Waiter (एक कहानी)

आत्मकथा
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उन दिनों मैं अपने सपनों को उड़ान देने की चाह से 30 हजार रुपए का कर्ज लेकर घर से निकला। मुझे मालूम था रास्ता मुश्किल है लेकिन मेरे पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था। क्योंकि अपने अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़ना मेरे जैसे गरीब विद्यार्थियों की मजबूरी बन जाती है। और फिर गरीब होने के साथ-साथ मैं भी एक पढ़ा-लिखा बेरोजगारी ही था। ऐसा बिल्कुल नहीं था कि मेरे पास हुनर नहीं था, लेकिन मेरे उस हुनर को एक मंच मिलना जरूरी था ताकि मैं अपने आप को साबित कर सकू। अपने छोटे से गांव से निकलकर 4 से 5 दिन तक दिल्ली में धक्के खाने के बाद मुझे एक एंप्लॉयमेंट एजेंसी ने 400 रुपए रोज़ देने का काम बताया। लेकिन उससे पहले दिल्ली ने मुझे बहुत बुरी तरह से लूट लिया था। क्योंकि यहां हर जगह नौकरी देने के नाम पर मुझसे एक मोटी रकम वसूली जा रही थी। मैं इस शहर में कुछ उम्मीदें लेकर आया था और मैं गांव का एक शरीफ सा लड़का था जिसे इन बड़े बड़े शहरों के बारे में बहुत कुछ नहीं पता था। लेकिन मुझे यहां हर तरफ सिर्फ धोखेबाज ही मिले। नौकरी देने के नाम पर अनाप-शनाप पैसे हड़पना इनका दंधा था। लेकिन यहां रहना मेरी एक मजबूरी थी। क्योंकि अगर मैं यहां से असफल होकर लौट जाता,

तो क्या जवाब देता अपने परिवार को??

क्या जवाब देता अपने आप को?? और

क्या जवाब देता उस व्यक्ति को जिसने मुझे कर्ज दिया??

इसलिए मुझे यहां रुकना ही था।....

और फिर आखिरकार उस दिन मैं दिल्ली के एक बहुत बड़े नामी 5 स्टार होटल में वेटर बन कर गया। होटल में एंट्री से पहले ही उन लोगों ने मुझसे अपनी दाढ़ी मूछें मुड़वाने को कहा!! जबकि मेरी दाढ़ी मूछें पूरी तरह व्यवस्थित थी। हमारे यहां गांव में आज भी अपने मूछों को अपने अस्तित्व से जोड़कर देखा जाता है। इसलिए मेरे निवेदन करने पर वह लोग मान गए और मैं अपनी दाढ़ी को तो नहीं बचा पाया लेकिन मूछों को बचाने में सफल रहा।

और उसके बाद शुरू हुई मेरी जिंदगी की सबसे संघर्षमह रात..

होटल में यूनिफॉर्म के नाम पर मुझे एक काला सा कोट पकड़ा दिया जिसके कुछ बटन टूटे हुए थे और उसे पहनने के बाद मुझे मजदूरों वाली फीलिंग आ रही थी।.. होटल में डिनर करने के बाद मैं कुछ और लड़कों के साथ दूसरी मंजिल पर पहुंचा जहां पहुंचते ही होटल के सुपरवाइजर और सीनियर्स ने हम लोगों का गालियों के साथ स्वागत किया।

मेरे ख्याल से वह सुपरवाइजर होगा जो बेवजह ही हम जैसे लोगों को गालियां सुना रहा था और उन पर चिल्ला रहा था वहां और जो लोग थे वह मेरे जैसे नहीं थे उनके लिए यह एक आम बात थी। क्योंकि उनका काम ही दिहाड़ी करना था।

लेकिन मेरे लिए मुश्किल था क्योंकि मैं उन सब में एकमात्र स्वाभिमानी व्यक्ति था जो उस दिन मजबूरी में वहां आया था। लेकिन मैंने अपनी मजबूरियों को देखते हुए उन सभी बातों को सहा।

वैसे मेरे जैसे स्वाभिमानी और भावुक व्यक्ति के लिए वह व्यवहार जानवरों के समांतर था लेकिन उसको सहना मेरी मजबूरी बनी हुई थी। मैं जिस एंप्लॉयमेंट एजेंसी के द्वारा गया था वहां मुझे सिर्फ इतना बताया गया था की आपका काम सिर्फ वेटर का है। लेकिन बाद में उन लोगों ने मुझे क्लीनिंग स्टाफ के साथ लगा दिया।

