही सर्द होती थी। असलम ने किसी ख़ास वजह से अपने तीनों दोस्तों को बुलाया था। गाँव में स्थित बड़े पेड़ के नीचे सभा होनी तय थी।
अलाव के चारो तरफ बिछी चारपाइयों में वो चारो बैठे थे।उनके अलावा वहाँ बस मनोहर का एक ऊँट था, जो ऊंघ रहा था।
क्या लगता है? तीन लोगो की हत्या का दाग़ यह लगंड़ापन धो देगा?“-असलम ने चिलम जलाते हुए पूछा।

“ज़रा आहिस्ते बोलो, पेड़ों पर बोलने वाले प्रेत रहते है।“ -गाँव के पानीदार मुनीम ने पेड़ की तरफ इशारा कर बोला। वह साधारणतः डरा हुआ रहता था।
“हाँ और संभव है कि उस लड़की का भूत भी इसी पेड़ पर बैठा हो।“ -मनोहर ने मुनीम की टाँग खिंची।

“तुम्हें अगर यह बे-सिर-पैर की बातें ही करनी है तो मैं अपने घर निकलता हूँ।“ -लड़की का जिक्र होते ही मुनीम जाने के लिए अपनी धोती समेटने लगा।

“अरे!! कहाँ चले मुनीम जी, वैसे भी वह भूत नहीं चुड़ैल बनी होगी। और चुड़ैले ख़ाक़ छानती फिरती है।अभी निकली होगी सैर पर..“-असलम ने मुनीम को रोकते हुए परिहास किया।

“खै़र! क्या विचार है? ऊँचे पर्वत जाना है या नहीं?“ -असलम ने माहौल को गंभीर करने की कोशिश की।
“मैंने बड़े भाई की जमीन हड़पी। उसने सपरिवार जहर खा लिया। ज़हर खाने का विचार उसे आया। मैंने उसे ज़हर खाने को बाधित नहीं किया, तो मेरा इसमें क्या अपराध? जब कोई अपराध ही नहीं तो अपराध परिवर्तन कैसा?“ -मनोहर बोला।

“तुम भूल रहे हो, मनोहर! तुमने सिर्फ़ उसकी जमीन नहीं छीनी बल्कि एक-एक कतरन उतरवा ली।
अपने भाई का विरोध कुचलने के लिए, तुमने अपनी भोजाई के साथ क्या करवाया था, तुम्हें याद तो होगा ही।“ -असलम ने सबको मनाने का निश्चय कर लिया था।
“असलम, मुँह में लगाम लगा। मैंने खुद कीचड़ में कभी पैर ना धरे तू कितने गंदे नालों से गुज़रा है उसका जिक्र मैं करूँ? -मनोहर ज़रा नाराज़ हुआ।

मुनीम फिर झल्लाया -“हम सभी जानते है कि हम सभी के हाथ रक्त-रंजित है, तो क्यों नहीं चलते उस ऊँचे पर्वत? मैंने सुना है, पड़ोस गावँ का वह हलकू जो पाँच खून कर भागा था। वह भी गया था वहाँ। ना जाने किस अभागे से अपराध की बदली हुई कि उसके तो सारे पाप ही धूल गए। किसी बड़े साधु का शागिर्द बन गया है अब। दूध से नहाता है, मलाई को खाता है।

