JUNE 10th - JULY 10th
“ वसीयत ”
-डॉ. श्रीमती मंजुला जोशी
28, सांईनाथ कॉलोनी, बड़वानी म.प्र.
मो0 9425981708
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सुबह मोबाइल की घंटी के साथ मेरी नींद खुल गई । इतनी सुबह किसका फोन होगा ? आवाज गोदावरी बुआ की थी, वसुधा बेटा तुम कल वृद्धाश्रम में आ जाना, क्यों? मुझे वसीयत करना है । मुझे हंसी आ गई, बुआ को अब किस मूल्यवान वस्तु की वसीयत करना है! बुआ के पास धन-संपत्ति तो कुछ है नहीं, जो वसीयत करें। फालतू में वकील सौ-पचास ले लेगा, अरे! नहीं तुम आ जाना, ‘मैंने कहा हाँ, आ जाऊंगी!’
गोदावरी बुआ लंबे समय से हमारे मोहल्ले में रह रही थी। गोदावरी बुआ उम्र में पिताजी से बड़ी थी, अत: पिताजी ‘जीजी’ कहते और हम ‘बुआ’ बस कहने को यही रिश्ता था। बुआ के साथ रहते हुए मैंने बुआ के अच्छे बुरे समय को और बुआ के धैर्य को अपनी आँखों से देखा। फूफा जी कलेक्टर कार्यालय में लिपिक के पद पर पदस्थ थे। वे बेहद ईमानदार, अनुशासनप्रिय, समय के पाबंद व्यक्ति थे। बस वैसा ही स्वभाव बुआ जी का भी था, बहुत विनम्र दयालु हँसमुख और परोपकार करने में सिद्धहस्त थी।
मोहल्ले का कोई भी कार्यक्रम हो खुशी का या दुख का, घूमने-फिरने का या पार्टी-पिकनिक का बुआ जी सबसे आगे रहती, जितनी खुशमिजाज उतनी ही चिंतनशील, नर्मदा स्नान करने जाना, तट पर बैठना, बतियाना उन्हें अच्छा लगता था। मैं प्रायः बुआ के साथ होती क्योंकि मैं उनकी मानस पुत्री थी। जितना वे मुझे चाहती थी उतना ही मेरा मन भी बुआ में रमा रहता। एक दिन मुझसे कहने लगी वसुधा यह तट मुझे लुभाता है क्योंकि एक और नर्मदा नदी का प्रवाह जीवन और गतिशीलता का प्रतीक है। वहीं दूसरी और मानव की ‘अंत्येष्टि’ जीवन का अंतिम सत्य बस यही समझ ले आदमी तो जीवन की नैया पार हो जाय। बुआ का चिंतन ऐसे ही चलता रहता, किंतु समय तो कभी एक-सा नहीं रहता।
पिछले वर्ष मई में बुआ के बड़े बेटे का विवाह हुआ विवाह के दूसरे ही महीने में बेटे ने अलग घर बसाने की घोषणा कर दी। बुआ तो चुप रह गई; किंतु फूफाजी इस बात को बर्दाश्त ना कर सके। दूसरे बेटे की शादी के पन्द्रह दिन बाद ही उनका देहांत हो गया। थोड़ी-सी पेंशन में बुआ ने अपने चारों बेटों को पढ़ाया-लिखाया, नौकरी से लगाया और शादी-ब्याह भी करें। दो तो पहले से ही नौकरी पा गए थे। बाकी चारों ने भी अपनी अम्मा का साथ विवाह होने तक रखा और सब अपनी-अपनी पत्नी के साथ चले गये।
बुआ के पास खुद का घर तो था नहीं किराए के मकान में अकेली कब तक रहती बहू बेटों से मिन्नत की ‘मुझे भी अपने साथ रख लो, लोग क्या कहेंगे घर की इज्जत खराब हो जाएगी’ पर किसी ने नहीं सुना, सब चले गए। कुछ दिन बुआ अकेली मन ही मन घुटती रही, फिर एक दिन बिना किसी को बताए वृद्धाश्रम का पता लगाकर कहीं चली गई। सब अलग-अलग बातें करते बुढि़या भाई के घर गई होगी या बेटे के घर गई होगी या कहीं और! जब से बुआ गई जैसे मोहल्ले की रौनक ही चली गई ‘ओटला मीटिंग’ तो लगभग बंद हो गई।
बहुत दिनों के बाद बुआ की चिट्ठी आयी। जिसमें वृद्धाश्रम के साथियों एवं उन सब से अपने संबंधों का वर्णन किया था और अपनी दिनचर्या की जानकारी के साथ-साथ मोहल्ले के सभी लोगों को याद किया।