मेरी आत्मा तक ने उस दिन मुझे गालियां दी क्योंकि मैं एक ऐसे परिवार से था जहां मां-बाप का इकलौता लड़का होने के साथ-साथ मुझे कोई टोकने वाला तक नहीं था। लेट नाईट सोना, मॉर्निंग में लेट उठना, कभी भी घरवालों ने कोई काम करने को नहीं था, आज तक कभी मां बाप ने नहीं डाटा, घर की स्थिति आर्थिक रूप से ठीक नहीं थी लेकिन मेरे मां बाप ने मुझे राजकुमारों की तरह पाला था।

और उस दिन मुझे वहां क्लीनिंग का वर्क करना पड़ा लेकिन मुझे उसके बाद भी कोई आपत्ति नहीं हुई क्योंकि वह मेरी मजबूरी थी और मैं अपनी मजबूरियों को समझ रहा था।

कुछ देर बाद एक और सीनियर आया और मुझे सुना कर चला गया जबकि मेरी कोई गलती नहीं थी। गलती मेरे साथ वाले बंदे की थी और सुनना मुझे पड़ा। मैंने तब भी सहा क्योंकि मेरी मजबूरी थी।

उस दिन मेरा एक 1 मिनट बहुत मुश्किल से गुजर रहा था कि तभी एक सुपरवाइजर आया और वह मुझे कोल्ड स्टोर में ले गया जहां पर कोल्ड ड्रिंक्स और जूस रखा हुआ था वहां मेरे साथ एक कॉलेज स्टूडेंट भी था। वहां मैं कोल्ड ड्रिंक्स को जमा रहा था उस टाइम मेरा ध्यान नहीं गया। मेरे पीछे एक कोको कोला का कैन रखा हुआ था जब सुपरवाइजर ने आकर देखा तो उसे लगा यह सब मेरा काम है और उसने मुझे फिर से सुनाना शुरू कर दिया जबकि मैं उसे बार-बार समझाता रहा कि वह मैंने नहीं किया। लेकिन उसने मेरी एक ना सुनी।

मैं अंदर से बहुत दुखी हो गया। और मैं सोचने लगा की सफलता पाने के लिए अपने स्वाभिमान के साथ ही समझौता करना पड़ता है क्या?? आखिर मेरी मजबूरी इतनी है कि मैं गरीब हूं?? मुझे समझ नहीं आ रहा था वह लोग मेरे साथ ऐसा व्यवहार सिर्फ इसलिए कर रहे हैं। क्योंकि मैं गरीब हूं?? क्योंकि मैं मजबूर हूं??

1 मिनट के लिए मुझे लगा कि मैं अब और सहन नहीं कर सकता और मुझे वापस लक्ष्मी नगर अपने पीजी पर जाना चाहिए लेकिन रात को 1:00 बजे मुझे कोई बस भी नहीं मिलेगी मुझे मालूम था। और लक्ष्मी नगर यहां से 6 किलोमीटर दूर था।

लेकिन उसके बाद शायद ऊपर वाले को मुझ पर दया आई और मुझे एक और सुपरवाइजर मिला जिनका नाम रूपक था उनका व्यवहार काफी अच्छा था।तुम मुझे आगे 2 घंटे निकालने में कोई दिक्कत नहीं हुई।

सुबह 3:00 बजे के बाद उन लोगों ने हम लोगों पर फिर से क्लीनिंग का वर्क शुरू करवा दिया। उन बर्तनों से सामान को डस्टबिन में सोते समय मुझे सिर्फ एक बात याद आ रही थी। वह सिर्फ इतनी सी थी। मेरे पास पैसे नहीं थे इसलिए मैं दिन में एक बार खाना खाता था जबकि वहां उस बड़े से फाइव स्टार होटल में हजारों लोगों का खाना नाली में फेंका जा रहा था। तब मुझे हंसी आई अपनी किस्मत पर!! मेरे साथ वाले जो लोग थे वह लोग होटल स्टाफ से चुप चुप कर उस बचे हुए सामान, मिठाईयां, सब्जियों को इकट्ठा करके रख रहे थे और खा भी रहे थे। लेकिन मेरा ईमान मुझे इसलिए गवाही नहीं दे रहा था क्योंकि बचा हुआ खाना, खाना मेरे संस्कारों के खिलाफ था। क्योंकि मैं भूखा रह सकता था लेकिन मुझे इज्जत का खाना पसंद था। स्वाभिमान और प्रतिष्ठा के साथ जीना पसंद था।

इस तरह जानवरों की तरह सिर्फ अपना पेट भरना मेरे स्वाभिमान को ठेस पहुंचाता है, मेरे संस्कारों के विरुद्ध था, मेरे आचरण ने मुझे इसकी गवाही नहीं दे पाई।

मैं उस समय यही सोच रहा था की यह दुनिया कितनी अमानवीय हो गई है जहां पर कोई रोटी के लिए तरस रहा है और कोई हजारों व्यक्ति का खाना नाली में फेंक रहा है।

