JUNE 10th - JULY 10th
शीला देवी का साठवाँ जन्मदिन से मनाया जा रहा था। दस वर्ष का अनुपम अमेरिका से चार साल बाद आया था, वह दादी को ध्यान से देख रहा था. दादी चुप है, कुछ बोलती नहीं। हाथ, पाँव, गर्दन हिलाती नहीं, आँखें खुली हैं पर किसी पर नजर टिक रही हो, ऐसा लगता नहीं। इतना शोर, इतनी बातें हो रही हैं पर शायद कुछ सुन भी नहीं रही हैं।
अनुपम को नहीं पता था कि दादी इसी अवस्था में तीन साल से हैं। ज्यादातर समय लेटी रहती हैं। कभी, खास अवसरों पर जैसे कि आज, उन्हें कुर्सी, में तकियों का सहारा लगा कर बैठाया जाता है। आने वाले दिनों में अनुपम ने जाना कि तीन साल पहले सड़क की एक गम्भीर दुर्घटना में, दादी को सिर में भयंकर चोट लगी थी। चार महीने तक अस्पताल में रही थीं। उम्मीद थी कि धीरे-धीरे होश आ जाएगा, पर नहीं आया। हालांकि दादी बेहोश जैसी लगती नहीं। कुछ घण्टे सोती हैं, कुछ घण्टे जागती हैं। लगातार सबको देखती हैं।
अनुपम ने पापा के मुँह से दादी के जीवन के ढेर सारे किस्से सुने थे। कितनी विद्वान प्रोफेसर व लेखिका थी। पापा को उनसे कितना प्यार था। दूसरे बच्चे खेलकूद, टी.वी. व मोबाइल गेम्स में व्यस्त रहते पर अनुपम, दादी के कमरे में बना रहता। दो नर्स, बारह-बारह घण्टे की ड्यूटी पर आती थीं। काका और काकी दिन रात में बहुत बार आते, बैठते, निगरानी करते, हिदायतें देते थे। रोज सुबह मालिश होती, दाँत साफ किए जाते, उँगली पर गीला रुमाल रखकर मुँह के अन्दर की सफाई के लिए घुमाया' जाता (कुल्ला नहीं कर पाती थीं), पूरे शरीर पर स्पोंजिंग की जाती, रोज, बाल बनाए जाते, हर दो घंटों में करवट बदलते, दादी को मुँह से कुछ नहीं दिया जाता था- न भोजन न पानी। उनके पेट में एक स्थायी नली लगी थी, (पेग,/peg) जिससे प्रति एक-दो घण्टे पर कुछ पतला, अर्ध्दतरल, संतुलित खाना दिया जाता था. पेशाब व टट्टी के लिए डायपर बाँधते थे। कब्ज होने पर एनीमा लगते थे.
एक बार देर रात, अनुपम दादी के पास अकेला बैठा था। दादी कुछ-कुछ मुँह चला रही थी, सूखे होठों पर जीभ फेर रही थी, शायद प्यास लगी थी। अनुपम ने जग में से कटोरी में पानी लिया दादी के मुँह में डाला। थोड़ी देर कुछ नहीं हुआ। थोड़ा-सा पानी बाहर आया। बाकी मुँह में भरा रहा। फिर अचानक जोर से खाँसी आने लगी, जो रुकी ही नहीं, मुँह से झाग आने लगा। नर्स और काकी दौड़े आये। जब पूरी बात पता चली तो अनुपम को डांट पड़ी ।
“इन्हें मुँह से नहीं देना है”, जो कुछ भी जरुरत है, सब पेट की नली से।
दिन में दादी को कुर्सी पर तकियों के बीच फंसा कर बैठा देते, टी.वी. या संगीत चालू कर देते थे। पता नहीं कुछ उनके दिमाग में जाता भी था या नहीं। सप्ताह में दो दिन जब काका के ऑफिस की छुट्टी होती थी, दादी को कार में बैठाते, फिर शहर में किसी गार्डन, मन्दिर, चौक बाजार में लाकर व्हील चेयर में घुमाते। काका को लगता था कि माँ दुनियां व लोगों के बीच रहेगी तो शायद उन्हें होश आ जाएगा।
एक दिन डॉ. शाह दादी को देखने आये। अनुपम ने डाक्टर साहब से पूछा "मेरी दादी ऐसी क्यों है? उन्हें होश कब आएगा ? आप उन्हें दवाइयां क्यों नहीं देते ?”
