ठंडक

जीवनी
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ठंडक


उसकी धड़कनें सामान्य से दुगुनी रफ़्तार में भागे ही जा रहीं थीं। ऐसा नहीं था कि रिक्शे में बैठने से पहले वह कोई भाग-दौड़ करके आई हो। वह तो आज भी रोज़ की तरह ही कोठी से अपना काम तसल्ली से निपटाकर निकली थी। पर आज उसके साथ कुछ और भी था...कुछ बहुत खास।

पैसे बचाने के लिए हर सुबह वह पैदल ही चली आती काम पर। किंतु दोपहर बाद काम निपटाकर जब वह लौटने को होती तो खुद को थककर चूर पाती। इस वजह से रोज़ रिक्शे पर लदकर लौटना उसकी दिनचर्या बन गई थी। लौटते हुए लगभग पंद्रह मिनट का ये सफर वह सुस्ताते हुए काटती थी। रिक्शे पर लगने वाली हवा से उसे प्यार सा हो गया था। जब हवा उसके पसीने से भीगे बदन को छूती तो ऐसी ठंडक में बदल जाती जो उसे बहुत ही अच्छी लगती। उसे अक्सर ही याद आता कि मेम साहब के कमरे में लगा एयर कंडीशनर भी ऐसी ही ठंडक उगलता है। फिर सोचती 'अरे नहीं...ये रिक्शे पर लगने वाली हवा की ठंडक की बात ही अलग है।...इसे कोई रोकता नहीं।' मेम साहिब तो कमरे की साफ़-सफ़ाई के दौरान जब-तब एसी बंद कर देती थीं। जब-तब क्या, ऐसा वह अक्सर ही किया करती थीं। पर जैसे ही वह काम निपटाकर बाहर निकलती, खुद के लिए चला लेतीं। 'बैठे-बैठे सारी गर्मी उन्हें ही लगती है। और मैं काम में जूझती रहूँ तो भी एसी न चलाएं।' यह सोचते हुए बबली का मुँह कसैला हो जाता। वह सपना देखती कि एक दिन ऐसी ठंडक उसे हर रोज़-हर पल नसीब होगी। सोचते-सुस्ताते घर पहुँचने से पहले ही वह रिक्शे में बैठे-बैठे लगभग सारी थकान दूर कर लेती और पहुँचते ही खाना बनाने में जुट जाती।

पर आज ऐसा नहीं था। आज वह घर अकेले नहीं जा रही थी। उसके साथ मेम साहिब का दिया हुआ फ़्रिज भी रिक्शे पर लोड था। वही फ़्रिज जो बबली के लिए एसी की तरह ही एक जादुई मशीन थी। गाँव से आने के बाद जब वह पहली बार मेम साहिब के घर काम पर लगी थी तभी देखा था उसने एसी और फ़्रिज। कुछ दिनों तक तो इन्हें छूने या इनके बारे में पूछने की हिम्मत भी न जुटा पाई थी वह। कितना भी काम करके थकी हो, पसीने से लथपथ हो, एक गिलास ठंडा पानी पी लेती जो इस फ़्रिज में रखी बोतल से तो लगता कि कलेजे में स्वर्ग उतर आया हो। वह रोज़ सब काम निपटाकर और मेम साहिब से पूछकर उसके लिए ही रखी दूसरे बोतलों से अलग रंग वाली बोतल को निकाल उससे गट-गट कर पानी पीने लगती। फिर अंतिम कुछ घूँट धीरे-धीरे ये एहसास करते हुए पीती कि पानी गले से उतरते हुए कैसे सीने, पेट और पूरे शरीर में ठंडक फैला रही है। ऐसा वह दिन में बस एकआध बार ही करती, जिससे कि मेम साहिब को बुरा न लगे।

