आमदनी जीरो

कथेतर
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गोधुली से पूर्व ही आसमां में धूल का गुब्बार था। लेकिन सिद्धांत था कि उसका कोई अता-पता ही नहीं था। इससे ज्यादा बदनसीबी एक मां की क्या होनी थी कि जब आज उसके लाडले ने राज्यभर में उसका नाम रोशन किया था, बारहवीं कक्षा में स्टेट टॉप किया था; वह भगवान का दिया सब कुछ होने के बावजूद, उसे मीठा मुँह कराने के नाम पर एक मिश्री का दाना तक ना खिला सकी|

जाने माँ-बाप से पहले हवेली वालों को कैसे पता लग गया कि सिद्धांत पूरे राज्य में प्रथम आया है? यदि वो अपनी इकलौती लाड़ली का रिश्ता सिद्धांत के लिए ना लाए होते तो ना बाप-बेटे में झगड़ा होता और ना ही सिद्धांत इतने खराब मौसम में घर के बाहर होता। जाने किसकी नज़र लगी थी जो 'जिगरी दोस्त से बाप-बेटे' में आज ये हफ्ते में दूसरी लड़ाई थी| सिद्धांत के पिताजी को भी ऐसी अभी क्या जल्दी थी कि बेटे का मन टटोले बगैर उसका रिश्ता तय कर दिया। फिर अभी उसकी मात्र कोई साढ़े 17-18 बरस ही उम्र होगी। सो, सिद्धांत के पिताजी को पहले बेटे के मन की थाह लेनी चाहिए थी।

ख़ैर, थोड़ा ख्याल सिद्धांत को भी रखना चाहिए था। कोई भी पिता अपने बच्चे का बुरा नहीं चाहेगा। वैसे भी कन्या-भ्रूण हत्याओं के कारण बेटियों की इतनी कमी है कि मानो इन्हीं के कारण तलाक़ की घटनाएं बढ़ी हों। आह! भले-बुरे सारे इल्जाम बेटियों के सिर। बेटियां नहीं चाहिऐं लेकिन बीवियां और बेटों के लिए बहुएं चाहिऐं!

मगर छोड़िए, सिद्धांत के पिताजी तो बस अपने लाडले का घर बसते देखना चाहते थे। फिर लड़की पढ़ी-लिखी, गुणी, संस्कारी और सबसे बढ़कर खाते-पीते घर की इकलौती लाडली। सो, बिन मांगे ही अच्छा खासा दहेज और समधी समधन के गुजर जाने के बाद हवेली, ढाई एकड़ जमीन साथ में। फिर लड़की के मां-बाप की खातिरदारी में थोड़ी बहुत ज़मीन बेचनी भी पड़ जाए तो कम से कम समधी-समधन की आत्मा दुआएँ तो देंगी।

लेकिन उनके सिद्धांतवादी बेटे को कहां समझ आई ये व्यवहारिक बातें। बातों की गर्मागर्मी में पिताजी ने निकाल दिया अपने इकलौते अंश को और कह दिया कि आज से सिद्धांत उनकी जिम्मेदारी नहीं; वह (सिद्धांत) अपना ख़ुद का ज़मीन का टुकड़ा खरीदे, घर बनाए और अपना खर्च ख़ुद चलाए। बस फिर क्या था सिद्धांत उसी क्षण अपने स्वाभिमान और सिद्धांतों की चादर लपेटकर निकल गया।

किसी का क्या बिगड़ना था बस मां थी जो बाप-बेटे के झगड़े में कोने में बैठी-बैठी गंगा-यमुना बहाए जा रही थी और फिक्र किए जा रही थी कि ना जाने उसका लाडला इस तूफ़ान में कहां होगा? ख़ैर, सिद्धांत के पिताजी ने जब उसे आकर यह सूचना दी कि सिद्धांत सकुशल है, उसके नाते से चाचाजी उदयसिंह उसे अपने साथ घर ले गए हैं; तब उस मां को कहीं थोड़ा ढांढस बंधा।

मगर आने वाला समय सिद्धांत के लिए इतना सरल नहीं था। भले उदयसिंह चाचाजी उसे अपना मानते हों। परंतु एहसानों की रोटी का एक निवाला भी कहां सहज से गले से उतर पाता। सो, पहले उसे अपनी रोटियों का इंतज़ाम करना था। चाचीजी के सुझाव पर उसने अगली ही सुबह राशनकार्ड के लिए आवेदन करना तय किया। आवेदन प्रक्रिया के दौरान मालूम पड़ा चूंकि वह बमुश्किल 18 वर्ष का एवं ऊपर से अविवाहित है। ऐसे में उसका मां-पिताजी संग साझा ही राशनकार्ड बनेगा।

