पगलिया

94aman.soni
यंग एडल्ट फिक्शन
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रात के ग्यारह ही बजे थे और सारा शहर सन्नाटे की आगोश में समा चुका था। सड़के पूरी सुनसान थी। सर्दी की चुप रात में खामोशी को चीरती कुत्तों के भौकने की आवाज़ एक दम से उठने लगी। काला गहरा रंग, तीखी नाक, दुबला शरीर जिस पर हरी गुलाबी रंग की फटी सी साड़ी, कटे छोटे बाल और कंधे पर पीले रंग का फटा झोला जिसमे न जाने क्या क्या कचड़ा ठुसा हुआ था। रूप देख देख गली के कुत्ते हलाकान थे। कुत्तों का भौंकना इतना तेज़ हो गया की घरों की खिड़कियां और दरवाज़े खुल गए थे। कुछ लोग बाहर गए। लोगो ने उसे देखा। उन्हे समझने मे देर न लगी की कोई पागल है जिसके ऊपर कुत्ते भौंक रहे हैं। वो चुपचाप बरसो से बंद खंडहरनुमा मकान के दरवाज़े मे जाकर बैठ गई। कुत्ते थोड़ा देर भौंकते रहे फिर शांत हो गए। लोगो ने राहत की सांस ली।

सुबह सब लोग उसे जुगुप्सा और कौतुहूल से घूरे जा रहे थे। कुछ लोगों ने बात करने की कोशिश की।

" कहां से आई हो? का नाम है तुम्हारा?"

भगवान जाने कौन सी भाषा मे जवाब देती। एक शब्द किसी के पल्ले नहीं पड़ रहा था। लोग अलग अलग दावे पेश कर रहे थे। कोई कहता तमिल बोल रही है, तो कोई कहता नही नही ये तो तेलुगु है, तुलु, मलयालम, कन्नड़, सिंहली, नागामीज, बंगाली, मराठी सब मैदान में लाईं गई। सब भाषा विशेषज्ञ बने हुए थे पर किसी को कुछ समझ नही आया। दिन दिन भर वो इसी न समझ आने वाली बोली में बड़बड़ाती रहती। बच्चे डरे हुए थे उनकी माएं खुश थी।उन्हे अनुशासन मे रखना आसान हुआ जा रहा था। जो बच्चे नही डर रहे थे वो झुंड बना कर उसके पीछे पीछे चल रहें थे। जाने बच्चो से क्या चिढ़ थी उसे। वो उन्हे देख कर अपनी आवाज़ तेज़ कर लेती। कभी कभी उन्हें दौड़ा लेती। बच्चों ने नया खेल ईजाद कर लिया। उसे छेड़ते दौड़ाते छकाते। ये तभी रुकता जब वो थकन से चूर होकर बैठ जाती और लगभग रुआंसी आवाज़ मे और भी ज्यादा तेज तेज बड़बड़ाने लगती।

दिन बीतते बीतते सारा मोहल्ला उसकी उपस्थिति का अभ्यस्त हो चुका था। सारा मुहल्ला उसे पगलिया कहता। कोई सड़ा गला जैसा भी खाने को दे देता खा लेती। मोहल्ले से सटी एक गली थी जिसमे आठ दस दुकानें खुली हुई थी। सुबह होते ही वो वहा चली जाती। दिन उसका वहीं बीतता। आने जाने वाले लोगो को रोक रोक कर कुछ बताती जिसे कोई समझ नही पाता। कोई जान छुड़ाने के एवज में उसे पैसे दे देता। पर वो सारे पैसे नही लेती। जाने क्या राज़ था इसमें कि वो बस एक का सिक्का ही लेती थी। बाकी के सारे सिक्के जैसे उसके लिए धूल समान थे। वो सिक्के इकठ्ठा करती। दुकान मे जाती और कोई चीज़ लेकर वो सिक्के दे देती। पांच रूपए की बिस्किट के लिए पंद्रह पंद्रह सिक्के दे आती। कुछ दुकान वालो को इसमें बड़ा फायदा होता।

