JUNE 10th - JULY 10th
आशा को इस वक़्त कुछ भी सुनाई नही दे रहा है सिवाय अपनी धड़कनों के। स्पंदन, किसी बुलेट ट्रेन की रफ्तार के जैसे महसूस हो रहा है। हथेलियां थोड़ी नम हो रही है और पैरों में कंपन। यह कोई बीमारी नही थी लेकिन आमतौर पर हर इंसान को अधीरता के क्षणों में यह महसूस होता है जिसे नर्वसनेस का नाम दिया गया है।
आशा ने हड़बड़ी में अपने पर्स में से रुमाल निकाला और चेहरे पर फेरने लगी । नजर बांयी तरफ पाँच कुर्सी छोड़कर बैठे युवक पर पड़ी वह आशा को देख हँस रहा था। उस युवक और आशा की उम्र में उतना ही अंतर था जितना आशा और उसके देवर करन में। उस युवक की नजरों में और करन के शब्दों में आशा को एक ही भाव नजर आ रहे थे और वह थे उपहास के भाव।
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आशा को याद आया कि करन किस तरह आशा का मजाक बना रहा था, “ भाभी, आप और ओपन माइक!” “भूल जाओ भाभी“।
“ओपन माइक में ज्यादातर लोग कम उम्र के युवक युवतीयां आते हैं खासकर के कॉलेज के लोग। उनका ड्रेसिंग सेंस, बात करने का तरीका ... उनकी तो पर्सनैलिटी से ही लोग पहले ही आकर्षित हो जाते है। और आप! आप मिर्च मसालों से सधे हुए हाथों की खुशबू लेकर, साड़ी में लिपटी हुई वहां जाकर ओपन माइक में परफॉर्म करोगी ! रहने दो भाभी । आप तो बस यूट्यूब पर खाना बनाने की वीडियो देखो। हहहह..”।
आशा अपनी बात रखने का प्रयास कर ही रही थी कि घर के बाकी लोगों ने अपने शब्दों से आशा के मत प्रकट करने के अधिकार के समक्ष एक अद्रश्य रेखा खींच डाली।
“अब क्या कहना चाहती हो बहु ! क्या यही बाकी रह गया है! घर की दहलीज लाँघकर, बाहर किसी होटल में पराये मर्दों के सामने खड़ी होकर मुँह खोलोगी और वो लोग तालियां बजायेंगे। जानती हो न! इस तरह की वाहवाही कौन बटोरता है!”
आशा जानती थी कि उसके सामने छह मीटर की साड़ी लपेटे, उसी की जात व नस्ल की औरत खड़ी है, जिसे यूँ तो आशा का सहयोग करना चाहिए लेकिन वह करेगी नही क्यूँकि वह तो अपने बदन के चारो ओर एक घिसी पिटी सोच और दकियानूसी ख्यालो को लपेटे है और वह सालों से चारदीवारी के भीतर ही औरत का समस्त संसार मानती आई है। पीढ़ियों से चली आ रही इस दमघोंटू विरासत के बोझ को वह अपनी बहु पर भी डाल देना चाहती है। आशा ने अपनी सास से कभी न उलझने में ही अपनी समझदारी दिखा रखी है।
आशा ने एक नजर ससुरजी पर डाली लेकिन अपने पत्नीप्रधान घर में वे सालों से एक सोफे पर बैठे साफ चश्मे पर भी बेवजह कपड़ा फेरते नजर आते है, उनसे अपनी पत्नी के विरूद्ध ख़िलाफ़त आंदोलन चलाने की अपेक्षा रखना बेवकूफ़ी ही थी।
आशा समझ चुकी थी कि यह लड़ाई उसके अकेले की है। यूँ तो आशा के पति ने उसकी इच्छा का मान रखते हुए हाँ कह दिया था लेकिन आख़री फैसला सास – ससुर का होगा यह भी शर्त थी। आशा उस वक़्त अपने ही घर मे स्वयं को एक ऐसे युद्धक्षेत्र में खड़ा पा रही थी जहाँ उसे शत्रु के रूप में उस सोच से लड़ना था जिसे बदलने की कोशिश करना शायद आसमान नापने जितना ही कठिन होगा। वह यह भी जानती थी कि उसके पास सिर्फ यही मौका है जब आज यह बात छिड़ी है । यदि वह इस वक़्त चुप रहकर, मुड़कर चली गई तो दुबारा इस घर मे इस बात को कभी तवज्जो नहीं मिलेगी। और फिर शायद आशा को पूरी जिंदगी पछतावा रहेगा कि उसने अपने स्वयं के लिए एक बार भी प्रयास नही किया। सारी हिम्मत बटोरकर आशा ने मुँह खोला...
