मां की ममता

वीमेन्स फिक्शन
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जनकपुरी गांव में कलावती अपने पति के साथ सुखमय जीवन व्यतीत कर रही थी। कलावती के पति का नाम कश्यप था। कलावती पेट से थी, इसलिए कश्यप उसका बहुत ध्यान रखता। कलावती के ज्यादातर काम, वह स्वयं कर लेता। कश्यप, लकड़ी की एक फैक्ट्री में मजदूर थे। उनकी तनख्वाह बहुत कम थी। बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी उनको नसीब होती थी; लेकिन जो मिला उसमे वह संतोष मानते थे और खुशी-खुशी अपना जीवन बिताते थे।

कुछ महीनों बाद, कलावती ने अपनी कोख से एक बच्चे को जन्म दिया। जिसका नाम रखा गया, वीरभद्र। बच्चे के घर में आते ही, कलावती और कश्यप की खुशी का तो मानो ठिकाना ही नहीं रहा! वीरभद्र के पालन - पोषण के लिए कश्यप फैक्ट्री में पहले से ज्यादा घंटो तक काम करता। १ महिने बाद, अचानक इस परिवार पर भारी संकट आ पड़ा। फैक्ट्री में काम करते वक्त, एक दुर्घटना घटी। कश्यप का ध्यान थोड़ी देर के लिए काम से हटा और वह अपने बच्चे के लिए कुछ सोच रहा था, तभी नजर हटी और दुर्घटना घटी। कश्यप के दोनों हाथ, मशीन में आ गए और हाथ कट गए। इस हादसे ने, केवल कश्यप के दोनों हाथ ही नहीं, परिवार की रोजी-रोटी भी छीन ली। कलावती और कश्यप दोनों पूरी तरह से टूट चुके थे। फैक्ट्री से कश्यप को कुछ पैसे मिले; लेकिन वो भी ज्यादा महीनों तक नहीं चल पाए। कश्यप ने एक बार खुदकुशी करने का भी प्रयास किया; लेकिन कलावती ने उनको समझाकर रोक लिया।

सब कुछ टूट चुका था, लेकिन कलावती का होंसला और हिम्मत नहीं। कलावती ने अपना घर चलाने के लिए, उसने काम खोजना शुरू किया। एक बड़ी इमारत के कंस्ट्रक्शन के लिए काफी मजदूर की जरूरत थी। कलावती को काम की जरूरत थी, इसलिए उसने फ़ौरन वहा पे काम करना शुरू कर दिया। कलावती, कंस्ट्रक्शन के काम के लिए, भारी ईंटो को उठाती, रेत और सीमेंट की बोरी से रेत और सीमेंट निकालकर, यहां से वहा ले जाना, ये सब मुख्य कार्य थे। कलावती, वीरभद्र को भी काम पर अपने साथ ले आती थी; क्योंकि घर पे उसकी देखभाल करनेवाला कोई नही था। कलावती एक जगह पे वीरभद्र को बिठा देती और पूरा दिन काम करती। बच्चा बहुत रोता - चीखता, तो कलावती उसके पास चली जाती और उसको संभालती। उसको दूध पिलाती, खाना खिलाती और सुलाने का प्रयास करती। फिर जैसे ही बच्चा शांत हो जाता, वह फिर से काम पर लग जाती।

धीरे-धीरे वीरभद्र ५ साल का हो गया। अचानक, एक ओर दुख का पहाड़, इस परिवार पर टूट पड़ा। वीरभद्र के पिताजी कश्यप को अचानक दिल का दौरा पड़ा। कलावती उनको अस्पताल भी ले गई, लेकिन बहुत कोशिश के बाद भी, डॉक्टर उन्हें नहीं बचा पाए। इस घटना के बाद, कलावती के सिर से अपने पति का साया चला गया और वीरभद्र के सिर से अपने पिता का। कलावती ने हार नहीं मानी, उसने अपने बेटे की परवरिश में कोई कमी नहीं रखी। वीरभद्र अभी छोटा था, इसलिए बहुत जिद्द करता था। “ मां मुझे ये खिलौना चाहिए। मां मुझे ये खाना है, दिला दो ना!” मां कई बार स्वयं भूखी रहती, लेकिन वीरभद्र को पेट भरकर खाना खिलाती। मां खुद अपने शौक पूरे नहीं कर पाती, लेकिन अपने बच्चे के सारे शौक पूरे करती, उसको जो खिलौना चाहिए, वो लाकर देती। रात को वो खुद नीचे सो जाती, लेकिन वीरभद्र को बिस्तर पर सुलाती। कड़ाके की ठंड में, वह पूरी तरह ठंड से कांपती, खुद बिना बिस्तर और कंबल के, जमीन पर सोती; लेकिन अपने बच्चे को कंबल ओढ़ाती और प्यार से सुलाती थी।