गर्मियों के जाते दिन थे। मानसून के आने की आहट थी। तेज हवाओं ने शहर मे उत्पात मचा रखा था। पूरे मुहल्ले की बत्ती गुल थी। ज्यादतर घरों के दरवाज़े खुले थे। लोग अपने अपने घर के बाहर निकल आए थे। तभी वो एक दम से आ गई। लगभग नंगी। उसके शरीर मे कपड़े के नाम पर जो साड़ी थी वो गायब थी। नीचे एक आधा फट चुका पोल्का था और छाती पूरी उघार। जिसने उसे देखा सकपका गया। औरतें उसे देख कर घर के अंदर चली जाती, मर्द इधर उधर देखने लग जाते। जो बच्चे डरते थे वो मां के पीछे पीछे ही दौड़ पड़े जो नही डरते थे उनके लिए ये अलग ही कौतुहूल का विषय था। वो चुपचाप अपनी चिर परिचित जगह मे गई और किसी लावारिश लाश की तरह पट्ट होकर लेट गई सुबह न जाने किसकी दया से उसे कपड़े का एक टुकड़ा मिल गया। सभ्य लोगो की जान में जान आई। उस दिन के बाद से मुहल्ले मे एक बात फैलने लगी। आदमी कहते की उस रात किसी ने उसके "मजे" लिए थे। औरतें कहती कि किसी ने उसे "शिकार" बनाया था। जाने ये सच था या अफ़वाह। उसकी बदबूदार मलिन देह देख कर इस अफ़वाह मे पहले पहल कोई विश्वास न करता । पर जहां मादा जानवरों को न छोड़ा जाए वहां देह की बदबू या मलिनता से क्या सरोकार। कुछ के लिए औरतें तो बस चलती फिरती योनियां है। सिर्फ और सिर्फ योनियां। और ये कुछ हमारे चारो ओर इतनी बहुतायत मे मिलते हैं कि इस अफ़वाह को सच न मानने का कोई भी तर्क नही मिलता। बहारहाल अफ़वाह सच हो या झूठी मर्दों औरतों ने एक साथ उस से घृणा करना शुरु कर दी। किसी दुकान के सामने कुछ मांगने जाती तो मर्द उसे दुत्कारते " चल हट छीनाल! बनी पागल है और जाने कहा कहा मुंह मारती फिरती है"। किसी घर के बाहर आने पर औरतें डरी हुई घृणा से उसे भगा देती। कुछ औरतों के पास दया तो थी पर घृणा ज्यादा थी। किसी के पास शुद्ध संवेदना नही थी, किसी के पास शुद्ध करुणा नही थी।

बरसात के चार पांच माह वो कहीं नज़र नही आई। जाने कहां चली गई थी। किसी को कोई चिन्ता नहीं हुई। किसी ने न कोई सुगबुगाहट की न ही कोई खुसफुसाहट। फिर दिसंबर की एक रात कुत्ते अचानक से तेज़ तेज़ भौंकने लगे। लोगो ने खिड़कियां खोल कर देखा । वो उसी खंडहर मकान के सामने बैठी थी। सुबह पूरे मुहल्ले मे चर्चाएं हो रही थी। "पगलियां वापस आ गई" "पगलिया वापस आ गई"। उसके गायब होने और फिर वापस आ जाने की नई नई थ्योरी गढ़ी जाने लगी। औरतों के इर्द गिर्द थ्योरी और अफवाहें बुनना तो इस समाज का सबसे पसंदीदा शगल है। "फलाने की बिटिया ने लड़के को रिजेक्ट कर दिया? अरे मानो न मानो किसी के साथ चक्कर चल रहा होगा इसका"

"फलाने अपनी बहु को पढ़ा रहा है? देखना पढ़ लिख लेगी तो रोटी तक न देगी उन्हे"

"क्या फलाने के घर कोई आदमी आया था? बताओ तो! विधवा हुए दो साल नही हुए और इनके गुलछर्रे शुरू हो गए"

और न जाने कितनी कितनी कितनी

पगलिया भी अपवाद कहां रहती। एक ने बोला "अरे बच्चा गिर गया है इसका तभी वापस आ गई"

