JUNE 10th - JULY 10th
लघुकथा-"जर्सी कोर्ट"
मैं लगभग 12-13 साल का था ठंड का समय चल रहा था महीना नवंबर-दिसंबर का था मेरे पास पहनने के लिए गर्म कपड़े नहीं थे।मैं पापा जी से बार-बार बोल रहा था कि पापा जी मुझे जर्सी चाहिए ठंड बहुत लगती है अच्छा उसी समय हम,मतलब मैं,विवेक,सत्यम और राहुल चारों दोस्त नीलिमा तिवारी मैम के यहां कोचिंग जाया करते थे सुबह 6:00 बजे से विवेक,राहुल,सत्यम तीनों के पास जर्सी थी और ऊपर से टोपा भी और सांंल भी ओढ़ कर आते थे ।
उसी समय मेरी मांग चढ़ती जा रही थी कि मुझे भी जर्सी लेना है-2 गुरुवार के दिन बाजार लगती थी मैंने दो-चार बार रो भी लिया था,जर्सी की वजह से।फिर सब लोग मान गए और तय हुआ कि इस बार गुरुवार के दिन मेरे लिए जर्सी खरीद ली जावेगी। मेरी एक-एक रात बड़ी उत्सुकता से कट रही थी मुझे याद है वह दिन जब एक जर्सी के लिए मैं कितना उतावला हुआ जा रहा था??? बाजार के मात्र 2 दिन बचे हुए थे उतने में ही मतलब मंगलवार के दिन को मेरे पापा जी की मौसी की लड़की के लड़का मतलब पापा जी के भंनेज आ गए। वह मेरे रिश्ते में भैया लगते थे उनका नाम सुनील था उनका स्वागत सत्कार हुआ उन्होंने कुछ सामान लेकर आए कुछ घरेलू सामान जिसमें से एक कपड़ा था- "जर्सी कोर्ट" जो उनकी मम्मी मतलब मेरी बुआ जी ने मुझे पहनने के लिए भिजवाया था जो उनको छोटा हो गया था यह बात मेरे पापा मम्मी जी को पता लगी तो वह बहुत खुश हुए कि अब आनंद को नया जर्सी कोर्ट ना लेना पड़ेगा।मैं बाहर खेलने गया हुआ था शाम होते-होते भैया भी चले गए मैं रात को घर आया। शाम को सब खाना खाने बैठे ।तुरंत मेरी मम्मी ने मुझसे कहा-बेटा तेरी बुआ ने तेरे लिए जर्सी-कोर्ट भिजवाया है । मैंने तुरंत मम्मी से पूछा-मम्मी कैसा है?? किसका है ?और नया है या पुराना...???
मेरी मम्मी ने कहा-सुनील भैया का है उनको छोटा हो गया था तो अब तेरे काम आएगा।
अरे बाप रे !मेरी तो जान निकल गई मेरे अंदर भूकंप आ गया,ज्वालामुखी फट गया सीने में, मेरी आंख भर आयी।मैंने कहा-मैं नहीं पहनूंगा, मुझे नया ही चाहिए, नहीं तो मैं ऐसे ही रह लूंगा भरे ठंड के मौसम में ।
मेरे पापा जी ने मुझे चिल्लाया और बोला-पहले पहन के तो देख लो और अब तुम्हें उसी से काम चलाना पड़ेगा क्योंकि मात्र एक महीना ही बचा है ठंड का । ज्यादा है तो अगले साल दिलवा देंगे।
मैं मम्मी के ऊपर चिल्लाने लगा, अब पापा जी के ऊपर तो बस चलता नहीं है। मेरी मम्मी ने कहा-पहले देख तो लो। मैंने कहा-नहीं देखना है मुझे,खुद ही पहन लो । थोड़ी देर बाद इच्छा हुई देखूं तो कैसा है??चुप-चाप देखा तो एक बड़ा सा जर्सी का कोर्ट जिसमें चैन थी और करीब उसमें 10 से 12 जेब रहे होंगे और कोर्ट का रंग भी लगभग जा चुका था मगर उसी में मन भरना था तो मैंने भी अपने मन को मना लिया और उसमें दो-चार खोट निकाल दी।
वह मेरी मम्मी जी ने पूरी कर दी। क्योंकि वो एक टेलर(दर्जी) थी अगले दिन मेरा जर्सी-कोर्ट बनकर तैयार हुआ और मैंने उसका उद्घाटन किया।