“ अपनी तरफ से मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहती हूँ कि ये मेरी जिंदगी है जिसे मैंने हर पल , हर दिन सिर्फ आप लोगो के लिए खर्च किया है। नही...मुझे इस बात को जताना नही है और ना ही बदले में कोई बहुत बड़ी दौलत मांग रही हूँ मैं आप लोगो से। लेकिन ज़रा सोचिए..साल के बारह महीने,महीने के तीस दिन और , दिन के चौबीस घण्टे मेरी यही कोशिश रहती है कि मैं अपने घर और घरवालों के लिए उनकी जरूरतों के लिए उनकी ख्वाहिशो के लिए हमेशा मौजूद रहूँ। तो क्या , एक बार भी.. कुछ पल के लिए मैं अपनी ही जिंदगी में अपने लिए सोच तक भी नही सकती। हम उस जमाने मे रहते है जहाँ देश की औरतों ने चाँद तक पर अपनी धाक जमा दी है। आज की औरत मर्द के साथ कदम से कदम मिलाकर चलती है अपने सारे फैसले खुद लेती है । मैंने तो फिर भी आप लोगो के सामने अपनी ख्वाहिश को रखा है । एक सपना आप लोगो के साथ साझा किया है। बदले में बस यही उम्मीद करती हूँ कि , आप लोग मुझे समझेंगे। मुझे मेरे सपनों में रंग भरने का एक मौका ही देंगे। मुझे मेरी ही जिंदगी से बस.. 5 मिनट चाहिए , क्या ये 5 मिनट मैं अपने लिए खर्च कर सकती हूँ!”
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चीं................
माइक में गूँजती आवाज से आशा बीते दिन की स्मृति को वहीं अपने घर के ड्रॉइंग रूम में छोड़ , ओपन माइक के लिए होटल के इस हॉल में चेयर पर अपनी बंद मुट्ठी में मौजूद इस पल पर वापिस लौट आई।
होस्ट ने माइक में हुई गड़बड़ी के लिए हॉल में बैठे सभी लोगो से “सॉरी” कहते हुए कार्यक्रम को आगे बढाने का कार्यभार लिया। होस्ट के हाथ मे कुछ पन्नो की लिस्ट थी जिसमे सभी प्रतिभागियों के नाम, उम्र, ओपन माइक का विषय लिखित थे। होस्ट ने कुछ कहने से पहले एक बार फिर माइक जाँचने के लिए उस पर फूँक मारकर फिर मुस्कुराकर कहा...