“अगर वाकई में ऐसा है तो हमें भी क़िस्मत आजमानी चाहिए, अपने बड़े पाप से किसी के छोटे पाप की बदली हो जाए तो स्वर्ग का द्वार खुल जाए।“ -मनोहर में उत्साह जाग्रत हुआ।
“सरकारी मुलाज़िम का स्वर्ग यहीं है, हम नहीं आ रहे कहीं।“-लंगड़ू ने टका सा जवाब दे दिया।
“क्यों लंगड़ू, उस दिन तो कोसे नहीं थकता था अपनी इस नौकरी को“-असलम ने उकसाने की कोशिश की।
वह उस दिन की झल्लाहट थी। दिन ख़त्म, दुःख ख़त्म, झल्लाहट ख़त्म।“ -लंगड़ू चारपाई में पसरते हुए बोला।
“मगर जो तुम तीन जिंदगियों को ज़िंदा फूंके हो। वह पाप कभी ख़त्म होगा?“ -असलम ने उकसाना ज़ारी रखा।
“कितनी बार बोल रहे है, आहिस्ते बोलो, कोई सुन लेगा।“ -मुनीम चारो ओर झांकते हुए बोला।
“देखा जाए तो मेरा दोष तुम सब से कम है। मैंने छोटी-मोटी चोरिया, डकैतियाँ ही की है। फिर भी मैं वहाँ जाऊँगा। क्या पता मेरे सारे अपराधों की स्मृति मेरे भाग्य से मिट जाए। -असलम ने कहा।
“तुमने जो हथियारों की स्मगलिगं की है उनसे हत्याएं ही होती थी, कोई पूजा-पाठ, धर्म-कर्म का काम नहीं होता था।“ -मनोहर ने बदला ले लिया।
“हमें एक बार तो उस आश्रम जाना चाहिए और कुछ नही तो ऊँचे पर्वत की सैर ही कर आएंगे। -मुनीम ने अपनी सहमति दर्ज कर दी।

चर्चा अन्त में सहमति तक आ पहुँची। तय हुआ कि ऊँचे पर्वत पर उस गुप्त साधना के लिए वे चारों अगली सुबह निकलेंगे।


ऊँचे पर्वत की ओर...

इतनी बर्फ़ उन्होंने अपने जीवन में कभी नहीं देखी थी। रास्तें, दवेदार, पत्थर सभी जीवित-मृत वस्तुओं पर बर्फ जमी थी। बर्फ़ उनके पेरो को भी धीरे-धीरे जमा रही थी। दांत कटकटाते हुए वह आश्रम की ओर अग्रसर थे।
“साधना नहीं यहाँ हमें प्रार्थना की जरूरत पड़ सकती है। 121 दिन तुम इस बर्फ़ में रह लोगे?“ -लंगड़ू ने शंका पैदा करने की कोशिश की।
“रेगिस्तान को झेलने वाला किसी भी परिस्थिति को झेल सकता है। तुम बस अपने अपराध गिनों ताकि प्रक्रिया के पूर्ण हो जाने पर लाभ-हानि का हिसाब रख सको“-मनोहर ने कहा।

आश्रम की ओर बढ़ते हुए उन्हें कुछ लोग दिखाई पड़ते थे जो कि एक ही बात बड़बड़ा रहे थे। -“देह हमारी नहीं अपराध हमारा नहीं“

“क्या यहाँ तंत्र-मंत्र होता है? इस ही से खुलेगा स्वर्ग का द्वार?“-लगंड़ू ने तजं कसा।
“लंगड़ू, तुम्हारी धारणाएं हमेशा नकारात्मक ही क्यों होती है? यह तंत्र-मंत्र है या गुरूमंत्र वह तो आश्रम पहुँच कर ही पता चलेगा न?-असलम ने सभी को इंगित कर के यह बात कही।

फिर चारो आश्रम की ओर तेजी से बढ़ गए।
आश्रम कुछ ख़ास नहीं था। एक विशाल कक्ष था जिसमें बड़े-बड़े रोशनदान थे। दीवारें मटमैली थी।
जगह-जगह पर अगरबत्तियां जलाई गई थी। एक आश्यर्च की बात थी, कक्ष के अन्दर का वातावरण उतना ही गर्म था जितना बाहर ठण्डा था। करीब साठ से सत्तर लोग ऊपर से निर्वस्त्र ध्यान में लीन
थे। स्त्रियों ने लंबे चोले पहने थे। यहाँ भी स्त्रियों की संख्या पुरषों से कम थी। सामने जमीन से थाड़ी ऊँचाई पर एक सिंहासन लगा था जो कि ख़ाली था।
“जी, क्या सेवा कर सकते है आपकी?“ -विशेष वस्त्रों में एक लड़का उनकी ओर बढ़ा।
“हम गुरुजी की शरण में आए है।“-असलम ने कहा।
“जी यहाँ सब ही गुरुजी की शरण में ही आते है।“ - उसने मुस्कुराते हुए कहा।
असलम ने कहा। -“हमने सुना है यहाँ कुछ अदला-बदली होती है।“
“अदला-बदली तो कईं चीजों की हो सकती है। दुखों की, सुखों की, विचारों की, दर्शन की, आत्मा की, भाग्य की, -उसने जवाब दिया।
“हम अपराधों की अदला-बदली के लिए आए है।“ -लंगड़ू सीधे विषय पर आया।
“ठीक है, आप यहीं आश्रम के धर्मशाला में ठहर जाइए। मेरा नाम रवि है, मैं उनका शिष्य हूँ। कोई जरूरत हो तो बुला लीजिएगा। बाक़ी आगे की जानकारी आपको दे दी जाएगी। -इतना कह कर हाॅल में ही स्थित अंँधेरे कमरे में वह ओझल हो गया।