फिर भी यदि अधिकारी-कर्मचारियों जो दौड़भाग करते हैं उससे इतर मात्र कागज़-पत्री का ही कुछ खर्चा-पानी का भुगतान सिद्धांत कर देता है तो पहले पुराने साझे राशनकार्ड से उसका नाम डिलीट किया जाएगा। फिर नए पृथक राशनकार्ड के लिए वह आवेदन कर सकता है।

एक ने कहा:- बेटे मां-बाप से अलग हो ही सकते हैं। अगर मामला बेरोजगार और अविवाहित बेटी द्वारा पृथक राशनकार्ड हेतु आवेदन का होता तो बात इतनी सरल ना होती। इस प्रकार अधिकारियों की मिठास भरी बातों की गुगली ने सिद्धांत के बालमन को मानो शीशे में उतार लिया था।

ऐसे में लेडीज फर्स्ट के जमाने में अपने लड़के होने की खुशकिस्मती, वह स्पष्ट महसूस कर पा रहा था। किसी तरह वो रुपए जुटाकर राशनकार्ड से अपना नाम डिलीट कराने में सफल रहा।मगर असली समस्या से उसका सामना तब हुआ जब नए राशनकार्ड आवेदन पत्र में उससे उसकी वार्षिक आमदनी पूछी गई।

चूंकि वह एक बेरोजगार था। ऐसे में उसके द्वारा अपनी शून्य आमदनी होने का ब्यौंरा पूर्णतया सत्य था। किंतु विभाग ने उसे राशनकार्ड जारी करने से इंकार कर दिया। उनके अनुसार एक जीवित व्यक्ति का शून्य आमदनी का तर्क सत्य नहीं हो सकता।

हैरानी थी कि जब सरकार स्वयं उधारी (हिनार्थ प्रबंधन) पर चलती हैं तब उसपर झूंठा ब्यौरा देने का दबाव क्यों! अब उसके नए-नए सिद्धांतवादी बालमन को कौन समझाए कि मात्र सरकार की आय ऋणात्मक या धनात्मक हो सकती है आमजन की नहीं। फिर आमदनी के नाम पर उसके पास तो मात्र एहसानों की रोटी थी।

एक अधिकारी ने सुझाव दिया, आमदनी का क्या है कुछ भी दस-बारह हजार भर दो। राशनकार्ड बन जाएगा, टैक्स-वैक्स का कोई झंझट नहीं। मगर हकीकत की गर्मी ने उसे अंदर तक तोड़ दिया। इस तीव्र तपिश ने सिद्धांतवादी बालमन के कच्चे घड़े में दरार लाने में कोई कमी नहीं छोड़ी।

मगर भीतरी चोट खाकर भी उसकी आत्मा होश में थी। उसे वो झूँठ बोलकर कमाई सस्ती सरकारी रोटियों स्वीकार नहीं थी। इससे बेहतर उसने अपने स्वाभिमान या कहिए अभिमान के टुकड़ों की आग पर पकी रोटियां खानी उचित समझी और इसी के साथ सिद्धांत अपने पिताजी द्वारा ली जा रही संस्कारों और सिद्धांतों की परीक्षा में भी अव्वल आ गया|

दरअसल हफ्तेभर पहले जब बाप-बेटे में प्रथम बार असहमति उपजी थी तभी उन्होंने तय कर लिया था कि सिद्धांत यह समझे की अपने हाथ, हुनर और मेहनत से कमाई रोटी तथा एहसानों की रोटी के स्वाद में क्या फर्क होता है| वो चाहते थे ऊपरवाले का उन्हें बुलावा आने से पहले उनका टॉपर इतना तो कमाता हो कि किसी के एहसानों के टुकड़ों पर ना पले|

इसीलिए उन्होंने स्टेट टॉप करने के इनाम में अपने लाडले को जिंदगी का यह सबक देना तय किया था| अब जब से उदयसिंह का फोन आया था वो दरवाजे पर टकटकी लगाए बैठे थे| बेटे को देखते ही उस बूढ़े बाप ने अपनी बाहें फैला दी और कसकर लाडले को अपनी बाँहों में भींच लिया|

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