हार -जीत सांसों की

अडवेंचर
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हार-जीत सांसों की

आज रक्षाबंधन है। कल से बाज़ार में चहल- पहल है और घर के पीछे वाली सड़क पर भी। इसी सड़क से तो चल कर आया होगा कुरियर वाला। सब की सब राखियां पहुंच गई हैं, बस एक राखी नहीं पहुंची है और उस राखी की उम्मीद तो दो माह पहले ही टूट गई थी, हमेशा के लिए। आज चार आंखें नम है, एक जोड़ी मादा आंखें, एक जोड़ी नर आंखें।

बच्चों की राखी बांधने का उत्सव शुरू करना है। बच्चों ने नहा- धोकर नए- नए कपड़े पहन लिए हैं। बिटिया थाल सजाकर ले आई है। अपने नन्हे भाई की कलाई गुलज़ार करने हेतु मोबाइल वाली राखी लाई है इस बार, आज के मोबाइल युग की नशीली दुनिया को चरितार्थ करते हुए। उसमें से सुंदर लाइट भी जलती है, उसे उम्मीद है नन्हे भाई को बहुत पसंद आएगी। श्रीमान जी भी नहा कर साफ-धुले कपड़े पहन कर आ चुके हैं। ड्राइंग रूम के सेंटर टेबल पर रखी हुई सजी थाल में एक और राखी जुड़ जाती है। श्रीमती सुनंदा थाली पर नज़र टिका कर सोचती है कि सब ननदों की राखियां तो कई दिन पहले ही आ चुकी हैं कुरियर से, फिर यह राखी कैसी आ गई। श्रीमान जी डबडबाई आंखों को पोंछते हुए, “उस दिन बच्चों को लेकर जब मैं बाज़ार गया था… तब एक राखी मैंने मंजू दीदी के नाम पर भी ले ली थी…. हर साल की आदत जो बन गई है…. आज ज़िंदा होती तो………”

श्रीमानजी के हाथों पर भी बिटिया ने दुआओं की राखियां तिलक लगाकर बांध दी है। दोपहर के भोजन के बाद सुनंदा विश्राम करने आई है अपने कमरे में। पर आंखों में नींद कहां ? नींद तो दूर की बात, चैन भी तो नहीं। उफ्फ…. इस चैन को किसने लील लिया। कहने को तो चचेरी ननद थी, लेकिन उम्र में श्रीमान से थोड़ी -सी ही तो बड़ी थी। इसलिए, सहेली -सी, हमजोली -सी ननद से इतना लगाव था। वह इतनी हंसमुख थीं कि हर फोटो मुस्कुराती हुई नज़र आती है, बिल्कुल ‘सुरभि गर्ल' की तरह। जब भी मिलतीं थीं, पूरी फ़िज़ा मानो हंसने लगती। खुश हो जाता घर का कोना-कोना। पीछे के आंगन में जैसे सुनहरे अमलतास के अंगूरी गुच्छे बिखर गए हों या फिर उनकी हंसी के संग हरसिंगार के हज़ारों नन्हे पुष्प झर - झर कर मटमैली -सी ज़मीन की मांग में सितारे बिछा दिए हों।

पता नहीं कैसे कोरोना वायरस महादैत्य ने उन्हें अपने नुकीले बहुकोणीय पंजों की चपेट में ले लिया और बस निगलने को ही था। मनहूस सी इक शाम के गहराते ही उनकी जिंदगी के सूर्यास्त की भी ख़बर आ गई। खाना खाकर आंगन में टहलते सुनंदा के क़दम अचानक से थम गये। फिर ज़ोर लगाकर अंगद के पांवों को मन उठाकर बेड पर पटक आया। आंखों से अश्रुधारा दुनिया के सबसे ऊंचे झरने -सी फूट पड़ी। यक़ीन नहीं हो रहा था। अब तक किसी दैत्य द्वारा दूसरों को लीलता चुपचाप देख रहे थे, आज जब किसी अपने की बारी आई, तब महामारी की विभीषिका समझ में आ गई।

आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। तब उसने मोबाइल की फोटो गैलरी खोली । पुरानी स्मृतियां गैलरी से झांक रहीं थीं। इस शहर में वह पहली बार आ रही थीं। इस बहाने दस वर्षों के बाद उनसे मुलाक़ात होनी थी। आते ही सुनंदा की बिटिया को मोबाइल से फोटो लेने को कहा, फिर पूरी फैमिली के साथ फोटो खिंचवाई थीं। आज वे तस्वीरों में खिलखिला कर जीवित आंखों को रूला रही हैं। तस्वीरें खिंचवाने का शौक़ रखनेवालों को क्या सचमुच आभास हो जाता है अपनी क्षणभंगुर ज़िंदगी का ! गैलरी में आगे बढ़ने पर पर दो माह के नन्हे चीकू को गोद में लिए मुस्कुरा रही हैं । सुनंदा को बेटा होने के बाद वे फिर आईं थीं। इस फोटो में भी कितनी कम उम्र की दिख रही हैं वे। स्मरण करने की ज़रूरत कहां है कि वह अपने से बड़ी ननद को भी अक्सर छेड़ जाती, “संतूर साबुन इस्तेमाल करती हैं क्या , आपकी त्वचा से तो आपकी उम्र का पता ही नहीं चलता”

और मंजू दी सुनंदा की बातों पर ठठा कर हंस पड़तीं। तभी ख़याल आया कि कितना टूट गए होंगे अब जीजाजी ! सब को सब कुछ नहीं मिलता। उन्हें इश्क़ मिला… सच्चा इश्क़ मिला... लव मैरिज की मनचाही सौगात मिली…. तो ईश्वर ने ज़िन्दगी की लंबाई छोटी कर दी। इतनी छोटी कि बच्चों के सेटेल होने और शादी-ब्याह देखने के अरमान भी उसमें समा नहीं पाए।

स्मार्ट फोन की गैलरी में टहलते-टहलते ह्वाट्सएप पर आई तस्वीरें भी दिख रही हैं। दिल्ली में रहने वाले भैया ने राखी बंधवाने की तस्वीरें भेजी हैं। आज सुबह बात भी तो हुई थी उनसे। भैया की तस्वीरें देखना कितना सुखद लग रहा है, यह सुनंदा ही जानती हैं। अचानक ग़म की अंधेरी सुरंग से निकलकर जैसे सुबह की शिशु किरणों की हंसी में शिशु बनकर शामिल हो जाना। तस्वीरों को देखकर फिर से दुआओं में हाथ उठ जाते हैं और साथ ही ईश्वर का धन्यवाद करने को मस्तक स्वत: झुक जाता है। यह एक साल और पहले की तो बात है, जब विश्व की तथाकथित महाशक्तियों के कूटनीतिक खेल और तथाकथित वैज्ञानिक महाउपलब्धियों ने पूरे विश्व को तबाही के अनोखे रहस्यमयी मौत के कुआं में धकेल दिया था। इसे हम कोरोना की पहली लहर के रूप में जानते हैं। तब तक इसे मीडिया का हौव्वा समझा जाता था, लेकिन जब इसने बड़ी संख्या में लोगों को चपेट में लेना शुरू कर दिया, तब सबके पांव के नीचे की ज़मीन खिसकने लगी थी। एक दूसरे से सशंकित नाक और मुंह की पहरेदारी करते मास्क पहनने की आदत डाली जा रही थी। हमारी पीढ़ी ने पहली बार मौत के तांडव को महसूस किया, रुपए पैसे सब धरे के धरे रह गए। हर रोज़ परिचितों-अपरिचितों के इस दैत्य के चंगुल में फंसने की ख़बरें सुनने को हमारे कान जैसे आदी हो चले थे। पर सुनंदा के घर के पड़ोस के गेट के पास जब दीवार पर कल शाम ही चिपकाए गए नीले रंग के पोस्टर पर लोगों की नज़र गई, तो मोहल्ले में फुसफुसाहटें बड़ी तेज हो गईं, मोबाइल फोन पर ही। संयोग या दुर्योग से वह पड़ोसी अल्लाह को मानने वाला था , इसलिए पड़ोसियों की नज़रें उसके घर की तरफ़ किसी आतंकवादी के घर की तरह घूरने लगी थीं।