चिट्ठी सब ने ऐसे पढ़ी जैसे कृष्ण की पाती गोपियों ने पढ़ी हो, रो-रोकर सबका बुरा हाल था, पर ऐसे रोने से पिछला सब लौट आता तो रोना भी सुखकर हो जाता, पर ऐसा होता नहीं। यह तो जीवन है, जहाँ पाना-खोना, मिलना-बिछड़ना चलता ही रहता है और हम भी धीरे-धीरे सब भूलने लगते हैं। यही शाश्वत सत्य है।
मैं भी शादी के बाद अपने घर परिवार में रम गई, कभी कोई चीज बनाते नहीं आती तो सोचती गोदावरी बुआ होती तो कहती ‘ चल मैं अभी बना दूंगी ’ तुमने बताया क्यों नहीं? बुआ को याद करते-करते मैं सो गई। तभी दरवाजे पर घंटी बजी, बुआ जी का पत्र था ‘ मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती वसु तू आजा ’ मैंने सोचा जब कभी इंदौर जाऊंगी बुआ से मिलकर आऊँगी पर कहते हैं ना ‘गृह कारज नाना जंजाल’ बस उसी में मैं उलझी रह गई और बुआ जी से मिलने नहीं जा पायी।
अबकी बार बुआ जी की चिट्ठी नहीं फोन आया वसुधा! तू आई नहीं, मुझे वसीयत करना है। मैंने कहा हां बुआ इस रविवार में आ जाऊंगी। इस सोमवार को मैं तुम्हारी वसीयत करा दूंगी, कल मेरी बड़ी बेटी की परीक्षा है इसलिए मैं नहीं आ रही हूँ । बुआ से बात कर मेरा मन प्रफुल्लित था कि वह स्वस्थ है। अगले दिन रविवार था बुआ के पास जाना था सुबह जल्दी उठी जाने की तैयारी करने लगी तभी फोन की घंटी बजी फोन वृद्धाश्रम के मैनेजर साहब का था। किसी पुरुष की आवाज थी ‘हेलो आप वसुधा जी बोल रही हैं’ मेरे जवाब की प्रतीक्षा किये बगैर उन्होंने कहा ‘ गोदावरी जी नहीं रही, आप वृद्धाश्रम आ जाइए। ‘ मेरी समझ में नहीं आया, बुआ जी का देहांत हो गया और छ: बेटों में से किसी एकी की भी इच्छा नहीं हुई मृत माँ को घर ले जाने की मृत देह इनके घर कितने घंटे रहती और इनका क्या बिगाड़ती कैसे निष्ठुर बच्चे हैं ; भगवान बचाए ऐसे बच्चों से और भी ना जाने क्या-क्या चल रहा था मेरे मन में, मैं रोती-बिलखती वृद्धाश्रम पहुंची मैनेजर साहब ने मुझे एक चिट्ठी दी और फिर ‘अंत्येष्टि‘ के पूर्व बुआ की वसीयत पढ़कर सुनाई ‘ मेरी मृत्यु होने पर मेरे पुत्रों को सूचना दी जाये किंतु मेरी अंतिम क्रिया (अंत्येष्टि) करने का अधिकार मेरे किसी भी पुत्र को नहीं होगा मेरी ‘अंत्येष्टि’ का अधिकार वृद्धाश्रम के मैनेजर साहब को होगा जिन्होंने लगभग 8 से 10 वर्ष तक मेरी देखभाल की, मेरी बीमारी-तिमारी में सेवा की इसलिए यह वृद्धाश्रम ही मेरा असली घर है और मैनेजर साहब ही मेरे पुत्र! अतः इस अभागी मां की अंत्येष्टि का अधिकार भी उनका ही होगा। यही मेरी आखिरी वसीयत है। मेरे पास धन संपत्ति तो कुछ नहीं किंतु आशीर्वाद का धन ईश्वर मैनेजर साहब को सौ गुना दे, यही प्रार्थना इस मां की ।
- तुम्हारी गोदावरी बुआ
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karmasushil459
Bahut badiya kahani hai
us76977
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shikh.indore
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Thank you for taking the time to report this. Our team will review this and contact you if we need more information.
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