“दोस्तो, आप सभी के प्रयासों से कार्यक्रम बहुत बढ़िया चल रहा है। यह कुछ पल ही है जिन्हें हम भागती हुई जिंदगी से चुरा सकते है और अपने मन की सारी बातें कविता के रूप में यहाँ आपस मे साझा कर सकते है । इस कार्यक्रम का उद्देश्य ही है कि हमारे दिल और दिमाग के भीतर चल रहे द्वंद को कुछ पल का विराम दे और खुद को पहचानने - जानने की कोशिश करें कि कौन है हम ! क्या चाहते है हम! तो दोस्तो , इसी क्रम को आगे बढाते हुए हमारी अगली प्रतिभागी हमारे सामने आ रही है । ये एक गृहणी है। लेखन का शौक रखती है, कुछ ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर इनकी कईं कहानियां और कविताएं विजित हुई है। आज ये जो कविता हमारे बीच लेकर आई है उसका विषय है – उमंग। और ये आपको बिल्कुल निराश नही करेंगी क्यूँकि इनका नाम है – मिसेज़ आशा।”
आशा घबराती सी, सकुचाती सी माइक तक पहुँची। उसकी चेयर से माइक तक की ये पन्द्रह कदमों की दूरी ...ये अति लघु सफर उसकी जिंदगी का अभी तक का सबसे चुनौतीपूर्ण सफर रहा हो जैसे।
कितनी ही भावनाएं, उसके मन के भीतर उथल पुथल मचा रही थी। यहाँ तक आ जाना ही काफी नही था असल जंग तो अब उसकी अपने आप से थी। अब उसे दुनियाभर पर , और अपनी दुनिया अपने परिवार पर खुद को साबित करना था। जहाँ वह खड़ी थी वहाँ से जीत पाँच मिनट की दूरी पर थी। इन पाँच मिनटों के बाद उसे कोई मैडल नही मिलने वाला था लेकिन एक शाबाशी अपेक्षित थी। अपनो से..सपनो तक जा रही सीढ़ी जो बेशक उसे अपनो के सहयोग से मिली है । यह जानती है कि वह यहाँ तक कैसे पहुँची है!
कैसे पहुँची है!
यह सवाल दिमाग के द्वार पर जैसे ही खटखटाया कि यकायक आशा की नजर सामने दीवार पर टँगी घड़ी पर पड़ी। दोपहर के तीन बजे रहे थे। इस वक़्त ने आशा का ध्यान एक चुम्बक की भाँति खींच लिया। टिक- टिक – टिक...
न चाहकर भी उसकी आँखों के सामने एक फ़िल्म सी चलने लगी। आशा, आशा के सामने ऑडियंस , ऑडियंस के पीछे दीवार पर घड़ी। लेकिन अचानक उसे अपने और उस दीवार के मध्य कुछ और नही दिखा।
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कल भी रात के तीन बजे थे। घर मे सभी सो रहे होंगे लेकिन आशा की आँखों से नींद गायब थी। घुम.. घुम, पँखे की आवाज़ से ज्यादा उसके भीतर का शोर उसे जगाये हुए था। कुछ घण्टो पहले जिस बेबाकी से उसने पहली बार अपने मन की बात अपने सास – ससुर से कही, उसका क्या परिणाम होगा! पता नही अगली सुबह घर पर सभी लोग उसके साथ कैसा व्यवहार करेंगे! देवर को तो एक और मौका मिल जाएगा उसका मज़ाक उड़ाने का।
आशा बड़ी बेचैन हो रही थी। उसने अपने गले मे बाँहें डालकर सो रहे अपने डेढ़ वर्षीय बेटे को बड़े स्नेह के साथ चूमते हुए पति शेखर की तरफ मुँह करते हुए सुला दिया और खुद बाहर जाकर आँगन में बैठ गई।
“क्या कर दिया मैंने! शायद घर मे सबका दिल दुखा दिया। ये घर मेरी जिम्मेदारी है, घर के सभी लोगो की चाहते, ख्वाहिशें, परेशानी सबका हल मैं ही हूँ। मैं कैसे, इन सब बातों की बजाय सिर्फ अपने बारे में सोच सकती हूँ! अभी नन्हे बेटे को मेरी हर पल जरूरत है। सास को तो घर के काम काज छोड़े सालों बीत गए । एक भी मिनट की मेरी गैर मौजूदगी , और हर छोटी बड़ी चीज के लिए सब परेशान हो जाते है। मैं कैसे...!”