खुद से भी ज्यादा, वह वीरभद्र का ध्यान रखती। वीरभद्र ६ साल का होते ही, उन्होंने उसको स्कूल भेजा; लेकिन फिर भी उनको पूरा दिन उसकी चिंता रहती, जब तक की वह स्कूल से वापस नहीं लौट आता। मां दिन -रात मेहनत करती और अपने बच्चे को पढ़ाती। वीरभद्र भी मन लगाकर पढ़ता। धीरे-धीरे वीरभद्र बड़ा होता गया, उच्च अभ्यास के लिए मां ने उसको कॉलेज भेजा। कुछ सालो के बाद, वही बेटा बड़ा होकर एक बहुत बड़ा चित्रकार बना और उसने पूरे राज्य और देश में बहुत नाम कमाया।

एक बार एक सम्मान समारोह में वीरभद्र को बुलाया गया। वहा पे किसीने उसको पूछा, “आप इतने बड़े चित्रकार कैसे बने? आपकी सफलता के पीछे का रहस्य क्या है?” “मेरी मां। मेरी मां ने मुझे सफल बनाया है। आज में कामयाब हुआ हूं, तो सिर्फ उनकी वजह से। उन्होंने कितने कष्ट, कितनी पीड़ा, कितने दुःख सहकर मुझे बड़ा किया, मेरी हर एक जिद्द पूरी की। मेरी पढ़ाई के लिए उन्होंने अपना जीजान लगा दिया। रात को मुझे पढ़ाने के लिए वो खुद जागती, मुझे चित्र की प्रेक्टिस करवाती। वो खुद नीचे सोती, लेकिन मुझे बिस्तर पर सुलाती। खुद भूखी रहती, लेकिन मुझे पेट भरकर खाना खिलाती। आज जो कुछ भी हूं, मेरी मां की वजह से हूं। मेरे लिए मेरी मां ही मेरा ईश्वर है, मेरा खुदा है।” कहकर उसने स्टेज से उतरकर अपनी मां को अपने गला से लगा लिया।

सम्मान समारोह पूरा होते ही वीरभद्र अपनी मां को एक तोफा दिखाने ले गया, जो उसने अपनी मां के खरीदा था। वीरभद्र ने अपनी मां की आंखो पर पट्टी बांधी थी। जब पट्टी खोली, तब मां के सामने एक खुबसूरत घर था। वीरभद्र ने कहा, “ मां, अबसे हम इस घर में रहेंगे।” फिर कुछ सालो तक, मां और वीरभद्र खुशी और आनंद से उस घर में रहने लगे। मां को तकलीफ न हो, इसलिए उन्होंने एक नौकर को भी रख लिया। नौकर घर के सारे काम में, मां का हाथ बटाता और मां का ध्यान रखता। वीरभद्र भी काम से घर आने के बाद, मां की सेवा में लग जाता। मां का पैर दबाता, सिर दर्द करता, तो वहा पे भी मालिश करके देता और उनको अपने हाथो से खाना खिलाता। मां की हर एक जरूरत को पूरी करता, जो उनको चाहिए। धीरे-धीरे मां की उम्र बढ़ती गई और अब उनकी मृत्यु निकट आ गई। मां ने एक दिन अपने बेटे वीरभद्र को बुलाया और कहा,“ बेटा, मेरा अंतिम समय अब आ चुका है। मैं जा रही हूं। बेटा, खुद का ध्यान रखना और किसी नेक दिल की लड़की से विवाह करके अपना घर बसा लेना। मैं चलती हूं, ध्यान रखना।” कहकर मां ने अपनी अंतिम सांसे ली।

दोस्तों, इस कहानी से हमें ये जानने और समझने को मिलता है की मां एक ईश्वर का ही रूप है। मां की ममता की तुलना किसीसे नहीं हो सकती। मां के स्नेह का वर्णन हम शब्दों में नहीं कर सकते। मां, कितनी पीड़ा, कष्ट, दुःख सहकर हमें बड़ा करती है, हमारी परवरिश करती है, वो खुद ही जानती है।

( सूचना - यह कहानी काल्पनिक है। इस कहानी में दिए गए सारे पात्र और जगह भी काल्पनिक है। किसी की भी भावनाओं को ठेस पहुंचाना मेरा उद्देश नहीं है। )

- आशीष पटेल ( आशु )

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