टूटते सपने
कहते हैं साथ हो या रिश्ता... जो भी बनता है वो जन्मोंजन्म तक बना रहता है, मगर कुछ रिश्ते इस जन्म तक ही सीमित रह जाए तो अच्छा है। ऐसे ही रिश्तों में एक रिश्ता है विवाह बंधन का....ग़र ये रिश्ता किसी अच्छे इंसान से जुड़ जाए तो जिंदगी यहीं स्वर्ग बन जाती है और यदि बुरे इंसान से तो नरक,
कुछ ऐसा ही हुआ सरिता के साथ, आसमान में उड़ने वाली, तारों को छूने की आकांक्षा रखने वाली, समाज को सच का आईना दिखाने की सोच रखने वाली सरिता ... गेंहुआ रंग,कपोलें कुछ धंसी हुई-सी, उम्र के साथ रंग बदलते लंबे बाल, शरीर कमजोरी से ढ़लता हुआ, जब भी झाड़ू पोचा लगाते हुए वो दिखाई देती है तो उसके सुनहरे पल याद हो आते हैं जिनमें वो हमेशा खुश रहा करती थी और सबको हंसाया करती थी।
समय का चक्र बड़ा बलवान है राजा को रंक और रंक को राजा, दुःख को सुख और सूख को दुःख में बदलते देर नहीं लगती है। सरिता जब भी पढ़ाई करके आती थी तो अपने पापा को कुछ न कुछ बनने की बात कहती ; धनराज (सरिता के पापा) अंकल सोचते कि यह नादान है, इसे ज्ञात नहीं है कि ये बिन मां की है, इसे कैसे समझाया जाए? बाप बेटी का वो प्यारा रिश्ता तो कुछ बहुत अजीब ही था ! जिसमें चिंता तो थी उसके लिए मगर उसके लड़कपन पर गुस्सा भी बहुत था।
उसकी हर एक छोटी-सी गलती पर खूब मारते पीटते ताकि उसकी बेटी ससुराल में कोई नादानी या गलती ना करे। हमारे भारतीय समाज में हमेशा से ही विवाह को स्त्री के लिए एक बंधन का रूप दिया जाता है । राजीव और सोहन उसके दो बड़े भाई जो समाज की ही प्राचीन परम्परा का निर्वाह करने में तत्पर रहते हैं यानी कि वो लड़की को बस घर तक ही सीमित रखना चाहते थे, सरिता के पैरों में गृहस्थ जीवन की बेड़ियां डालना चाहते थे! सरिता को रोज डांटते की "लड़कियों का इस तरह मचलना समाज में अच्छा नहीं होता,लड़कियों को तो घर का ही काम करना है ज़्यादा समाज से ऊपर उठकर सपने पूरे करने का नहीं।" सरिता दोनों भाइयों की बहुत कदर करती थी परन्तु वह उनकी लड़कियों के प्रति छोटी सोच से घृणा करती थी।
सरिता ने जब आठवीं उत्तीर्ण की उसके पापा बहुत बीमार हो गए और उन्होंने उसका रिश्ता तय कर दिया, ताकि यह अपने अगले घर चली जाए और अपने सपनों पर लगाम लगा कर जिम्मेदारी को बखूबी निभा सके। लड़कियों की घर में आखिर कहां चलती है ;वो भय की वजह से अपने पापा से शादी के लिए मना भी नहीं कर सकी ,सबकी जिद्द के आगे हार गई।
सरिता की शादी उनकी दुगुनी उम्र के लड़के के साथ कर दी गई। अभी कुछ ही साल बीते हैं सरिता को ससुराल में आए हुए, उसने आते ही घर को चमन बना दिया था। रमेश शहर में एक छोटी सी नौकरी करता है जिससे घर खर्चा निकल जाता है। सरिता अपने सपनों को लेकर उलझन में रहती थी कि कैसे सपनों को ससुराल में पूरा करे? वो पढ़ना चाहती थी किन्तु रमेश उनके भाइयों की सोच जैैसी ही सोच रखने वाला निकला। प्यार का दिखावा करके वह हमेशा उन्हें डांटता रहता था।
