JUNE 10th - JULY 10th
"गुड मॉर्निंग नीम भैया" मेरे दाईं तरफ वाले अमलतास ने अपनी सुनहले फूलों से लदी डालियाँ हिलाते हुए कहा। बाईं तरफ वाला भला कैसे पीछे रहता, उसने भी ढेर सारा सोना मेरे नीचे बिखेर दिया। सड़क के उस पार वाले जामुन ने भी पत्तियाँ लहरा दीं।
"गुड मॉर्निंग दोस्तों" मैंने जवाब दिया। "क्या बात है भैया, आज बड़े ढीले से लग रहे हैं आप?" जामुन ने सहानुभूति से पूछा। हम पेड़-पौधे बिना कहे ही एक-दूजे का सुख दुख जान लेते हैं। "आज मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही। इधर कुछ दिनों से बहुत कमज़ोरी महसूस हो रही है। अब उम्र भी तो हो गई है। सत्तर के करीब होगी मेरे ख़याल से।" मैंने हिसाब लगाते हुए मुरझाई आवाज़ में कहा।
"अरे छोड़ो न दादा, एज इज़ जस्ट ए नंबर। आप तो एवरग्रीन हो।" नीचे से कचनार के पौधे ने आवाज़ लगाई। बड़ा शैतान है ये पौधा। बरस भर पहले अपने आप ही उग आया था। जब देखो तब अपनी हरी कटावदार पत्तियों से मेरे बूढ़े भूरे तने पर गुदगुदी करता रहता है। जैसे कोई बच्चा किसी बुज़ुर्ग के कंधे पर झूलने की जुगत लगा रहा हो। एक तो सलोना भी इतना है कि क्या कहूँ। हर समय डोलता नाचता रहता। इसका बस चले तो मिट्टी से निकल कर सारी सड़क नाप आए। बड़ा लगाव है हम सबको इससे, वैसे ही जैसे इन्सानों को अपने नाती-पोतों से होता है।
यही मेरा छोटा सा परिवार था। बरसों से यही संगी साथी थे मेरे। रोज़ मेरी सुबह इन सबकी गुड मॉर्निंग से होती। हाँ, संवाद ऐसे नहीं होते पर भावनाएँ ऐसी ही हैं। यूं इस सड़क के बाकी पेड़ भी अपने ही हैं, लेकिन एक ही जगह बरसों-बरस खड़े रह कर बस दूर से ही दुआ-सलाम हो पाती थी। उनके भी ऐसे ही छोटे-छोटे परिवार थे। कभी-कभी बहुत मन करता उन सबसे मिलने जाने का, पर ये हमारे लिए संभव कहाँ।
शायद इन्सानों को लगता हो कि हम दरख़्त आपस में बात नहीं करते। वे नहीं जानते कि कितनी सारी बातें की हैं हमने इतने बरसों में। कितने ही सुख-दुख साथ बांटे हैं। भले ही एक दूजे को थामने वाली बांहें नहीं हैं हमारे पास, लेकिन हम लोग भी मन ही मन गलबहियाँ करते रहते हैं। अपनी डाल पर बसेरा किए हर पाखी से दोस्ती थी हमारी। हम सभी इस राह से जाने वाले और इस कॉलोनी में रहने वाले ज़्यादातर लोगों को पहचानते थे। इस लिहाज से वो सब भी हमारे दोस्त हुए।
उस दिन सच में बहुत थकान लग रही थी। मन भी बेचैन था। उल्टी-सीधी बातें मन में आ रही थीं। तभी अचानक मौसम बदला और आंधी के साथ तेज़ मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। अभी कुछ देर पहले तक तो धूप खिली हुई थी। वैसे तो ऐसा अक्सर होता है, पर न जाने क्यों उस दिन मुझे किसी अनहोनी का अंदेशा हो रहा था। बारिश से बचने के लिए कई स्कूटर-साइकिल सवार और पैदल मुसाफिर मेरी छाया में दुबके हुए थे। मैं चुपचाप खड़ा उनकी बातें सुन रहा था। झुंझलाई और परेशान आवाज़ें, "दफ्तर जाते वक़्त ये बारिश क्यों होने लगती है भला?" "अभी तो बुखार से उठा हूँ, दोबारा बीमार पड़ूँगा पक्का" "पापा, मेरा स्कूल बैग भीग गया" "कितनी तेज़ बारिश है, ये पेड़ भी आखिर कितना बचा पाएगा भीगने से।" बातों के टुकड़े हवाओं के साथ मुझ तक पहुँच रहे थे।