आज तो कमाल हो गया था। काम पर पहुँचते ही मैम साहिब ने बोल दिया था, 'बबली, तेरे भैया को कंपनी की तरफ़ से बड़ा फ्रिज़ गिफ्ट में मिला है। अब एक घर में कितने फ़्रिज रखें...और हम हैं भी दो ही लोग। अगर तुझे ले जाना हो तो ये पुराना फ़्रिज अपने घर ले जाना, नहीं तो भंगार में डाल दूँगी।' बबली को लगा कि उसने जैसे कुछ ग़लत सुन लिया हो। ये तो उसके मन की ऐसी मुराद दी जिसके सच होने की उसे कतई उम्मीद नहीं थी। उसे अपने सुने पर विश्वास ही नहीं हो रहा था और न ही दुबारा पूछने का तरीका सूझ रहा था। हिम्मत भी नहीं हो रही थी कि मामला स्पष्ट कराये। पर जब मेम साहिब ने फ़्रिज में से सब सामान निकालने और उसे खींच कर बाहर गेट के पास तक सरका देने को कहा तो उसका विश्वास जमने लगा। नई फ़्रिज में सामान रखते हुए उसे खुशी से नाचने का मन करता रहा, पर वह इसे जाहिर नहीं कर रही थी। आख़िर मेम साहिब को बुरा लग गया तो। ऐसा करते हुए वह उस नए फ़्रिज से ज़्यादा पुराने फ़्रिज को निहार रही थी जो कहीं से भी पुराना नहीं लग रहा था उसे। काम निपटाते हुए वह सोचने लगी कि कितना ग़लत सोचती है वह मेम साहिब के बारे में। 'अगर वह बुरी होतीं तो क्या उसे फ़्रिज देतीं। भंगार में बेचें तो भी खूब पैसे मिलेंगे। एक मैं हूँ कि कभी-कभी डांट-फटकार देने के कारण उनके बारे में कितना भला-बुरा सोच जाती हूँ। क्या मैं कभी सोच सकती थी कि हमारे पास फ़्रिज होगा?'

बबली और उसके छोटे-भाई बहन को गर्मियों में बर्फ़ वाला ठंडा पानी पीना बहुत अच्छा लगता था। कभी-कभी पड़ोस की दुकान से वह पाँच रूपये का बर्फ़ मंगवाती थी तो घर में सबके चेहरे चमक उठते थे। हालाँकि इतनी छोटी कमाई में वह ऐसा रोज़ नहीं कर पाती थी। गर्मी भर ठंडा पानी पीना उसके साथ-साथ उसके छोटे भाई-बहन का भी सपना था। जिस दिन बर्फ़, समझो उस दिन पार्टी। कभी-कभी तो बबली मेम साहिब के यहाँ भी ठंडा पानी पीते हुए ये सोचा करती कि काश दादी और छोटे भाई-बहन के लिए भी वह रोज़ ऐसे ही ठंडे पानी का जुगाड़ कर पाती। पर ठंडा पानी कौन कहे एक कमरे वाली खोली में एक सौ अस्सी डिग्री नाचने वाले टेबल फैन से हवा तक मिल पाना संघर्ष सा लगता था।

असमय माँ-बापू के मरने के बाद भूमिहीन और रोजगार रहित परिवार पर आजीविका का संकट खड़ा हो गया था। सत्रह साल की बबली पर ही चौदह साल की छोटी बहन बबीता, ग्यारह साल के छोटे भाई गुड्डू और बूढ़ी दादी के पालन-पोषण की जिम्मेदारी आन पड़ी थी। गरीब परिवार की अनाथ बबली गाँव के लफंडरों की नज़र में ऐसी बंद तिजोरी जैसी थी जिसे वे जब चाहें तब खोलकर आपस में बाँट लें। उन पर कोई अंकुश न था। अनुभवी बूढ़ी दादी ने ये सब भांप एक दूर के रिश्तेदार से कह-सुनकर शहर में बबली के लिए काम तलाश करवा दिया। पूरा परिवार गृहस्थी समेट भाड़े की एक छोटे कमरे में आ गया। जिसे वहाँ सब खोली कहते। यहाँ जीने का संघर्ष तो था पर बबली और दोनों छोटे बच्चे सुरक्षित थे, ये सोच दादी निश्चिंत हो गई। बबली ने पहले से तय मेम साहिब के यहाँ काम पकड़ लिया तो ज़िदगी की गाड़ी हिचकोले खाते ही सही पर चल पड़ी। उसने गुड्डू का नाम पास के सरकारी स्कूल में लिखवा दिया। छुटकी बबीता खोली पर दादी के साथ रहकर घर के काम में मदद करती। सामान के नाम पर साथ आए कुछ कपड़े, बिस्तर, बर्तन थे और यहाँ आकर जोड़ तोड़ करके ली गई एक फोल्डिंग चारपाई, एक टेबुल फैन और एक मटका भर इसमें जुड़ पाया था। चार महीने नौकरी कर बबली खाने-पीने के खर्चे से बचाकर यही जुगाड़ पाई थी। पर इन सबमें पिछले महीने खोली का किराया न दे पाई थी। और ये महीना भी पूरा होने को आ रहा था। दो महीने का किराया यानी पाँच हजार रुपैय्या। बबली और दादी का तो सोच-सोचकर बुरा हाल हो रहा था।