"बच्चा??" दूसरा चौक पड़ता है

"हां तो! इतना काहे चौक रहें है गुप्ता जी? याद नही उस दिन नंगी आई रही"

"हां पर वो बात सच थी?" गुप्ता फिर एक बार पूछता है

"अरे सोलह आने सच थी। हमसे पूछो। हम औरतों को देख कर उनका चरित्र बता सकते है फिर चाहे वो पागल हो या कितनी ही दिमागदार" मिश्रा गुटखा की पुड़िया फाड़ते हुए बोलता है

"हां पर दिमागदार औरतें भी पागल हो होती है मिश्रा" तीसरा आदमी बीच मे बोल पड़ता है

"औरते पागल ही होती है । और फिर अच्छे खासे मर्द को पागल बना देती हैं।" मिश्रा मुंह में गुटखा भरे दार्शनिक अंदाज मे कहता है

और फिर तीनों हंसने लगते है।

ऐसी ही जाने कितनी थ्योरीज थी उसके गायब होने की। लेकिन उसे इनसे क्या ही फ़र्क पड़ता। उसने वैसे ही इधर उधर भटकना, मांगना, कर दिया था। हां अंतर बस ये था कि अब वो बड़बड़ाती नही थी। किसी की एक दुत्कार पर ही चली जाती। बच्चो के पीछे तब तक नहीं भागती जब तक वो सब उस पर धूल या कंकड़ न डालने लग जाते। वो ज्यादा ख़ामोश हो गई थी ज्यादा निरीह ज्यादा कमज़ोर।

इस बार सर्दियां बहुत कड़ाके की पड़ रही थी। पगलिया कुकड़ी सी पड़ी थी। सुबह उसकी जब आंख खुली तो उसने एक छोटे से पिल्ले को ख़ुद से सटा पाया। दोनो एक दूसरे से इस लिपटे थे जैसे मां अपने बेटे से लिपटी रहती है। पगलिया ने उसे हाथ मे उठाया और दूर फेंक दिया। पिल्ला पें पें कर के रोने लगा। पगलिया उठ कर चल दी। चार कदम बाद पलट कर देखा तो पिल्ला उसके पीछे पीछे चला आया था। उसने उसे दुत्कारा वो वहीं रुक गया। पगलिया फिर चलने लगी पिल्ला फिर उसके पीछे पीछे आ गया। पगलिया के दुत्कारने पर वो थोड़ा रुकता दो कदम पीछे हट जाता उतर जैसे ही वो पलटती वापस उसके पीछे चलने लगता। पगलिया को इस खेल में मज़ा आने लगा। वो कभी रफ़्तार तेज़ कर लेती तो पिल्ला भी अपने नन्हे नन्हे पैरों से तेज़ डेंगे भरने लगता। कभी उसे डराने के लिए उसके पीछे दौड़ जाती। पिल्ला हल्की सी आवाज निकलता भागने लगता। दोनो एक दूसरे के खेल को समझने लगे थे। दोनो एक दूसरे को पहचानने लग रहे थे। मार्केट वाली सड़क मे आकर पगलिया ने उसे उठा कर अपनी गोद मे रख लिया। पिल्ला उसके मुंह को चाटने लगा । पगलिया ने पिल्ले को अपना लिया, पिल्ले ने पगलिया को अपना लिया। ये सब कितना आसान था शायद हम जैसे दिमाग वाले इंसान समझ ही नही पाएंगे।

पगलिया उस पिल्ले को एक पल भी आंखों से ओझल नहीं होने देती थी। खुद के खाने की चिंता शायद ही कभी हुई हो पर उसके खाने के लिए बहुत जतन करती। एक रोज़ मुहल्ले में दूध लेकर आने वाले दूधवाले के बाइक के सामने खड़ी हो गई

"क्या है?" दूधवाले ने झिड़कते हुए बोला

न जाने वो किस भाषा मे क्या बोल रही थी। हाथो के इशारे से ये समझा जा सकता था की उस पिल्ले के लिए दूध मांग रही है। वो बड़बड़ाती रही।