हां, तो उस पहली लहर की सुनामी में मिडिल क्लास डूबने लगा था। हालांकि वर्क फ्रॉम होम ने बहुतों को सोशल डिस्टेंसिंग की नई पहल में शामिल कर लिया था, लेकिन डॉक्टर्स, हेल्थ वर्कर्स, पुलिस-प्रशासनिक लोग और पत्रकार कहां तक बचते। ये न्यूज़ चैनल वाले अपने पत्रकारों को भी कहां-कहां भेज देते हैं। अस्पताल और रोगियों की सुध-बुध लेना तो समझ में आता है, पर श्मशान और कब्रगाह को भी नहीं बख्शते।

बहुत डर लगने लगा था। सुनंदा के भैया के न्यूज़ चैनल में साठ फ़ीसदी स्टाफ कोरोना के शिकार बन चुके थे और उससे जूझ रहे थे। ऐसे में अपने परिजनों में सबसे ज्यादा खौफ़ उनको लेकर ही था। शाम होते ही आख़िर फोन भी आ गया,

“ छुटकी, मेरे ठीक बगल वाले सहकर्मी को कोरोना पोजिटिव डिटेक्ट हुआ है..मेरी भी तबीयत ठीक नहीं लग रही है.. सिर में दर्द और हल्का बुखार सा लग रहा है।”

“अरे, आपको कुछ नहीं होगा.. बगल वाले सहकर्मी को निकला है… इसलिए मेंटली ऐसा लगता होगा कि आपको भी कोरोना…”

“ सीरियसली….कल जांच करने आएंगे ऑफिस में ही..कुछ स्टाफ का”

“ कुछ नहीं होगा भैया… सब ठीक होगा…हम सब की शुभकामनाएं हैं ना.!”

दो दिनों बाद:

“कहा था न……मैं भी पॉजिटिव हूं…..”

“यक़ीन नहीं आता”

“ मुझे सांस की भी प्रॉब्लम होने लगी है.. दम फूलने लगा है… दवाइयां ले ली हैं”

घर में सबको बताते हुए उसकी आंखें भर आईं हैं। फूटकर नदी दोनों किनारे तोड़ देती है।

अगली सुबह:

“मुझे सांस लेने में बहुत प्रॉब्लम होने लगी है..वदन में भी बहुत दर्द है छुटकी.. मैं सोच रहा हूं कि किसी हॉस्पिटल में एडमिट हो जाऊं… मैं पता लगा रहा हूं कि बेड कहां खाली है… तुम लोग भी पता लगाना… जहां मिले ,वहां एडमिट हो जाऊंगा”

दोपहर ह्वाट्सएप चैट :

“एडमिट हो गया आख़िर इस नम्बर वन हॉस्पिटल में.. किसी तरह एक बेड मिल पाया… घर से दस किलोमीटर की दूरी है.. ऑटो से दस हज़ार रुपए में तय करने पड़े… खैर…आपदा में अवसर ग़रीब आटोवाले के लिए भी तो है… हा हा हा…..”

“ओह.. टेक केयर”

रात्रि आठ बजे:

“आईसीयू में जा रहा हूं…पता नहीं कब बात होगी… या होगी भी कि नहीं”

“ऐसा न कहें, आप जल्दी ठीक होंगे…कुछ नहीं होगा… हमलोग होने नहीं देंगे…. हमारा छोटा सा परिवार इस तरह नहीं बिखरेगा… अभी अपने बीवी-बाल-बच्चों के लिए आपको ज़िन्दा रहना है… रहना ही होगा भैया… इसी महीने भोलू का बर्थडे है न… आप लौटकर आएंगे… बेटे की खुशियां छीन नहीं सकते आप… समझ रहे हैं न………..”

आंखें दोनों तरफ़ भर गई थीं। इतनी दूरी के बावजूद दोनों तरफ़ एक ही दहशत हावी था। पूरी रात बहुत भारी थी। लेकिन उसने कसकर थाम रखा था उम्मीद का नाम। उम्मीद के घोड़े पर बैठे थे ज़िन्दगी के प्राण। माना कि बेहद लंबी रात थी, पर फुनगियों पर लगेंगे आसमान से झर कर नीले फूल फिर से, कुछ ऐसी ही दुआओं में बिता दी उसने सारी रात !