उम्रदराज़ होने की साथ मेरे शरीर का फैलाव भी काफ़ी बढ़ गया था, इसलिए लोग भी बहुत थे। इनमें से ज़्यादातर को मैं लगभग रोज़ ही देखता हूँ इसी राह से आते-जाते। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरी छाँव में पनाह लेने वाले ये लोग मेरे बच्चे हैं, ठीक उन्हीं बच्चों की तरह जिन्होने मेरी दो मोटी डालियों से टायर लटका कर झूला बना रखा है और रोज़ ही झूलते रहते हैं। या फिर उन स्त्रियों की तरह जो मेरी छांव में बैठ कर एक-दूजे से अपने सुख-दुख साझा किया करती हैं। उफ़्फ़, क्या कहूँ उनकी बतकहियों की....बताऊंगा जल्दी, पहले इधर ध्यान दे लूँ ज़रा।
मैंने एक जिम्मेदार अभिभावक की तरह अपनी सारी डालियों और पत्तियों की बांहें दूर तक फैला दीं ताकि उन मुसाफ़िरों को थोड़ा सा बचा सकूँ। इस वक़्त मेरा ही आसरा है इन्हें, कोई कोर-कसर न उठा रखूँगा। यूं तो मेरे दोनों तरफ खड़े अमलतास भी पूरी कोशिश कर रहे हैं, पर एक तो वो उम्र में मुझसे बीसेक बरस छोटे हैं, और इतने घने भी नहीं।
मैं सीधा तना कर खड़ा था कि उसी समय....ठीक उसी समय महसूस हुआ जैसे माटी के भीतर कुछ दरक रहा है, जैसे इस ज़मीन का साथ अब छूटने जा रहा है, जैसे उम्र पूरी हो गई है। हल्का सा अंदेशा तो मुझे पिछली बारिश में ही हो गया था, लेकिन आज की दरकन तो जैसे मेरे अवसान का संदेश लेकर आई है।
नहीं, मैं ऐसे नहीं टूट सकता। अगर अभी गिरा तो इन सबका जीवन खतरे में पड़ जाएगा, और मैं अनजाने में भी किसी को कष्ट नहीं दे सकता था।
'हे ईश्वर, कुछ देर के लिए थाम लो मुझे, बस बारिश रुकने तक....बस इन लोगों के चले जाने तक' मैंने आँसू भरी आँखों से आसमान की तरफ देखा। मेरी पलकों से गिरी बूंदें बारिश में घुल कर ज़मीन में समा गईं। उसी ज़मीन में, जिससे मैं शायद बहुत जल्दी जुदा होने वाला था।
मैंने बहुत देर से खुद को मजबूती से थाम रखा था, पर अब खड़े रहना बेहद मुश्किल हो रहा था। आगे बढ़ कर हाथों से किसी सहारे को थाम लूँ, ये भी मुमकिन नहीं था।
जड़ों का मिट्टी से कसाव ढीला पड़ता जा रहा था। किसी भी क्षण कुछ भी घट सकता था। मुझे अपनी चिंता नहीं थी, वो तो हम पेड़-पौधे कभी करते ही नहीं। मुझे खयाल था तो अपनी छाया में सिमट कर बारिश खत्म होने का इंतज़ार करते लोगों का। अवसान के इन क्षणों में मेरा सारा जीवन मेरे सम्मुख तैर गया। मैंने अनजाने में भी किसी का अनिष्ट नहीं किया था। फिर आज किसी को चोट कैसे पहुंचा दूँ।