अगला दिन-

“क्या आप वाकई में यह क्रिया करना चाहते है?“ -रवि ने गंभिरता से पूछा। साधना शुरू होने से पहले यह अनवार्यतः सभी से पूछ लिया जाता था। उन्हाने उतनी ही गंभीरता से हाँ कह दी।

क्रिया शुरू होने से पहले उन्हें उस ही अँधेरे कमरे में एक-एक कर बुलाया गया। सबसे पहले असलम की बारी आई।

असलम ने जब पहली बार गुरु को देखा तो वह उनका तेजस्व देख हतप्रभ रह गया। लगता था ध्यान की प्रक्रिया उनके दर्श न-मात्र से शुरू हो चुकी है। कोई आडम्बर नहीं था। एक साधारण सा चोगा
ओढ़े वह ध्यान में लीन थे। दाढ़ी लगभग नाभी तक आती थी। भोंहे प्रत्यंचा की तरह तनी थी। चेहरा सरोवर की तरह शान्त था और मस्तक सूर्य के समान तेजवान।
“तुम्हारे यहाँ आने का प्रयोजन क्या है?“ -उन्होंने आँखें खोली।
“जीवन के किन्हीं कमजोर क्षणों में मैंने जाने-अनजाने में कई गुनाह किए, प्रभू। वो कृत्य कर डाले जिन्हें करने का मेरा इरादा कभी ना था। मैंने कई बार प्रायश्चित किया। मगर दोज़ख का खोफ़ सताता ही रहा। अब आपकी शरण में हूं, क्या वाकई में अपराधों की अदला- बदली मुमकिन है?“ -असलम ने पूछा।

“संभव है। “-गुरुजी ने बहुत कम शब्दों में उत्तर दिया।
“मेरे ही साथ लंगड़ू नाम का लड़का आया है। वह करीब 26 साल का है। उसने अपने जीवन में सिर्फ़ एक ही गुनाह किया है। उसे एक लड़की से प्रेम हो गया था। उसने अपना प्रेम प्रस्ताव कई बार उस
लड़की को दिया मगर लड़की ने उसे हर बार ठुकरा दिया। फिर लड़की की शादी तय हो गई। लंगड़ू यह सब लंगड़ू सह न सका। उसने लड़की की झोपड़ी में आग लगा दी। इस घटना में लंगड़ू की भी एक टाँग बुरी तरह जल गई। लंगड़ू अपने लंगड़ेपन को ही अपना प्रायश्चित मानता है, जो कि सही भी है। मैं उसके अपराध से अपने अपराध की बदली करना चाहता हूँ। क्योंकि उसने यह जुर्म प्रेम में किया, और आपके प्रवचनों में
ही मैंने सुना है “प्रेम धर्म सर्वोपरि“

गुरू जी ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। वह मुस्कुराए और एक रूदा्र क्ष उसे थमा दिया।

बैसाखी के सहारे लंगड़ू ने कमरे में प्रवेश किया। उसने गुरु को नमस्कार किया-“वैसे तो मैं इन सब बातों पर विश्वास नहीं करता। मेरे दोस्तों के आग्रह पर मुझे यहाँ आना पड़ा। अब आ ही गया हूँ तो आपकी इस प्रक्रिया का हिस्सा बनना चाहता हूँ।“

