बुचिया - एक सच्ची प्रेरणा

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जीवनी
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बुचिया एक ऐसी औरत की कहानी है जिसका जन्म होने से पहले ही उसके सिर से पिता का साया छिन गया। दूसरी तरफ़ बुचिया कि माँ जो बहुत ही सौम्य और सरल स्वभाव की स्त्री थीं, जिन्हें दुनियादारी की ज़रा भी समझ नहीं थी। सच कहो तो वो थोड़ी बेवकूफ़ किस्म की अनपढ़ महिला थीं। अगर कोई किराना वाला बोलता दीदी आप के सामान के साढे़ छ: रुपये हुए, तो बुचिया की माँ बोलती, "हम तो इसका सात रुपये से एक भी रुपया ज़्यादा नहीं देंगें"। लेकिन इसमें बुचिया की माँ की गलती नहीं थी। उनका नाम "बंका जी" था। मात्र बारह साल में उनका विवाह हुआ था।


बुचिया के नानाजी और बुचिया के दादाजी को बंका जी और बुचिया दोनों की बहुत ही चिंता होती थी। नाना दादा ने मिलकर निर्णय लिया कि वे बुचिया को शिक्षित करेंगे जिससे को बड़ी होकर अपनी माँ का सहारा बने। लेकिन बुचिया का जीवन इतना सरल कहाँ था।


बुचिया के पिता दो भाई थे। बुचिया के पिता तो नहीं रहे पर चाचा का परिवार था। बुचिया की माँँ जितनी सरल थीं, चाची उतनी ही कपटी और चालाक। चाचा ठीक थे पर चाची के आगे चाचा की चलती कहाँ थी।


बुचिया बहुत संपन्न परिवार से थी लेकिन फ़िर भी अभावों के बीच पली बढ़ी। बुचिया के दादा जी ने बुचिया को किसी तरह आठवीं कक्षा तक पढ़ाया। अपने परिवार से और समाज से बुचिया के लिए लड़ते हुए बुचिया की शिक्षा पूरी करने की कोशिश करते हुए भी सिर्फ़ आठवीं कक्षा की ही पढ़ाई बुचिया पूरी कर पाई थी कि बुचिया की माँ ने बुचिया के विवाह की ज़िद ठान ली। आखिर बुचिया थी तो एक लड़की ही। बुचिया की चाची कभी भी नहीं चाहती थीं कि बुचिया ज़्यादा पढे़ लिखे या दुनियादारी सीखे। सो बुचिया की माँ को बुचिया के विवाह के लिए बहलाया और बंका जी मान भी गईं।


बुचिया का तेरह साल की उम्र में डाॅ देवानन्द पाठक से बहुत धूम-धाम से विवाह हुआ। बुचिया के बाबा-नाना ने बहुत सा सोना-चांदी, असली बनारसी साड़ी के साथ धूम-धाम से बुचिया को भीगी पलकों से विदा किया। बुचिया की शादी के लगभग दो महीने के अंदर दादा जी का देहान्त हो गया और हफ़्ते भर में नाना भी चल बसे।


उधर बुचिया ने न​ए परिवार में कदम रखा ही था कि डाॅ देवानंद के चाचा-चाची व ननद ने बुचिया क स्वागत किया। गृह-प्रवेश करते ही ननद ने फ़रमाइश कर के झुमके ले लिए। दूसरी ने बनारसी साड़ियां वगैरह। देवानंद की चाची ने कुछ गहने छोड़कर सब सोना-चांदी बुचिया को डकैती का डर दिखा कर ले लिया।


उधर मायके में दादा जी के बाद बुचिया की चाची घर की मालकिन बनी बैठी थीं। बुचिया के पति अभी पढ़ाई कर रहे थे। वो एक पशु वैज्ञानिक बनना चाहते थे। सो शादी के एक हफ़्ते बाद ही उन्होंने मथुरा में अपना काॅलेज शुरु कर दिया।


बुचिया ससुराल वालों की सेवा में जुट गई। चक्की चलाना, खाना बनाना, बर्तन वगैरह सब काम करने के बाद चाची के पाँव दबाना। देवानंद की माँ भी सौतेली थीं। तो उनका जुड़ाव चाचा-चाची से ज़्यादा था। पर चाची भी ठगते ही थे। देवानंद की चाची की केवल एक बेटी थी।


दो महीने बाद जब देवानंद घर वापस आए तो बुचिया ने आपबीती बताई। देवानंद ने सुनते ही निर्णय लिया कि आप हमारे साथ ही रहेंगी। अब हम आप को अकेला नहीं छोड़ेंगे यहाँ पर। और उसी दिन देवानंद ने अपनी पत्नी को एक नया नाम दिया "सुशीला पाठक"। जैसे ही देवानंद के चाची-चाची को पता चला कि सुशीला देवानंद के साथ जा रही हैं, तो उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गई क्योकि उनके दिमाग में एक तरफ़ "काम कौन करेगा" का प्रश्न था, तो दूसरी ओर "देवानंद की कमाई कैसे हड़पेंगे" का। सब पैंतरों के बाद भी जब देवानंद ने सुशीला को साथ रखने की बात कही तो चाचा-चाची ने सिर्फ़ एक कान की बाली और दो साड़ी मात्र देकर सुशीला को देवानंद के साथ विदा कर दिया। इस उम्मीद से कि पैसे का अभाव स्वयं सुशीला को वापस ले आयेगा।


इधर सुशीला ने तो मानो बरसों बाद खुलकर साँस ली थी। सुशीला और देवानंद ने अपनी दुनिया शुरू की और वापस मुड़कर न देखने का निर्णय लिया। बहुत उतार-चढ़ाव के साथ उन्होंने तीन बेटियों और एक बेटे को जीवन दिया। सुशीला केवल आठवीं पास थीं लेकिन उन्हें पढ़ाई का महत्त्व पता था। उन्होंने अपने चारों बच्चों को बहुत अच्छी शिक्षा प्रदान की। यहाँ तक कि उन्होंने अपने चाचा-चाची के बच्चों और देवानंद के सौतेले भाई-बहनों की भी हर प्रकार से मदद की। जीवन की इन्हीं उधेड़बुनों में सुशीला ने अपनी सेहत की तरफ़ ज़रा भी ध्यान नहीं दिया। मात्र 52 वर्ष की आयु में वो देवलोक चली गईं। आज उनके बच्चों के पास शिक्षा, साधन सब कुछ है। और ये सब कुछ सुशीला की सहनशक्ति, धैर्य और उदारता की वजह से।


बुचिया ने अपने जीवन में कई विदेश दौरे भी किये और वहाँ मुख्य अतिथि बनकर उन्होंने अंग्रेज़ी में भाषण भी दिया। बुचिया के नाम पर देवानंद ने पशु चिकित्सकों के लिए एक पुरस्कार रखा है जिसका नाम "सुशीला पाठक उत्कृष्टता पुरस्कार" है, जो छात्रों को उनकी सबसे अच्छी उप्लब्धि के लिए दिया जाता है।


बस, कहानी के इस अंश में इतना ही कहना है कि बेटा हो या बेटी, शिक्षित ज़रूर करें। धन-दौलत कोई भी छीन सकता है पर यदि व्यक्ति शिक्षित, सहनशील, धैर्यवान है, तो जीवन की शुरुआत किसी भी पल आत्मनिर्भर हो कर कर सकता है।

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