JUNE 10th - JULY 10th
कहानी - अधूरी कलम
“ माँ ! इन मोटी डायरियों के हर पन्ने पर कोई न कोई कविता , ग़ज़ल लिखी है ।पन्नों के पीलेपन और क्षत – विक्षत ज़िल्द को देखकर मालूम होता है कि डायरियाँ बहुत पुरानी हैं । हर रचना के नीचे पापा का नाम लिखा है। पापा कविता – गज़लें लिखते थे क्या ? “ , पंद्रह साल के आशीष ने आज घर की साफ – सफाई में माँ का हाथ बँटाया तो अलमारी में सबसे नीचे दबा – छिपाकर रखी इन डायरियों ने उसे उत्सुक किया और उसने तपाक से सफाई में व्यस्त माँ से ये सवाल पूछ लिया ।
अचानक अपनी तरफ आए इस सवाल से सुधा कुछ पलों के लिये अचकचा सी गई। दस साल पहले का वो अभागा दिन उसकी आँखों के कोरों पर नमी बनके छलक आया था।
“ तू बहुत सवाल पूछता है ...चल बंद कर अब ये सफाई – वफाई , दोपहर के एक बज गए हैं ...खाना नहीं खाना तुझे ? चल मैं खाना लगाती हूँ। “ , सुधा ने अपनी दिली बेचैनी को कड़े शब्दों में छुपाने की कोशिश करते हुए आशीष से कहा। माँ के लाडले आशीष ने भी अपने अनुत्तरित प्रश्न को किसी बीज सा मन में ही गाड़ लिया ।
करीब दस साल हो गये सुधा को आशीष के साथ जयपुर शिफ़्ट हुए । सुधा वैसे तो उदयपुर से है लेकिन सरकारी शिक्षक भर्ती में चयन के बाद उसकी नौकरी जयपुर में लग गई , तभी से वो यहीं अपने बेटे के साथ किराये के मकान में रहती है।
जयपुर ... अपनी अनमोल सांस्कृतिक विरासत को समेटे हुए , जितना ख़ूबसूरत परकोटे के भीतर बसा हुआ है , उतना ही ख़ूबसूरती से परकोटे के बाहर भी फैला हुआ है। परकोटे के भीतर वाले पुराने बसे जयपुर के लंबे – चौड़े बाज़ार , बहुत सी तंग गलियाँ ... बहुत पुराने बने हुये मकान – हवेलियाँ ... हर बाज़ार ... हर गली दिन – रात शोरगुल से अटे पड़े रहते हैं । एक गली की ख़बर दूसरी गलियों तक हवा सी बहती हुई हर कान तक पहुँच जाती है। गली – गली जितने घर उतनी कहानियाँ ...इन्हीं में से सुभाष चौक की किसी एक गली में रहते थे दोनों माँ – बेटे।
सुधा ...उम्र होगी कोई चालीस के करीब । पतली – दुबली मध्यम कद – काठी , गेहुँआ रंग , कुछ सफेद - कुछ भूरे अधकचरे से लंबे बाल जो अधिकतर जूड़े में बँधे रहते थे। देह पर लिपटी कॉटन की साड़ियाँ और अंगुलियों में तरह – तरह के स्टोन वाली अंगुठियाँ ज्योतिष में उसकी अभिरुचि की ओर इशारा करती थीं। उसकी आवाज़ का भारीपन चेहरे की सौम्यता के साथ तालमेल नहीं रखता था।
अभी कुछ दिनों से स्कूलों की गर्मियों की छुट्टियाँ चल रही थीं। जिस वजह से माँ – बेटे दोनों का ही स्कूल जाना नहीं हो रहा था ।आशीष जब छोटा था तो सुधा ने उसका दाख़िला अपने ही स्कूल में करवाया जहाँ वो पढ़ाती थी, पर थोड़ा बड़ा होने पर उसने उसे एक बड़े अंग्रेजी माध्यम स्कूल में डाल दिया ।