रिक्शे पर फ़्रिज को थामे बैठी बबली गली में घुसी तो सबकी नज़रों में आश्चर्य बनकर उतर गई। उसके हाथ में फ़्रिज देख उसके जैसे ही अन्य गरीब खोली वालों की तो आँखें फटी रह गईं। खोली के सामने आते-आते दादी और छोटी बहन बबीता बच्चों का शोर सुनकर बाहर निकल आईं। बबली के हाथों में इतना बड़ा सामान देख जहाँ बबीता उत्सुकता से चहकने लगी वहीं दादी को अजीब सी चिंता हुई। बबली ने रिक्शा किनारे लगवाया। रिक्शेवाले की मदद से फ़्रिज नीचे उतारा और फिर किराया देकर विदा कर दिया। चिंतित दादी मौका देख सवालों के साथ उस पर टूट पड़ी, 'ई का ले आई बिटिया, इत्ता बड़ो?...ई है का?'

'दादी, फ़्रिज कहें हैं इसे, पानी ठंडा करबे के काम आवे है और इसे हमारी मालकिन ने दियो है।' बबली ने अपनी सारी खुशी इस एक वाक्य में घोलते हुए जवाब दे दिया।

दादी कुछ और सवाल जोड़ती उससे पहले पड़ोस से आ जुटी भीड़ में से एक अधेड़ अपनी लुंगी कसते हुए बोला, 'मालकिन ने तो दे दिया अपनी आफ़त आपके सर। पर इसे तुम लोग झेलोगे कैसे?'

ये तो कुछ अनचाही और अनजानी बात हुई। जैसे खुशियों की गाड़ी पर ब्रेक लगा दिया हो किसी ने। बबली पूछ पड़ी, 'क्यों चाचा? इसमें क्या आफ़त, क्या झेलना?'

'अरे भइया, हाथी खरीदना बड़ी बात नहीं है, हाथी को खिलाना और पालना बड़ी बात है। कमरे के किराये से ज़्यादा तो इस अकेले का बिजली बिल आ जाएगा।'

बबली ने तो ये सब कभी सोचा ही नहीं था। बूढ़ी दादी ये सब सुनकर गुस्से से उबलती हुई बोली, 'अरे, नासपिटी, ई का उठा लाई?...हमसे पुछिबो न ज़रूरी समझो? हम्में न पीनो ठंडो पानी, अरे कहाँ से भरिहो इत्ता बिल? वापिस फेंकि आ अपनी मालकिनी के सिर पर।'

अब तक उमंग और सपनों की लहर पर सवार बबली औंधे मुँह जमीन पर आ खड़ी हुई थी। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि आख़िर क्या प्रतिक्रिया दे। 'मैंने तो सच में ये बिजली के बिल की बात कभी सोची ही नहीं। अब एसी, फ़्रिज की ठंडक के बदले मोटा पैसा भी तो भरना पड़ता होगा हर महीने...आख़िर चलते तो बिजली से ही हैं ये...और यहाँ तो महीने का किराया ही न दिया जा रहा हमसे खोली का।' सोचकर बबली का माथा तपने लगा। इधर दादी की बड़बड़ाहट जारी थी। बबली ने बबीता से सहारा देने का इशारा कर फ़्रिज कमरे के भीतर खिसकाना शुरू किया।

