आखरी सांस

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आखरी सांस

(01).

07 अप्रैल 2015

’सरकार ने इस बार बाजी कसी है। अब देश के विकाश का रास्ता खुलेगा।’ जगन ने समुदाय के गपशप में एक तुक दिया।

’तुम्हारी बुद्धी भ्रष्ट है जगन जो तुम देश के विकाश के सपने देख रहे हो। तुम देखना, यह सरकार और भी निकम्मी निकलेगी और विकाश के नाम पर देश को खोखला कर देगी।’ जीवन जगन के बातों का विरोध करता हुआ बोला।

’ऐसा नहीं है, जिस हिसाब से सरकार ने कमर कस लिया है, एक उज्जवल भविष्य देश का इंतजार कर रहा है।’ जगन अपने बातो पर दृ्ढ होता हुआ बोला।

’कमर तो तुमने भी कसी थी देश सेवा की। अवसर मिला? नहीं न? अरे अपने देश की मिट्टी ही निकम्मी है, निकम्मे लोग पैदा करती है।’ जीवन अपना गमछा झाडते हुए बोला।

’जीवन अपने जबान को लगाम दे। देश के बारे में भला बुरा कहा तो अच्छा नहीं होगा।’ जगन देश का अपमान सुनकर तिलमिला उठा।

’क्या अच्छा नहीं होगा? इतने भ्रष्ट लोग हैं इस देश में। यह देश की मिट्टी का ही तो दोष है। निकम्मे देश को निकम्मा नहीं कहूं तो क्या कहूं?’ जीवन की बात सुनकर जगन आपे से बाहर हो गया। उसने जीवन को धक्का देते हुए उसका कालर पकड लिया।

’ऐसी हरकतों की वजह से ही तुम्हारी नौकरी नहीं लगी। देशभक्ती का नशा छोडकर कुछ रूपये अधिकारियों को खिला देता तो आज तुम यहां नहीं होता।’ जीवन अपना कॉलर छुडाता हुआ बोला। तभी लोगों ने बीच बचाव किया। जीवन सहीत सभी लोग चले गए और जगन मायूस वहीं खडा रह गया।

“ऐसी हरकतो की वजह से ही तुम्हारी नौकरी नहीं लगी। देशभक्ती का नशा छोडकर कुछ रूपये अधिकारियों को खिला देता तो आज तुम यहां नहीं होते।” जीवन की यह बात अभी भी जगन के दिमाग में क्रौंध रहा था। पर वह देशभक्ति का नशा कैसे छोड दे? बचपन से यह उसके रग रग में बसा हुआ था जिसे छोडने की स्वीकृति उसकी आत्मा नहीं देती थी क्योंकि उसका जमीर जिंदा, दृढ और सशक्त था। वह समाज और देश में फन मारकर बैठा नागरूपी भ्रष्टाचार को देखकर बहुत आहत था। परंतु उसकी आंखों में देश में उज्जवल भविष्य के सपने आज भी जीवित थे। दसवीं पास करने के बाद से आज तक उसने जो सफर तय किया था वह किसी मील के पत्थर से कम नहीं था। वह बचपन से ही मेधावी रहा था। हमेशा वह अपने स्कूल, कॉलेज में अव्वल आता था। इतना मेधावी होने के बाद भी आज भी वह गांव में अपनी एडियां घिस रहा था और इसकी वजह हर स्तर पर व्यापत भ्रष्टचार था। अगर किसी संगठन के एक अधिकारी ने भी उसके कौशल का आंकलन किया होता तो वह देश को कहीं बेहतर सेवा दे रहा होता। परंतु किसी के कौशल से किसी को क्या वास्ता? उन्हें तो बस पैकेट में पैसे की गर्मी चाहिये। एक बार जगन के मामा ने उससे कहा भी था;

“जगन हर परिक्षा में उतिर्ण होकर भी तुम चुने नहीं जाते हो पर होता कुछ भी नहीं है। तुम अधिकारियो की मांग पुरी क्यों नहीं करते। मैं अपना घर गिरवी रखकर तुम्हें मदद करूंगा। बोलो क्या बोलते हो?’

अब जगन क्या बोलता? जिसने आंखो में अपने देश के लिए भ्रष्टाचार मुक्त एक विकसीत राष्ट्र का सपना देखा था, वह भला भ्रष्टाचार को बढावा देने के लिए हामी कैसे भर दे? अब तो जगन की उम्र भी नौकरी की उम्र सीमा में फीट नहीं बैठ रहा था। वहीं उसके घर का हालत भी बदतर था। मां जब स्वस्थ थी तो कहीं से कमाकर उसके पढने के लिए रूपये इंतजाम कर देती थी पर पिछले साल लकवे के झटके के बाद वह काम करने के लायक नही बची थी। खुद की हालत देखकर उसने पिछले साल जगन की शादी कर दी थी। तब से जगन के कंधो पर दो लोगों की जिम्मेवारी आ गई थी। ठीक ऐसी ही एक जिम्मेवारी उसने महसुस किया था, देश के विकाश के लिए। और अगर भ्रष्टाचार के जड हर स्तर पर इतने गहरे नहीं होते तो वह उस जिम्मेवारी को वहन कर उसे दुर तक ले जाता। वह इसका जिम्मेवार वह सरकार को मानता था। इसलिए दो साल पहले जब लोकसभा का चुनाव हुआ तो वह घर-घर जाकर लोगों को जागृत कर बीजेपी को वोट दिलवाया और खुद दिया भी दिया। यह सब उसने किसी नेता के कहने पर नहीं बल्कि खुद के सपने को साकार करने के लिए किया था और इसी सरकार के हाथों में वह देश का विकास देख रहा था। वह लोगों के सामने इस सरकार का गुणगान करते नहीं थकता था।