मैंने कातर दृष्टि से अपने दोस्तों को निहारा, 'हिम्मत बढ़ाते रहो मेरी। बस कुछ देर और।' इंद्र देव से प्रार्थना की, 'जल्दी कुछ कीजिये, अब हिम्मत जवाब दे रही है।' और खुद से कहा, 'हिम्मत रखना।'
जिस तेज़ी से बारिश आई थी, खूब बरस कर उसी तेज़ी से थम गई। क़ैद से छूटे पंछी की तरह लोग अपने-अपने ठिकाने को निकल पड़े थे कि तभी ज़मीन में एक ज़ोर की चरमराहट हुई और मैं एक तरफ झुकने लगा। बस कुछ ही सेकंड में मेरी जड़ें तेज़ आवाज़ करती हुई मिट्टी से बाहर निकल आईं और डालियाँ पत्तियों के शोर को समेटते हुए ज़मीन पर गिर गईं।
एक पखवाड़ा बीत गया है। बच्चों ने कुछ दूर वाले एक दूसरे पेड़ की डालियों पर टायर लटका लिए हैं और खुशी-खुशी झूला झूल रहे हैं। औरतें किसी दूसरे पेड़ के नीचे अपने सुख-दुख साझा करने लगी हैं। लोग मेरे तने, डालियों और पत्तियों को जलाने के लिए अपने घर ले जा चुके हैं। मेरे सामने से गुज़र जाने वाले वो लोग जिनकी खातिर मैं उस दिन रोया था, अब भी मेरे सामने से निकल जाते हैं, बिना मेरी तरफ नज़र डाले। कुछ दिन पहले तक मैं भी था यहाँ, जैसे किसी इन्सान को याद ही नहीं। अमलतास और जामुन की कातर दृष्टि ही मेरा संबल है जीवन की इस संध्या में।
ज़मीन से बाहर निकला हुआ मेरा बचा खुचा शरीर मृत्यु की प्रतीक्षा में वैसे ही निस्पंद पड़ा हुआ है जैसे शायद पितामह भीष्म का शरीर शर-शैया पर रखा रहा होगा। गिरते वक़्त मुझे भरोसा था कि सड़क के इस हिस्से में मेरे जाने से उपजा शून्य सबको अखरेगा। लेकिन देख रहा हूँ, भागदौड़ भरी इस ज़िंदगी में कुछ पल ठहर कर इस शून्य को निहारने का वक़्त किसी के पास नहीं। बहुत मन करता है कि एक बार....सिर्फ एक बार कोई रुके यहाँ, मेरे निस्पंद शरीर को कुछ पल निहारे और कहे, 'तुम्हें देखने की आदत पड़ गई थी। सूना-सूना लगता है तुम्हारे बग़ैर।'
बारिश के उस दिन सबने राहत की सांस ली थी। राहत इस बात की, कि पेड़ गिरने से पहले ही सब उसके नीचे से निकल गए। राहत इस बात की, कि किसी को चोट नहीं आई, पेड़ की नीचे दब कर किसी की जान नहीं गई।
उन लोगों में से किसी को ध्यान नहीं था कि गिरने वाले को भी चोट लगती है।
किसी ने नहीं देखा था कि पेड़ के नीचे दब कर बरस भर के हरे-भरे कचनार की मृत्यु हो गई थी।
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twinkletomarsingh
एक संवेदनशील हृदय से निकली संवेदनशील कहानी। बहुत अच्छी लगी। एक एक शब्द हृदय को छू कर निकल गया। शुभकामनाएं।
yanjana884
सारगर्भित लेख है ।
abhinavsri5426
Description in detail *
Thank you for taking the time to report this. Our team will review this and contact you if we need more information.
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