बेचारी सरिता की वो दुनिया ही उजड़ सी गई जिसमें वो खुश रहा करती थी। अब सरिता न मायके जा सकती है और न ही घर के बाहर ,बस कैद सी हो गई है। सरिता अब दो संतानों की माता है ,उनके सपनों का वो महल अब धरासाही हो चुका है। जब तक लड़की मां नहीं बनती ,तब तक वो अपने सपने पूरे कर सकती है परन्तु मां बनने के बाद उनके कंधे पर बहुत सी जिम्मेदारीयां और बढ़ जाती है। जिम्मेदारी बढ़ती है तो वहां खर्चा भी बढ़ जाता है... जिससे घर में तनाव पैदा होता है ,जो इंसान के सोचने समझने की क्षमता को खत्म कर देता है और गृहस्थ जीवन में क्लेश, लड़ाई -झगड़ा और दूरियां घर कर लाता है।
रमेश को छोटी नौकरी से जब घर का लालन पालन ठीक से नहीं चलते दिखा तो वह टेंशन में आकर शराब पीने लगा था तथा काम को नशे में सही तरीके से नहीं संभाल पाने की वजह से मालिक ने उसको नौकरी से भी निकाल दिया था। शराब में लीन अब रमेश सरिता के चरित्र पर उंगली उठाता रहता है कि उसका गैर मर्दों के साथ नाजायज संबंध है। दोनों के बीच विश्वास की एक खाई पैदा हो चुकी है जिसे पार करना रमेश के लिए अब संभव नहीं है। रमेश अब कुछ नहीं करता है, घर में नशे में चूर होकर पड़ा रहता है।
सरिता के जीवन का अब यह सबसे बड़ा दुःख है क्योंकि उसे स्वयं दूसरों के घर में नौकरानी का काम करना पड़ता है । रमेश उनके पैसों से ही अब शराब पीता है जब सरिता कभी पैसे देने से मना कर देती है तो वह उस पर लांछन लगाकर घर में लड़ाई करता रहता है।
एक दिन खूब शराब पीकर रमेश रात्रि के 9 बजे घर आया और खाने को लेकर झगड़ा करने लगा,जब सरिता ने उसको उल्टा कहा सुनाया तो वह उसे खूब मारने पीटने लगा। सरिता के दर्द की चित्कार दूर दूर तक सुनाई दे रही थी। वह बाहर चला गया।
सरिता अपने भाग्य को कोसती थी और नासूर जख्म़ों के दर्द से कराहती हुई रोती रहती थी, दो बच्चों का पालन, पति का शराब पीकर रोज पीटना और घर तथा बाहर के काम से आहत होना सरिता का वो जीवन भंयकर तुफान से कम नहीं था।
दिन प्रतिदिन बस सरिता पर यही जुल्म होता रहता था और वह आँसू बहाती रहती थी। आखिर इंसान अपने ऊपर कब तक जुल्म सहन कर सकता है एक न एक दिन उन्हें क्रांति का या मौत का कदम उठाना ही पड़ता है।
सरिता अपना दर्द किसी से बांट भी नहीं सकती थी क्योंकि यहां ऐसे लोग है जो जख्म़ों पर मरहम कम नमक ज्यादा लगाने को तैयार रहते हैं! सरिता की देह कमजोरी से एकदम पीली हो गई थी,तब उसने मौत को गले लगाने की सोची।
जब रमेश रोज की तरह मारपीट कर बाहर चला गया तो सरिता उसके जाते ही बच्चों को सुला दिया तथा पंखें से चूनरी डालकर फांसी का फंदा गले में डाल लिया, अपने टूटते सपनों को याद करते हुए वह फूट फूटकर रोती रही और अपने बचपन के दिन, बाबा सबको याद करते हुए जैसे ही लटकना चाही तो उन्हें सामने सो रहे बच्चों की वो भोली सूरत नज़र आ गई ; बच्चों के भविष्य के बारे में सोचकर सरिता स्वयं से हार गई और फंदा निकालकर दोनों बच्चों को अपने सीने से लगा लिया।
"अश्रुधारा से मां की ममता जाग गई थी।"
रोहताश वर्मा " मुसाफ़िर "
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