आज की रात सुधा के लिए बहुत लंबी और गहरी थी । आशीष बचपन से ही अपने पापा को लेकर कईं बातें ... कईं सवाल अपनी माँ से करता था , पर आज का सवाल ऐसा था जिसका जवाब सुधा देना ही नहीं चाहती थी । उसकी जिंदगी की काली स्याही आज फिर से उसके सामने आ गई जिसे उसने दबा – छिपाकर रखा था , डायरियों को सहेज इसलिये रखा था ताकि “मधुर “ के प्रेम को जीवित रखा जा सके ... मधुर का सच्चा प्रेम ये लेखन ही तो था जो सुधा को सौतन सा चुभता था।
मधुर ...सुधा के पति और आशीष के पिता ... आशीष छोटा था तभी वो ये दुनिया छोड़कर चले गए , उनकी मृत्यु का दोषी सुधा आज भी खुदको मानती है। मधुर जैसा नाम ठीक वैसे ही व्यक्तित्व वाले इंसान थे । हल्के घुँघराले भूरे बाल , गोरे – चिट्टे , अच्छी लंबाई वाला गठीला बदन , चेहरे पर सुनहरे फ्रेम वाला गोल चश्मा , कत्थई आँखें , संतुलित होंठों पर दिलभेदी मुस्कान और सौम्य जादुई आवाज़ , कलाई घड़ी का डायल नीचे की तरफ़ रखते थे हमेशा और उल्टे हाथ से लिखा करते थे... आशीष भी बहुत कुछ अपने पिता जैसा ही दिखता था।
मधुर को कविता – ग़ज़लें लिखने का शौक स्कूली दिनों से ही था । धीरे – धीरे ये शौक उसके लिए साँस लेने जितना ज़रूरी हो गया। । मधुर जब शादी के लिए सुधा को देखने गया था , उसने उसी समय उसे बता दिया था कि मुझसे शादी करने का मतलब है कि मेरी लेखनी को भी अपनाना होगा तुम्हें । सुधा भी कविताएँ , ग़ज़लें , गीत सुनने - पढ़ने की बहुत शौकीन थी और मधुर की बेहतरीन लेखन कला से प्रभावित होकर उसने शादी के लिए झट हाँ कह दी थी।
शादी के शुरुआती दिनों में सुधा को मधुर की कविताएँ , ग़ज़लें बहुत भाती थीं । लेकिन धीरे – धीरे मधुर का उससे ज्यादा लेखन को समय और तवज़्ज़ो देना उसे अखरने लगा। मधुर एक प्राइवेट दफ़्तर में क्लर्क था। बढ़ती हुई मँहगाई को देखते हुए उसकी तनख़्वाह बहुत ज्यादा न थी और आशीष के पैदा होने के बाद तो परिवार के ख़र्चे और भी बढ़ गए थे । रोज की आर्थिक खींचातानी और दफ़्तर से लौटने के बाद मधुर का अधिकतर लेखन में ही व्यस्त रहना सुधा को भीतर ही भीतर तोड़ देता। कभी – कभी वो इतना अवसादग्रस्त हो जाती कि मधुर को खरी – खोटी सुनाने लगती , “ जब तुमने कलम से ही शादी कर रखी थी तो मुझसे ब्याह रचाने की क्या ज़रूरत थी ? दफ़्तर से आते हो तो बस लिखने बैठ जाते हो ... छुट्टी के दिन भी किसी ना किसी कवि सम्मेलन में व्यस्त हो जाते हो ... आखिर मिलता ही क्या है ? कुछ सम्मेलनों को करने पर थोड़ी सी आमदनी और कभी – कभी तो वो भी नहीं मिलती सिर्फ तालियाँ और वाह -वाह ही मिलती हैं। मुझे नहीं तो कम से कम आशु (आशीष ) को तो भरपूर वक़्त दिया करो...घुटन होती है मुझे तुम्हारे साथ...”
“मुझे इतना कठोर मत समझो सुधा ! ...पर मैं क्या करूँ ... यदि दो दिन भी मैं नहीं लिखता हूँ तो मुझे बेचैनी होने लगती है , ऐसा लगता है मानो शब्दों -भावनाओं का विस्फोट हो जायेगा मेरे भीतर यदि मैंने उन्हें काग़ज़ पर नहीं उतारा ...” , मधुर का हर बार यही प्रतिउत्तर होता ।
बस यूँ ही मधुर और सुधा की गृहस्थी की गाड़ी घिसटती जा रही थी हर – रोज ...