काका ने टोका, “अनुपम! दादी बेहोश नहीं हैं। उन्हें ध्यान हैं, वे सुनती हैं, देखती हैं, महसूस करती हैं, इशारा करती हैं, बोलना चाहती हैं, रोज बेहतर हो रही हैं।
अनुपम को विश्वास नहीं हुआ।
डॉक्टर बोले- बेटा! आपकी दादी को हेड इन्जुरी के कारण मस्तिष्क में खूब ज्यादा व गहरी चोंट आई थी, वहाँ की ढेर सारी कोशिकाएँ और तन्तु जाल हमेशा के लिए क्षतिग्रस्त हो गए जिनके अब ठीक होने की उम्मीद नहीं है”।
काका व पापा ने फिर टोका- “नहीं डॉक्टर! ऐसा नहीं है। माँ ठीक हो रही है और पूरी तरह से नॉर्मल हो रही है। देखो वो मुस्कुरा रही है”।
डॉक्टर चुप रहे। अनुपम दादी के चेहरे पर मुस्कान ढूंढने की कोशिश करता रहा।
डॉक्टर ने फिर अनुपम को बताया कि “शुरु के कुछ महीनों में सुधार था। पहले कोमा या बेहोशी थी, उसके बाद जागृति आने लगी थी। तब उम्मीद थी | फिर गाड़ी रुक गई, त्रिशंकु के समान, न बेहोशी न होश। इसे जड़ अवस्था कहते हैं, वेजीटेटिव स्टेट। जैसे-जैसे समय गुजरता जाता है वैसे-वैसे चेतना आने की उम्मीद कम होती जाती है। छः महीने के बाद लगभग शून्य।”
पापा बोले “मैंने पढ़ा है कुछ मरीजों के बारे में, जो अनेक वर्षों बाद अच्छे हो गए।
डॉक्टर बोले “आम मीडिया में छपने वाली स्टोरी, सुनी-सुनाई बातों पर आधारित होती हैं। उनकी विश्वसनीयता कम होती है। यदि सचमुच में ऐसा कभी होता है वह मेडिकल शोध पत्रिका (जर्नल) में केस रिपोर्ट के रुप में प्रकाशित होगा.
एक रोज, सुबह अनुपम को जोर-जोर से आवाजें सुनाई दी, मानों झगड़ा हो रहा हो। पापा, मम्मी, बड़े काका, काकी और ऑस्ट्रेलिया वाले छोटे काका (जिन्होंने शादी नहीं की थी) बहस कर रहे थे।
छोटे काका "भैया लोगों! ऐसा कब तक खींचोगे माँ को। दस साल हो गए हैं। कोई उम्मीद नहीं है |”
बड़े काका- “माँ सब सुनती है, समझती है। पिछले महीने उन्होंने ग्रीटिंग कार्ड पढ़ा था, एक बार टाटा किया था, एक दिन रो रही थी जब मेरी बेटी छुट्टियों के बाद वापिस मुंबई कालेज जा रही थी |”
पापा- “मैं इतने सालों के बाद आया था तो उन्होंने मेरे से दूर मुँह फेर लिया, गुस्सा बता रही थी। मैंने बार-बार माफ़ी मांगी, रोया तो मेरा हाथ दबाकर मुझे माफ़ किया और प्यार किया।”
छोटे काका- “ये सब विशफुल थिंकिंग है। सच्चाई जानते हुए भी उसे स्वीकारने की हिम्मत नहीं है आप में।”
बड़े काका-“तुम्हें क्यों बोझा लग रहा है। अकेले हो, आगे पीछे जिम्मेदारियाँ नहीं है। सबसे ज्यादा कमाते हो। पैसा भेजने में जोर आने लगा है। हमें नहीं देखते। हम पैसा खर्च नहीं कर पाते पर कितने मन से माँ का ध्यान रखते हैं, सेवा करते हैं।”
छोटे काका बिफर पड़े। गुस्से में चिल्लाए। “मुझे पैसे की चिंता नहीं है। और भी दे सकता हूँ। अपने आप को लुटा सकता हूँ—मगर कुछ उम्मीद तो हो. माँ के लिए एसी जिन्दगी किस काम की. जरा सोचो – क्या माँ स्वयं खुद के लिए ऐसी जिन्दगी स्वीकार करती। कितनी खुद्दार और जिंदादिल थी।“ बड़ी मुश्किल से काकी और माँ ने भाइयों को शांत कराया|