अच्छा वह मुझे भा गया क्योंकि उसमें जेबो की संख्या ज्यादा थी लगभग 10 से 12 जेब थे। परेशानी केवल यह थी कि वह थोड़ा बड़ा था पर जेबो के कारण मुझे अच्छा लगा और न भी लगता तो कुछ नहीं होता।
"मन मारकर पहनो या मनाकर" पहनना तो पड़ता।
सुबह कोचिंग उसी को पहन के गया सोचा अच्छी तारीफ होगी लेकिन ये क्या,सब देख कर हंसने लगे क्योंकि कोर्ट बहुत बड़ा था।लेकिन फिर भी मुझे इसकी कोई परवाह ना हुई,क्योंकि मेरे जर्सी-कोर्ट में मुझे ठीक उसी समय पता चला कि उसके अंदर वाले भाग में भी एक जेब है जिसमें चैन भी लगी है।अरे! फिर क्या है मैं तो फूल के बबरा हो गया था।यह देखकर मन में विचार आ रहे थे कि अब मुझे कंचे रखने में परेशानी नहीं होगी। कोई भी चीज आसानी से रख लिया करूंगा। किसी को पता भी नहीं चलेगा और दुकान में बैठूंगा तो आराम से पैसे भी चुरा सकूंगा। क्योंकि जेबों की संख्या ज्यादा है कोई कितने जेब देखेगा और बाहर वाले ही देखेगा। अब किसी को क्या पता कि अंदर भी जेब है?मेरी कमाई का भी जरिया बन गया मेरा "जर्सी-कोर्ट" अब तो बस मुझे अपने प्राणों से प्यारा हो गया। मैं उसे ही पहन कर स्कूल जाता,कोचिंग जाता,खेलने जाता और बेपरवाह पूरा गांव घूमता रहता।
अच्छा उसको पहन कर सोता भी था सब लोग मना करते पर मैं जबरदस्ती करके सो जाता था। कभी मन हुआ तो उसी के बड़े-बड़े जेबों में एक तरफ गुड और एक तरफ रोटी लेकर घूमने चला जाता था।कभी-कभी फल्ली दाना भर लेता था और खेलने चला जाता था। अच्छा सबसे बड़ा फायदा उसका खेत जाने में था क्योंकि खेत में लगे मटर,हरे चना उसमें बहुत सारे आ जाते थे और किसी को पता भी नहीं चलता था पूरे रास्ते भर खाते आओ फिर भी खत्म नहीं होते थे। सीताफल,बीही तो मेरे जर्सी-कोर्ट में 8-8,10-10 आ जाते थे और इमली भी।मतलब मेरा कोर्ट अब समझो मेरे शरीर का एक अंग बन चुका था जिसे मैं कभी अपने से अलग नहीं होने देना चाहता था लेकिन धीरे-धीरे ठंड खत्म होने के कगार पर आ गई और गर्मी जोर पकड़ने लगी मेरी मजबूरी बन गई थी मेरे जर्सी कोर्ट को रखने की।पर मैं फिर भी पहनता था लेकिन मेरी मम्मी पापा ने मुझे चिल्लाया-तुझे गर्मी नहीं लगती..???
तो मुझे उसे रखना ही पड़ा। लेकिन फिर वो जर्सी कोट को मैंने तीन-चार साल तक चलाया था और फिर उसकी हालत बिगड़ गई थी और मेरी मम्मी ने फिर उसे किसी गरीब को दे दिया जो मजदूरी किया करता था उस जर्सी कोर्ट ने मेरे दिल में ऐसी छाप छोड़ी कि मैं अभी तक उसे नहीं भूल पाया जो आज मैं 20-22 साल का हो गया हूं और हर ठंड में उसे याद करता हूं।
कहते हैं-"कि इस संसार में कोई हमारे साथ ज्यादा दिनों तक नहीं रहता। यह बात मेरे जर्सी-कोर्ट से सिद्ध हो गई।"
लेखककार-"आनंद"
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Laxmi
बहुत अच्छी कहानी
Description in detail *
Thank you for taking the time to report this. Our team will review this and contact you if we need more information.
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