"अच्छा दे तो दूं दूध लेगी किसमे??" दूध वाले ने पहले बोला और फिर इशारों मे उसे यही बात समझाने की कोशिश करने लगा।

पगलिया ने अपने झोली से स्टील की एक टूटी सी कटोरी निकाली

"वाह री! बनी पागल है मगर दिमाग़ बहुत है। ला देता हूं।"

दूध वाले ने उस कटोरी मे थोड़ा सा दूध डाल दिया। एक संतोषमयी खुशी पगलिया के चेहरे में तैर गई। अब वो हर रोज़ दूधवाले के सामने खड़ी हो जाती, दूधवाला उसे कटोरी मे दूध दे देता।

महीना बीत गया था। सुबह के दस बज रहे थे। रविवार का दिन था इसलिए बच्चे मुहल्ले के पार्क मे खेल रहे थे। पगलिया भी पार्क के बाहर बैठी थी पिल्ला उसके चारो तरफ खेल रहा था। पगलिया आसमान को निहार रही थी, एक टक। जाने क्या ढूंढ रही थी। कभी कोई पक्षी उड़ कर जाता तो उसे ही तब तक निहारती जब तक उसकी झलक बुझ नही जाती। कभी कोई बादल का टुकड़ा गुजरता तो न जाने उस से किस भाषा मे कुछ बोलने लगती। किस प्रेमी को संदेश भेज रही थी या तो वो जाने या फिर कही किसी देश में बैठा कालीदास। चारो तरफ बच्चो के चहकने की आवाज़ थी तभी अचानक......। एक जोर दार आवाज़ आई जैसे किसी गाड़ी के टायर बड़ी तेज जमीन में रगड़े हो और उसके बाद पेंपें की बड़ी तीखी आवाज़ चारो तरफ गूंजी और अचानक ही शांत हो गई। वो आवाज़ की दिशा मे भागी। सामने दो लड़के अपनी बाइक के पास खड़े थे। गाड़ी के अगले पहिए के पास उसका पिल्ला गिरा पड़ा था। वो बदहवास सी उसके पास दौड़ी पिल्ले के मुंह से ख़ून की एक धारा फूटी पड़ी थी। उसका पेट बहुत तेज़ी से फूल और पिचक रहा था। और फिर पिल्ले के शरीर मे कोई भी स्पंदन होना बंद हो गया। पगलिया चीखने लगी। लोग अपना अपना काम छोड़ कर बाहर आ गए। "अरे चिल्लाती क्यों है? सामने आ गया क्या करता?" दो में से एक लड़के ने बाईक पर बैठते हुए बोला। पगलिया बाइक के पास खड़े लड़को पर झपट पड़ी। एक तेज गुर्राहट, छटपटाहट, विलाप, विवशता, रूदन, आक्रोश न जाने क्या क्या था उसकी आवाज में। उसने हाथ में एक बड़ा सा पत्थर उठाया और एक लड़के को दे मारा। लड़का झुका और पत्थर बाइक की हैडलाइट से टकराया। हैडलाइट का कांच चूर हो गया। अबकी लड़को का ख़ून खौल उठा। उन्होंने उसे पकड़ा, एक ज़ोर का तमाचा उसके गाल मे जड़ दिया। दो चार लड़के और आ गए। पगलिया ने खिसियाहट मे एक और पत्थर उनके तरफ फेका। निशाना फिर चुका। पगलिया की बेदम पिटाई होने लगी। मुहल्ले के कुछ बड़े लोगो ने बीच बचाव किया तब जाकर पिटाई रुकी। आसमान मे जाने कहां से बादल आ गए थे। जाती ठंड, बेमौसम बरसात शुरू हो गई। सब अपने अपने घर की तरफ दौड़ पड़े। पगलिया कराहती सी पिल्ले की लाश के बगल से पड़ी थी। बारिश यकायक तेज़ होने लगी। उस दिन के बाद से किसी ने पगलिया को उस शहर मे नही देखा।

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