इसी समय डॉ शाह का फोन आया।
“वैजीटेटिव अवस्था वाले मरीजों की देखभाल करने वालों की एक मीटिंग कल शनिवार 4 बजे टाउन हॉल में रखी है। लगभग 20 परिवार आएंगे। आप चाहें तो माताजी को भी ला सकते हैं।”
उस मीटिंग का दृश्य मार्मिक था। 20 में से 14 परिवार वाले अपने प्रियजन को भी लाए थे। कोई स्ट्रेचर पर, कोई व्हील चेयर पर, कोई एम्बुलैंस से, कोई कार से, दो परिवार ऑटो में आये थे। किन्हीं-किन्हीं को श्वांसनली में छेद था (ट्रेकियास्टॉमी) । कुछ ऑक्सीजन सिलिण्डर साथ लाये थे। कुछ लोगों को नाक में नली (रायल्स ट्यूब) लगी थी. कुछ को पेट पर पेगनली। कुछ बिना नली के मुँह से निगल पाते थे। अधिकांश डायपर लगवा कर आए थे। कुछ को केथेटर (पेशाब नली) लगी थी। अधिकांश का शरीर कृशकाय, हड्डी-हड्डी था। कुछ को बेडसोर (कमर के पीछे छाला,) था। कुछ का श्वांस शांत था तो कुछ के गले में लार-कफ जमा होने से खड़-खड़ ध्वनि आ रही थी। एक मरीज को सलाइन बोतल लगी थी.
इन सबमें शीला देवी की स्थिति सबसे अच्छी, साफ, स्वस्थ व सुन्दर थी। अनुपम के पापा, मम्मी और छोटे काका को संतोष और गर्व हुआ कि उनके भाई और बहू ने कितने जतन से माँ को सम्भाल रखा है।
सभी परिवारों को आश्चर्य हुआ कि अपने शहर में बीस व्यक्ति जड़ अवस्था में सांस ले रहे हैं। डॉ. शाह बोले इससे तीन गुना होंगे जो नहीं आए या जिनके बारे में हमें पता नहीं। हर कोई सोचता था कि वे ही एकमात्र हतभागे हैं जिन्हें इन दुर्दिनों का सामना करना पड़ रहा है।
चाय नाश्ते पर बातें हुई। परिचय हुए। एक-दूसरे की कहानियों का आदान प्रदान हुआ। कौन कैसे सम्हालता है। कैसे अपनी नौकरी धन्धा, अन्य जिम्मेदारियों के साथ एडजस्ट करता है? किसे, किससे, कितना सपोर्ट मिलता है? कौन-कौन अन्दर से टूट चुके हैं? कौन हिम्मत बनाये रखे हैं? बर्फ पिघलती गई। परिचय की ऊष्मा ने भरोसा बढ़ाया, मन को सुकून दिया।
डॉ. शाह का वक्तव्य गजब का था। जड़ अवस्था के कारणों, पेथालॉजी व उपचार से लेकर देखभालकर्ताओं पर पड़ने वाले आर्थिक, मानसिक, भावनात्मक बोझ, उनसे उबरने और सम्हलने के उपाय से लेकर, इस अवस्था के दार्शनिक पहलुओं पर उन्होंने चर्चा की।
फिर खुला सत्र चला। सबने अपना परिचय व कहानी संक्षेप में सुनाये। किशोरवय अनुपम के लिए ये अत्यन्त गम्भीर अनुभव थे, पर उसका बुद्धिमान और भावुक मन, बड़ी परिपक्वता के साथ, जीवन के गहन पक्षों को आत्मसात कर रहा था| इन सब में प्रमिला की कहानी ने लोगो को झकझोर दिया|
40 वर्षीया प्रमिला बैंक में एक छोटे-से पद पर नौकरी करती थी, सिंगल मदर है, 18 वर्ष की बेटी कॉलेज में पढ़ रही है। प्रमिला के पिताजी 4 वर्ष से वेजीटेटिव अवस्था में हैं। माँ और बेटी अपनी काम वाली बाई के साथ घंटे बाँध कर जैसे-तैसे पिताजी का जीवन खीच रहे हैं। बीच-बीच में मिर्गी के दौरे व इन्फेक्शन होते हैं, खर्चा बढ़ जाता है|