’यह सरकार जरूर इस देश को एक अच्छे मुकाम पर ले जाएगी।’ यह सोचकर उसका आंखे चमक उठी, बाजुओं में थोडा हौसला आया, पैरो में मजबुती आई और वह अपना कदम वापस अपने घर की ओर बढा दिया।

***

(02).

08 अप्रैल 2017

आज सरकार ने नोटबंदी की घोषणा कर दी थी। सभी जनता की क्रियाकलाप ऐसे रूक गई जैसे पवन देव के वायु रोकने से संसार के जावों की गती रूक गई थी। जगल के गांव में पीपल के छांव तले बैठे लोग भी इसी बात पर अंताक्षरी कर रहे थे।

’नोटबंदी सरकार की गलत नीति है भईया। इससे लोगों का जिना दुर्लभ हो जाएगा।’ कन्हैया चबुतरे पर बैठते हुए बोला।

’हमरी तो कुछ समझ में न आवत है कन्हैया। इ सरकार ऐसा काहे किया?’ कहते हुए रहमन ने अपना माथा पकड लिया। सुनकर पास बैठे जगन से रहा न गया। वह कुदाल एक ओर रखकर बोला।

’हम बतावत हैं रहीम काका। सरकार की यह बहुत ही अच्छी नीति है। यह विकास के लिए बहुत ही सशक्त कदम है।’

’उ कईसे?’ पास बैठे परम ने उत्सुकता दिखाई।

’दखिये पहला जो जाली नोट बाजार में आकर देश को नुकसान करता है, वह बंद हो जाएगा। दुसरा बडे लोग जैसे नेता, व्यापारीयों और अधिकारियों ने ढेर सारा काला धन रखकर जो देश को आर्थिक रूप से कमजोर किया है, नोटबंदी के बाद वह कालाधन बेकार हो जाएगा। इससे देश का आर्थिक स्थिति मजबुत होगा और रूपये का मूल्य बढेगा और फिर देश का समुचित विकाश होगा। रहीम काका देख लेना, अपना तिरंगा सबसे उपर होगा।’ जगन उन्हें समझाते हुए बोला।

’मतलब, हमारी गरीबी अब दुर हो जाएगी?’ रहीम काका के चेहरे पर अचानक प्रसन्नता का भाव झलक आया। जगन ने प्रसन्न चेहरे से हामी भरी।

’रहीम काका, यह फिजुल की बातें कर रहा है। इससे गरीबी और परेशानियां और बढेगा। जगन यह बताओ, इस वक्त पुराने नोट चल रहे हैं और नए नोटों के लिए बैंक में इतनी बडी लाइन है कि शायद ही दिनभर में मिल पाएगा। अब गरीब आदमी मजदूरी करे या बैंक में लाइन लगे?’ कन्हैया जगन के बातों का विरोध करते हुए बोला।

’हां, सही बोले पर यह कुछ दिनों की ही परेशानी है पर इससे हमारे देश का विकास जुडा है। सोचिये, सिपाही सीमा पर देश की रक्षा के लिए जान दे देते हैं। क्या हम अपने देश के विकास के लिए कुछ दिन परेशानी नहीं झेल सकते?’ जगन देशप्रेम के गहरे मझधार में बहता हुआ बोला।

’तुम सही कहते हो जगन, देश के लिए हमें इतना तो करना ही चाहिए।’ कहते हुए रहीम काका उठे। फिर उनके साथ सभी लोग अपने अपने काम पर निकल गए।

***

(03).

22 अप्रैल 2017

’सुनिये जी, घर में राशन खत्म है।’ जगन की धर्मपत्नी सुलेखा ने जगन को इतला किया।

’आज के लिए भी नहीं है?’ जगन थोडा दुखी होता हुआ बोला।

’है, पर उसमें सब का पेट नहीं भरेगा।’ सुलेखा बोली।

’सबका किसका पेट भरना है? मैं लक्ष्मण काका के यहां से खाकर आया हूं। बस तुम्हें और मां को खाना है।’ जगन अपनी नजरें नीची करता हुआ बोला। सुलेखा ने एक बार जगन को शक की दृष्टि से देखा फिर रसोई में चली गई। थोडी देर बाद ही वह पुनः रसोईघर से बाहर आई और बोली।

‘गजुसिंह ने मजदूरी दी की नहीं?’ जगन ने नाकारात्मक भाव में हल्के से अपना सर हिलाया फिर एक लंबा सांस लेते हुए बोला।

’नोटबंदी के कारण थोडी दिक्कत है। दे देगा।’

’थोडी नहीं, बहुत दिक्कत है। दस दिन की मजूरी बाकी है। रूपये का इंतजाम नहीं है तो किसलिए मजूरी करवाता है?’ फूफकारती हुई वह पुनः रसोई में चली गई। उसके बाद जगन भी खेतों पर काम करने चला गया।

दूसरे दिन जगन कहीं से दो पाव चावल इंतजाम कर आया। बीते रात उसके यहां चुल्हा नहीं जला था।

’इतने से चावल में तो एक सांझ भी पेट नहीं भरेगा हम सब का। गजू ने फिर मजूरी नहीं दी न?’