वह फ़्रिज अंदर कर वह बिस्तर पर पसर गई। उसकी सारी खुशी धूप में रखे कपूर की तरह उड़ कर छू हो चुकी थी। बूढ़ी दादी की बड़बड़ाहट अभी खत्म न हुई थी और न ही छोटी बहन की फ़्रिज को लेकर जिज्ञासाएं, जो प्रश्नों के रूप में रास्ता बना रही थीं। कहीं बाहर खेल रहा भाई गुड्डू इस नये आमद की ख़बर सुन दौड़ा चला आया था और फ़्रिज को यूँ देख रहा था जैसे नया व्यापारी तिजोरी देखता है। इस बीच मकान मालिक तक भी ये ख़बर गंध बनकर पहुँच चुकी थी। वह भी धड़धड़ाता हुआ कमरे में आ घुसा। फ़्रिज को निहारते हुए बोला-

'तुम लोगों से कमरे का किराया नहीं दिया जा रहा। कुल पाँच हज़ार रुपये हो चुके...और इधर मंहगे एसी-फ़्रिज खरीदे जा रहे हैं।' उसे शायद फ़्रिज मुफ़्त में मिले होने की ख़बर नहीं मिली थी। बबली ने ही कहा, 'अंकल, इसे मेरी मालकिन ने मुझे दिया है। उन्होंने नया फ़्रिज ले लिया है न, इसलिए।'

'मुझे इससे मतलब नहीं, मेरा किराया निकालो...या फिर दो महीने के किराए के बदले ये फ़्रिज मैं ले जा रहा हूँ। नहीं तो खोली खाली करनी पड़ेगी।'

मकान मालिक की बात सुन बबली के होश उड़ गये। मगर देने को पाँच हज़ार रूपये किराया तो सच में अभी उसके पास नहीं थे। दादी से भी बात छिपी तो थी नहीं। वह ही बोल पड़ी, 'अगर इससे किराया पट जाय तो लला ले जाव। का करेंगे हम इसका। हमें न पीबो है ठंडा पानी, हमें मटके का ही भलो।'

मकान मालिक ने फ़्रिज का उसके चारों ओर घूमकर मुआयना किया। उसे यह कहीं से भी पुराना न लग रहा था। उसने अंदाज़ा लगाया कि अब भी इसकी कीमत सात-आठ हज़ार से कम न होगी। 'पाँच हज़ार के बदले में ये घाटे का सौदा तो कतई नहीं है।' ये सोच उसने बगल के कमरों से दो किरायेदारों को बुला फ़्रिज उठवा लिया। बबली के मुँह से शब्द भी न फूट रहे थे। वह ऐसे ठगी हुई बैठी थी जैसे फसल तबाह होने पर किसान। जाते-जाते मकान मालिक ये भी बोल गया कि, 'अगले महीने से समय से किराया देना होगा, कोई छूट नहीं मिलेगी।'

कुछ भी हो दादी अब खुश थी। उसने पिछले डेढ़-दो घंटे सिर्फ़ ताने दिए थे बबली को। पर अब कहने लगी, 'ये भाग थे हमारे बिटिया, कि मालकिनी ने समान देइ के किराया चुकबा दियो। दू महीने का किराया निकल गयो। अगली बार बचत करौ सब मिलि के। जो होतो नीक खातिर होतो।...चलौ सब खाना खाव।'

दादी की आवाज़ में बड़ी ठंडक थी। गुड्डू और बबीता इतनी तेजी से चल रहे दृश्यों को सही ढंग से समझ ही नहीं पाये थे। पर उन्हें ये तो पता चल ही गया था कि उस सामान ने उन्हें खोली खाली करने से बचा लिया है। कुछ पल के बाद एक ठंडक बबली को भी अपने सीने में महसूस होने लगी। हालाँकि ये वो ठंडक नहीं थी जिसकी उसे चाह थी।

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