“किस तरह के अपराध का प्रायश्चित कर सकोगे तुम? “-गुरु ने पूछा।
“मेरे मित्र मनोहर मुझ से उम्र में बड़े है। उन्होंने कभी अपने हाथ से कोई अपराध नहीं किया। हमेशा धन के बल पर अपराध करवाये। उनके भाई ने अपनी मनोस्थिति के चलते जहर खाया। देखा जाए तो उनका अपराध कम आंका जा सकता है।“
उन्होंने उसे भी एक बिना कुछ कहे रुद्राक्ष थमा दिया।
मुनीम से प्रश्न दोहराया गया।
उसने उत्तर दिया।-“असलम की माँ की अकस्मात् मौत के बाद उसके पिता ने उसे संभाला नहीं कारागृहो की ख़ाक छानते-छानते वो अपराधी बन गया। परिस्थितियों ने उससे अपराध करवाए है। उसके जुर्म को अपने अपराध से बदलना चाहता हूँ।“
उसे भी रूद्राक्ष दे दिया गया।
अन्त में मनोहर ने प्रवेश किया -“मैंने अपने भाई का घर तबाह कर दिया। चुंकि पाप घर में हुआ तो दण्ड दुगना हो जाता है। उस मुनीम ने कोई हत्या या डकैती नहीं की बस उसका चित्त थोड़ा चंचल है
और यौवन के उत्साह में एसा हो जाता है। एक लड़की का बलात्कार मेरी नजर में प्रायश्चित योग्य अपराध है, हालाँकि लड़की ने बाद में अपने प्राण त्याग दिए परन्तू मुनीम ने उसकी हत्या तो नहीं की।“
गुरु ने फिर भी कोई उत्तर नहीं दिया बस रूद्राक्ष थमा दिया।
तब से लेकर 121 दिन तक वो लगातार ध्यान में मुग्ध रहे।
वे चारों एक सफेद गुफा में थे। एक विशाल, चमकदार गुफा...। बर्फ से आवरित मगर ठण्ड से रहित।
वहाँ किसी चीज का एहसास नहीं था। उन्होंने देखा उन चारो के हाथ में ख़ास क़िस्म की टोकरियाँ थी।
एक-एक कर उन्होंने अपनी टोकरी एक दूसरे को थमा दी। और टोकरियाँ उस ही क्रम में थमाई गई
जिस क्रम में उन्होंने एक दूसरे के अपराध लेने की इच्छा ज़ाहिर की थी। इतना होते ही वे बर्फ में ही विलीन हो गए, और उनकी आँखें खुल गई। उन्होंने पाया कि वह अर्धनग्न अवस्था में आश्रम में लेट हुए है। उनके ध्यान का आज अन्तिम दिन था।
वे चारों वही थे, विचार, देह, स्वभाव, ध्वनी, चेहरे वही थे, नाम वही था ,आश्रम वही था, गुरू,, अनुयायी सब वही थे, मगर कुछ था जो बदल चुका था।
कुछ वर्ष बाद-

मनोहर ने आत्महत्या कर ली थी। मुनीम बहुत पहले ही ख़ुद को कानून के हवाले कर चुका था। लंगड़ू अपनी नौकरी छोड़ कर अज्ञातवास में चला गया था।

ऊँचे पर्वत का दृश्य-

प्रिय गुरु, क्या आपने कभी कोई अपराध किया है? अगर हाँ तो क्या आप अपने ऊपर कभी यह विद्या आजमाएंगे? -रवि ने उत्सुक्तापूर्ण पूछा।
मैं, अपने अपराधों के साथ, जीवन और मृत्यु की कल्पना कर सकता हूँ। मगर वह अपराध जो मैंने किए ही नहीं, उनके साथ ना मेरे जीने की संभावना है ना मरने की। और जो ना जी पाते है ना मर
सकते है वे लोग पागल हो जाते है।


(उस ही बड़े पेड़ के नीचे असलम को अग्नि में एक लड़की दिखाई देती थी। वो रोज आग जला कर उस साये से बात किया करता था।")

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