होटल स्टाफ का लगातार अमानवीय व्यवहार और इस तरह की गतिविधियां देख देख कर मैं बहुत परेशान हो चुका था कि तभी एक सीनियर आकर मुझ पर अचानक से चिल्लाया। और वह सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं उस डस्टबिन में बचे हुए खाने को फेंक रहा था जिसमें हम लोग लिक्विड को डाल रहे थे। और मैं ऐसा इसलिए कर रहा था क्योंकि मुझे एक सीनियर ने एडवाइज दिया कि अगर यह डस्टबिन फुल हो गया है तो आप इसमें डाल सकते हो।।

बस फिर तो मेरे सब्र का बांध टूट गया और मुझे उस सीनियर पर गुस्सा आ गया और मैंने उसकी क्लास लेना शुरू कर दिया क्योंकि गलती मेरी नहीं थी इसलिए कुछ लोग मेरे सपोर्ट में थे और कुछ लोग मेरे अगेंस्ट थे। ऐसे तैसे बाकी स्टाफ ने दोनों को समझाया और मुझे अगला काम दे दिया।

मुझे आगरा काम मिला गिलास को साफ करके टेबल्स पर जमाने का उस काम को हम चार लड़के कर रहे थे। जिसमें हम लोगों ने काम को बांट रखा था बाकी तीन लड़के गिलास साफ कर रहे थे और मैं उन्हें टेबल्स पर जमा रहा था।

कि तभी एक सीनियर आया और मुझे ऐसा करते देख मुझ पर चिल्लाने लगा और बोला "तू गिलास साफ क्यों नहीं कर रहा?

उसने मेरी एक ना सुनी, तब मैंने उससे कहा सर आप प्लीज मुझ पर चलाइए मत। तब वह और जोर से मुझ पर चिल्लाने लगा उसके बाद उसका एक और सीनियर आया वह भी मुझ पर चिल्लाने लगा।

उसने मेरा नाम पूछा और मुझे दूसरा काम बता दिया। इस बार मैं प्लेट्स पर कपड़ा मार रहा था लेकिन मैं अंदर से टूट चुका था और मैं रो रहा था। क्योंकि मुझे मजबूरी में कितना कुछ सहना पड़ रहा था। उस दिन मैं रो रहा था अपनी किस्मत पर

?? रो रहा था अपने हालात पर??

रो रहा था अपनी मजबूरियों पर??

और अंत में मैंने अपने स्वाभिमान से और अधिक समझौता ना करने का निर्णय लिया। मैंने निर्णय लिया कि मैं भूखा रह सकता हूं,

प्यासा रह सकता हूं। जरूरत पड़ी तुम मुझे अपनी जान तक प्यारी नहीं। लेकिन इस तरह जानवरों की तरह रहना मुझे पसंद नहीं।

मेरे भविष्य का फैसला मेरी किस्मत करेगी। लेकिन इस परिस्थिति का फैसला मैं अभी के अभी करूंगा। मैं अब एक पल और भी इस होटल में नहीं रुकूंगा।

मैंने सोचा, मैं गांव से हूं, गरीब हूं, लेकिन मैं एक अस्तित्व वादी व्यक्ति हूं, जो अपने ईमान के साथ समझौता नहीं करते, जो अपनी प्रतिष्ठा के साथ समझौता नहीं करते, जो अपने स्वाभिमान के साथ समझौता नहीं कर सकते,

मुझे वह पैसा, वह नौकरी, या वह व्यापार नहीं चाहिए जो किसी और की भावनाओं को कुचलकर शुरू किया गया हो। जहां प्रतिष्ठा और सम्मान ना हो। मुझे मेरे साथियों ने बहुत समझाया कि बस आधा घंटे की तो और बात है।

लेकिन मैं वहां नहीं रुका?? और उस होटल से वापस 6 किलोमीटर पैदल चलने के बाद सुबह 6:00 बजे अपने पीजी पर पहुंचा।

और उस दिन से अपने स्वाभिमान के साथ समझौता न करने का निर्णय लिया।

मेरा निर्णय सही था या गलत यह तो भविष्य ही सुनिश्चित करेगा???

लेकिन मैं बस यही सोचता हूं, चाहे कोई गरीब हो या अमीर?? सभी को जीने का हक है। किसी की मजबूरियों का फायदा मत उठाओ।। उसे भी अपनी जिंदगी जीने दो, उसे भी जीने का अधिकार है। उसकी भी कुछ भावनाएं हैं??

अगर कोई किसी के यहां नौकर है तो जरूरी नहीं कि यही उसका पेशा हो, यह उसकी मजबूरी भी हो सकती है। अगर आज मेरे हुनर को एक रंगमंच मिल जाता तो शायद मुझे भी इतना कुछ सहन नहीं करना पड़ता। खैर जो भी है।

आप मुझे समीक्षा करके जरूर बताएं कि मेरा निर्णय सही था या गलत???

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