यही सब सोचते – सोचते सुधा की पलकें भारी होने लगीं और नींद के झोंके ने उसे अभी अपनी गिरफ़्त में लिया ही था कि अचानक से उस दिन की कटु स्मृति ने उसके अवचेतन को जोर से झकझोर दिया। मधुर ! ... मधुर ! मुझे माफ़ कर दो ...मधुर ! ...मुझे छोड़ के मत जाओ ...गहरी पीड़ा में सुधा बड़बड़ाये जा रही थी ...तभी माँ की बड़बड़ाहट ने दूसरे कमरे में सो रहे आशीष की नींद खोल दी , माँ नींद में क्या बोल रही थीं सुनने में अस्पष्ट था किंतु वो तकलीफ़ में थीं इतना उसे ज़रूर समझ आ रहा था । वो तुरंत माँ के कमरे में पहुँचा और उन्हें आहिस्ते से उठाया ।
“ क्या हुआ माँ आप नींद में बड़ी परेशानी से कुछ बड़बड़ा रही थीं , कोई बुरा – डरावना सपना देखा क्या आपने ? “
“कुछ नहीं आशु... तू जाकर सो जा मैं ठीक हूँ” , सुधा ने एक बार फिर आशीष के प्रश्न को टाल दिया।
माँ को पानी का गिलास थमा आशीष अपने कमरे में सोने चला गया...
अगली सुबह कुछ अनोखी ही थी ... आज सुधा की नींद घड़ी के अलार्म या चिड़ियों की चहचहाहट से नहीं खुली बल्कि आशीष की मीठी गुनगुनाहट ने उसे विस्मित कर उठाया। आशीष गायन में बहुत ही अच्छा था और विभिन्न गायन प्रतियोगिताओं में कईं ईनाम जीत चुका था । आशीष के हाथ में उसके पापा की डायरी थी और स्वरों में मधुर की कोई ग़ज़ल ढल चुकी थी आज । आशीष की गायकी और मधुर की ग़ज़ल का साथ ऐसा था कि आसमान में सूरज अपना सिन्दूरीपन छोड़कर पीला होना ही नहीं चाहता था। पूरी प्रकृति में एक ठहराव सा आ गया था कुछ क्षणों के लिए।
...मधुर ने बहुत कोशिश करी थी स्वप्न और सच के मध्य संतुलन बिठाने में , लेकिन हर बार उसने अपने लेखन के साथ पारिवारिक ज़िंदगी को संतुलित करके चलने में खुदको संघर्षरत ही पाया। मधुर का ये संघर्ष अंततः उसे आत्महत्या की दहलीज़ तक ले गया , जिसका दोषी सुधा कहीं ना कहीं आज भी खुद को मानती थी ।
“ क्या हुआ आशु रुक क्यों गये ? ”, माँ को अचानक सामने पाकर आशीष ठिठक सा गया था और उसने गाना रोक दिया ।कल जिन डायरियों के सवाल पर माँ ने कोई उत्तर ना दिया , आज उनमें लिखी इस ग़ज़ल को मेरे सुरों में सुनकर माँ कैसी प्रतिक्रिया देगी ... ये सोचकर वो सहमा जा रहा था कि तभी सुधा ने उसकी बाईं हथेली को अपनी दाईं हथेली पर रखा ...
“ आशु ! मुझसे वादा कर कि तू अपने पापा की सारी ग़ज़लों – कविताओं को अपने सुरों में फिर से ज़िंदा करेगा ... मधुर तो अब नहीं आ सकते वापिस पर उनकी रचनाएँ सदा हमारे साथ रहेंगी...”
“ माँ ! मैं सब महसूस कर सकता हूँ , जो आप कहती हैं वो भी और जो नहीं कहतीं वो भी ...अब कुछ भी अधूरा नहीं रहेगा ... ना पापा की यादें और ना उनकी ... ’अधूरी कलम ’ ...”
**समाप्त **
कहानी लेखिका - © ® शिवांगी शर्मा (Shivangi Sharma)
✍️स्वरचित , मौलिक, अप्रकाशित व सर्वाधिकार सुरक्षित कहानी
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gyaparsad25
Super
priyankabind817
Super story
shikharawat1980
Sundar kahani
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