’नोटबंदी की वजह से दिक्कत है। बोला दे देगा जब उसके पास पैसे होगा।’ जगन हकीकत ब्यां करता हुआ बोला।

’और अभी जो आपके घर में चुल्हा नहीं जल रहा है उसका क्या?’ सुलेखा झल्लाती हुई बोली।

’सुलेखा, देश की आजादी के लिए लोगों ने अपनी जान लगा दी थी। आज देश के विकाश की बात है तो क्या हम थोडी परेशानी नहीं झेल सकते?’ जगन सुलेखा को समझाते हुए बोला। सुनकर सुलेखा एक बार गौर से अपने पति को देखी पर कुछ बोली नहीं।

’मैं काम पर जा रहा हूं। तुम बना कर खा लेना।’ जगन कंधे पर कुदाल रखते हुए बोला।

’और आप?’ सुलेखा ने प्रश्न किया।

’अरे रहीमन काका खाने की जिद कर रहे थे तो मैं उनके यहां खा लिया हूं।’ कहते हुए जगन घर से निकल गया।

काम पर जाते हुए उसके मस्तिष्क में तरह तरह की समस्याएं अपना रूप लेकर प्रकट हो रही थी, परंतु वह बस देश की उज्जवल भविष्य को आभास करने में मशगुल था। शायद इसलिए यह समस्याएं उसे धुंधली नजर आ रही थी। वह अपनी पत्नी को झूठ कह आया था कि वह रहीम काका के यहां से खा कर आया है पर हकीकत तो यह था कि दो दिन से उसके मुंह में एक निवाला भी नहीं गया था। मालिक मजूरी के रूप में पुराने नोट दे रहा था जिसका मूल्य अब बस बैंको में था और जिसे बदलने के लिए पुरे दिन का समय लग रहा था क्योंकि बैंक गांव से कोसों दुर था और वहां सिर चकरा देने वाली लंबी लाईन थी। दुकान, अस्पताल, स्कूल, बस ट्रेन, कहीं भी पुराने नोट चल नहीं रहे थे और नया नोट इन मजदूरो के पास था नहीं। किसी के यहां शादी था, किसी के घर में कोई बिमार पड गया था, किसी को सफर पर निकलना था, सबके सब बस बैठे समय के तांडव को महसूस कर रहे थे परंतु इन सारी समस्याओं से दुर जगन बस देश की उज्जवल भविष्य को दुर से आता हुआ देख रहा था। क्योंकि उसे खुद की जरूरतो से ज्यादा ख्याल अपने देश का था।

रात हुई, अभी सुरज छुपे घंटा ही बीता था कि अचानक जगन की तबीयत खराब हो गई। स्थानिय डाक्टर से हालत नहीं सुधरी तो उसे आनन फानन में अस्पताल ले जाया गया। नोटबंदी ने उसे यहां भी डंस लिया। अस्पताल प्रंबधको ने नए नोटों के अभाव में उसे भर्ती नहीं किया। उसके परिजन नए नोटों के जुगाड के लिए भागे परंतु नया नोट इतना जल्दी जुगाड कर लेना आसान न था। इधर भूख के बावजूद किया गया कडा मेहनत ने जगन के शरीर को तोड दिया था। उसके पास ज्यादा समय नहीं था। वह अब उठ पाने में सक्षम नहीं था परंतु अब भी उसे अपने इस दशा का परवाह नहीं था। उसे परवाह था तो बस अपने देश का। वर्षो से भ्रष्टाचार, अशिक्षा और पिछडेपन से जुझता देश का जो खटक उसकी आंखो में था, उसे अब दुर होता हुआ नजर आ रहा था। वह एक स्वच्छ, स्वस्थ और विकसीत राष्ट्र की तस्वीर देख रहा था, जहां किसी कार्यालय में रिश्वत नहीं था, जहां लोगों में जाती को लेकर भेदभाव नहीं था, जहां जीवनयापन करने के लिए हर तरह की सुविधाएं थी, जहां लोगों में बस भाईचारा, प्रेम, एकता और समानता का भाव था और जहां का हर नागरीक देश की विकास में जुटा था। उसकी आंखो में देश का यह उज्जवल भविष्य अब भी प्रक्षेपित हो रहा था परंतु उसके दिल ने अब धडकना बंद कर दिया था। वह विकट परिस्थिति से लडकर भी अपने देश की हित चाहने वाला एक देशभक्त सपूत था।

***

- पंकज वर्मा

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