अपने ही सवालों में उलझी आशा ने आँख मूँदकर माथे पर हाथ रखा ही था कि उसे एक स्पर्श अपने सिर को सहलाते हुए महसूस हुआ। देखा तो, सभी घरवाले उसके सामने खड़े थे।
सास ने कहा, “ देखो बहु, बहुत बड़ी बात करना तो मुझे आता नही लेकिन इतना समझ गई हूँ कि, जब किसी चीज को पाने की ख्वाहिश इंसान को सोने नही देती, तो वही उसका एक सच्चा स्वप्न होता है। जाओ, रात के इस स्वप्न को अपनी तपस्या से सुबह के चमकते सूरज में बदल डालो क्यूँकि चमकते सूरज से बड़ी हकीकत और कामयाबी दूसरी कोई नही।” सास के कथन सुनकर आशा ने अश्रुपूरित आँखों से एक नजर ससुरजी पर डाली। वे पहली बार बिना चश्मे के खड़े थे और दोनों हाथों से आशीष का इशारा कर रहे थे।
“बेटे की चिंता मत करो, मैं कल ऑफिस से छुट्टी ले लूँगा।” अपने पति के इन सहयोगपूर्ण शब्दो से आशा की आँखे छलक गई।
देवर करन तो होटल तक उसे छोड़ने आया और ‘ऑल द बेस्ट’ कहकर गया।
कामयाबी या सपनों को हकीकत बनाने के लिए उठाए गए पहले कदम में भी अपनो का साथ कितना महत्वपूर्ण है यह आशा के चेहरे पर सच्ची खुशी के रूप में उमड़ रहा था
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“आशा जी !!” आशा के होंठो पर फैली मुस्कान थोड़ी सी सिमट गई। उसके दिमाग ने सन्देश दिया कि कोई उसे पुकार रहा है । आशा ने आवाज़ वाली दिशा , यानी अपने दाएँ तरफ देखा तो कार्यक्रम का होस्ट उसे फुसफुसाते हुए दूर से कह रहा था..
“आशा जी, व्हाट आर यू डूइंग!! बस पाँच मिनट ही मिले है आपको। स्पीक समथिंग! तीस सेकेंड तो बीत भी गए।”
अब जो आशा ने कमान अपने हाथ मे ली, तो बस फतह करके ही लौटना था।
उमंग...
उमंग है , तो विशाल जीवन रूपी समंदर में हर छोटा पल मानो तो इक तरंग है
बचपन एक खुशी है
जवानी एक उत्साह है
हर किसी की आँखों मे इन्हें पाने का जज़्बा है
बस... यही उमंग है।
प्रेम एक ख़्वाहिश है
विवाह पवित्र बन्धन है
नन्ही कलियों से सुशोभित
हर घर का आँगन है
बस...यही उमंग है।
सभी के मन मे होती है कोई न कोई आकांक्षा
और सही भी है कि पौधे में हो पेड़ कहलाने की महत्वाकांक्षा
पतझड़, सावन, ग्रीष्म, शरद
हर मौसम की मार सह जाये जो
फिर निखरता प्रकृति का रंग है
बस... यही असल उमंग है।
बस .. यही उमंग है।
“थैंक यू सो मच। आप सभी को इतना जरूर बताना चाहूँगी कि उमंग , मेरे डेढ़ साल के बेटे का भी नाम है। दोस्तो, ये कविता समर्पित है हर इंसान को , उसके जीवन को, जीवन मे आने वाले पड़ाव को, लालसा को, तरक्की को..., जीवन के प्रारम्भ से अंत तक जीवन को भरपूर जी लेने का उत्साह, अपनो के साथ की खुशी, हम सभी के मन मे किसी न किसी रूप में कोई न कोई उमंग है। बस, ये उमंग बनी रहे।
थैंक यू।”
तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा हॉल गूँज उठा। आशा के जीवन के ये पाँच मिनट उसके अपने थे। ये तारीफ उसकी जिंदगी की असल कमाई थी।
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vinitamohta01883
kumaripragati1988
बहुत खूबसूरत रचना
sushma_s_tiwari
खूबसूरत रचना, अलग अंदाज
Description in detail *
Thank you for taking the time to report this. Our team will review this and contact you if we need more information.
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