चौबीस घंटे बाद:

“आईसीयू से बाहर आ गया हूं।”

“वाउ, कांग्रेट्स कोरोना फाइटर… वी आर एक्सट्रीमली हैप्पी दैट आवर फैमिली इज़ सेफ… एंड वी बीलिव…. आवर फैमिली विल बी आलवेज सेफ़…गॉड ब्लेस यू !”

“थैंक्स छुटकी……….पर घर लौटने के बाद चौदह दिन के लिए होम क्वारंटीन होना भी बड़ा एक्ज़ाम होता है।”

“सब ठीक होगा”

दो दिन बाद:

“घर आ गया….. पर अभी बोलने पर दम काफ़ी फूल रहा है… हॉस्पिटल में ..सच… ग़ज़ब माहौल था…मौत का ऐसा वीभत्स तांडव... जीवन- मृत्यु के बीच क्षण भर का फासला नहीं देखा कभी इससे पहले... मेरे साथ वाला पेशेंट ही नहीं बच सका"

“ओके।टेक केयर। सारी दवाएं समय पर लें…आराम करें.. बी पाज़िटिव…गेट वेल सून भैया!”

बहुत दिनों तक व्हाट्सएप चैटिंग ही हाल-चाल जानने का सहारा रहा , शायद पहली बार एक मौन संसार में तक़नीक के बोलने का वास्तविक अहसास हुआ। तब भी आवाज़ सुनने की व्याकुलता चरम पर थी । रिंग करने की हिम्मत आख़िर कर ही दी । फोन उठा तो सही, पर आवाज़ बहुत ही दबी घिघियाई हुई थी।

“अभी बहुत वीकनेस है…लंबा समय लगेगा सब ठीक होने में….”

“ओके भाई, फोन रखिए… आराम करें.. चैटिंग ही अच्छा है अभी आपके लिए”

व्यथित मन को भी आराम चाहिए था। लेकिन आराम न था । वह जीत के जश्न में शामिल था, लेकिन रणभूमि से विजित होकर लौटे योद्धा के तन-मन पर ज़ख्मों के कई निशान अभी हरे थे । उसके मन पर उन साथी योद्धाओं के साथ न निकल आने की गहरी टीस थी। कुछ योद्धा तो अभिमन्यु के आख़िरी चक्रव्यूह में घिर गए थे, तो कुछ अभागे चक्रव्यूह से निकलकर भी काल के छल के शिकार हुए थे।

हार-जीत के इस खेल की कमेंट्री हर दिन सब सुनते रहे मोबाइल पर , टीवी पर । तय करना मुश्किल है कि जीतने वालों का पलड़ा भारी था या हारने वालों का । परंतु हर विकेट के गिरते ही उम्मीद के दीए बुझते रहे , पर इस बीच तालियां-थालियां पीटकर बर्बादी का जश्न भी मनते पहली बार देखा गया। जो जीते वे अपने थे, जो हारे वे भी अपने थे। भींगी पलकों पर विजेताओं और पराजितों दोनों की तस्वीरें सजी हैं। बेबसी के भयावह दौर में बनते-बिगड़ते कई भरोसे मानवता की नई कहानी लिख रहे हैं। इस बीच मायके से फोन आता है , मुहल्ले की अफ़सर बिटिया नहीं रही। कुछ दिनों पहले भी तो ख़बर आई थी , पड़ोसी के लड़के की। तीन बहनों का एकलौता भाई, जहां नौकरी करता था , वहीं बीमार पड़ कर काल-कलवित हो चला। कई ब्रांडेड मास्क के बीच भी रक्षा-सूत्र की डोरियां टूटकर बिखर रही हैं । लोग कहते हैं कि आसमान पहले से साफ नज़र आने लगा है, लेकिन लोगों को दृष्टिदोष हो गया है, जिसका उन्हें ही पता नहीं है । आसमान में उड़ते हुए कफ़न उन्हें आज़ाद परिंदे नज़र आ रहे हैं और वे खुश हो नई आज़ादी का यशोगान करते हुए बड़ी बेफ़िक्री से भेड़ों की भीड़ में शामिल होते जा रहे हैं।

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--सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

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