प्रमिला ने पढ़ा कि अनेक देशो में कानूनी प्रक्रिया के तहत ऐसे मरीजों का खाना बन्द कर देते हैं और उन्हें शान्ति से मरने दिया जाता है। इस अवस्था में शरीर को पीड़ा, भूख प्यास आदि की अनुभूति नहीं होती। प्रमिला ने कोर्ट, वकील, सिविल सर्जन, के ऑफिसों में खूब चक्कर लगाए- परन्तु अपने देश में ऐसा कोई कानून या नियम है ही नहीं। कुछ वर्ष पूर्व, मुम्बई के के.ई.एम. अस्पताल की नर्स का केस, हाईकोर्ट तक पहुँचा था।
प्रमिला बहते हुए आँसुओं और रुंधे गले से कह रही थी,
“मैं अपने बापू से बहुत प्यार करती हूँ, नहीं, करती थी। क्योंकि अब वे हैं नहीं, केवल शरीर है, बिना मन-मस्तिष्क के, बिना चेतना के शरीर का कोई अर्थ नहीं। मैं जानती हूँ कि अन्दर कोई नहीं है। मैंने पिताजी की विशेष जाँचे, एम्स दिल्ली में करवाईं जिनसे कुछ मरीजों के बारे में मालूम पड़ा है कि ऊपर से वे जड़ अवस्था में प्रतीत होते हैं, पर अन्दर शायद कुछ होश होता है- पिताजी के दिमाग में कोई चेतना क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं पाई गई। एक जिन्दा लाश को ढोते-ढोते में टूट चुकी हूँ।“
प्रमिला के वक्तव्य ने मीटिंग का माहौल गमगीन कर दिया। सबने उसे ढाँढस बन्धाया। अनुपम के पिताजी अमेरिका में वरिष्ठ वकील थे। उन्होंने बताया कि कानून के किन प्रावधानों में, संथारा जैसी प्रक्रियाओं द्वारा इन्सान का जीवन त्यागा जा सकता है। प्रमिला को रास्ता मिला। वे स्वयं जैन परिवार की थीं।
उत्तर कथा
अगले अनेक वर्षों तक अनुपम साल में एक बार दादी से मिलने आता रहा। छोटे काका मान गए थे कि माँ जैसी भी हो, यदि उनके शरीर की सेवा कर दें तथा सुन्दर मुस्कान युक्त चेहरे के दर्शन करके, भैयाओं को संतोष मिलता है, तो वैसा ही सही।
बड़े काका कहा करते थे – “माता पिता ईश्वर के स्वरूप् होते हैं। अपने पूजाघर में ठाकुरजी की सेवा होती है, उन्हें नहलाते हैं, श्रृंगार करते हैं। अपनी माँ इस घर की सबसे खास मूरत है। रोज उनके दर्शन करने का पुण्य लाभ होता है।”
आठ वर्ष बाद एक दिन अनुपम घर पर दादी के साथ अकेला था। काका-काकी दूर एक शहर में शादी में गए थे। अचानक दादी का चेहरा सफेद पीला पड़ गया, शरीर पसीने से नहा गया, हाथ-पाँव ठन्डे हो गए | ताबड़तोड़ एम्बुलेंस करके अस्पताल पहुँचे। हार्ट अटैक था। ह्रदय व श्वांस गति रुकने पर नर्स व डॉक्टर ने दिल की मालिश शुरू करी, ऑक्सीजन लगाईं, गले में श्वांस नली डालकर वेंटिलेटर लगाने वाले थे कि अनुपम ने सबको रोक दिया
“यह कुछ मत करो, रिससिटेशन बंद करो| दादी को जाने दो|”
डॉक्टर्स बोले तुम तो पोते हो, छोटे हो|
अनुपम ने कहा “मैं १८ वर्ष का हूँ, फॉर्म पर दस्तखत कर सकता हूँ| अमेरिका में मेडिकल स्टूडेंट हूँ| सोचता था डॉक्टर बनकर दादी को होश में लाने की विधियों पर शोध करूँगा, परन्तु अब बस. अन्दर कोई नहीं है.”
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vnpanditindia
mandloi
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newage
It is important to discuss such issues in present senario
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