JUNE 10th - JULY 10th
कहानी उन दिनों की है जब प्रयागराज, इलाहाबाद हुआ करता था। इलाहाबाद भी पुराने वाला। जब गंगा मईया के मैदान में दुकानें नहीं लगती थी और वाराणसी नहीं बल्कि इलाहाबाद ही 'लखनऊ' होता था। तब 'दिल्ली' इलाहाबाद में रहती थी और 'इलाहाबाद' पूरे देश में।
पुरबा इलाहाबाद में ही था। यह और बात है कि इलाहाबाद को पता नहीं था। पुरबा छोटा और ख़ूबसूरत था। अलग-अलग जातियों के अलग-अलग टोले नहीं थे। सभी जातियों के घर थे-एक साथ या दूर-दूर।
पुरबा में ही रहते थे कामता प्रसाद। कामता प्रसाद का एक परिचय यह भी है कि वह अवनी के पिता हैं। हालांकि कामता ने खुद को हमेशा अवनीश का पिता माना है।
वो भादों की अंधेरी रात थी। इलाहाबाद पानी में डूबा था। कामता की झोपड़ी में भी पानी की बूंदे गिर रही थी।
'कई दिन हो गए रज्जो को 9 महीने पूरे हुए। अबतक कुछ नहीं हुआ। आज की यह मनहूस रात और कट जाए।' 5 वर्ष के अवनीश के साथ झोपड़ी के आगे वाले हिस्से में लेटे कामता प्रसाद विचारों में खोए हैं। शाम से दर्द हो रहा है। आज ही बच्चा हो जाएगा? ऐसी काली बरसाती रात में कैसे कुछ होगा? जनेऊ को पकड़कर, आँखें मूंदकर गंगा मईया से मिन्नतें करने लगते हैं।
"क्या करें? पुरबा में कोई अस्पताल भी नहीं है। सरकारी-निजी कोई नहीं। पुरबावासी तो डॉ. झा से दवाई लेते हैं। सर्दी, बुखार, खाँसी, हैजा, मलेरिया की। पुरबा के आसपास के किसी भी गाँव में अस्पताल नहीं है।" उन्हें पंडित जी पर गुस्सा आने लगा। "सभी अस्पताल इलाहाबाद में ही बनवा दिए हैं। दिल्ली से आनंद भवन तक ही तो आते हैं वो।"
आह! ऐसी चीख़ें कि दिल छलनी हो जाए। रज्जो झोपड़ी के पिछले हिस्से में मुंजा घास की टूटी खटिया पर पड़ी है। छोटे-छोटे बाल हैं रज्जो के- ज़्यादा छोटे नहीं हैं, लेकिन इतने छोटे हैं कि छोटा कहा जा सके। काले बालों के बीच कुछ सफेद बाल भी दिख जाते हैं। हल्के पनीले रंग की पुरानी धोती शरीर पर पड़ी है। यह कहना झूठ होगा कि पहनी है। ब्लाउज में छह काज हैं और तीन बटन। तीन में से दो बटन खुले हैं। बीच का बटन लगा है।
पीड़ादायक चीख़ की एक और लहर। रज्जो ने अपने शरीर के निचले हिस्से को उठाया। टाँगों को टूटी खटिया की पाटी में फंसा दिया। वह ज़ोर से चीख़ रही थी। अथाह दुःख लिए असहाय चीख़ें झोपड़ी के सन्नाटे को चीरती हुईं बाहर निकल गईं। शापित चीख़ों को किसी ने नहीं सुना। बारिश के साथ धुलकर अंतत: उन्होंने दम तोड़ दिया। रज्जो पछाड़ खाकर, निढाल खटिया पर गिर पड़ी।
सृजन की पीड़ा- आह! अथाह तक़लीफ़। सृजन का दर्द ऐसा दर्द है जिसे पुरुष जाति कभी भी महसूस ना कर पाने के लिए अभिशप्त है। चंद्रकांत देवताले याद आ गए-
"याद मत कर अपने दु:खों को
आने को बेचैन है धरती पर जीव
आकाश पाताल में भी अट नहीं सकता
इतना है औरत जात का दु:ख
धरती का सारा पानी भी धो नहीं सकता
इतने हैं आँसुओ के सूखे धब्बे"
सुबह के 6 बजे होंगे, नहीं 6 बजकर कुछ मिनट भी हुईं होंगी। कामता की आँखें खुली। बारिश बंद हो गई, बूँदें गिर रही थी। गलियों में आ-जा रहे लोगों की आवाजें आ रही थी। लेकिन रज्जो....रज्जो की आवाज नहीं आती थी। कामता ने कदम बढ़ाकर पीछे के हिस्से में देखा और उल्टे पैर वापस भागा। 'गेंदा, चलो तो। रज्जो की तबियत सही नहीं है। रातभर उसके दर्द हुआ है।'
गेंदालाल उठा, अंदर गया और लक्ष्मी के साथ लौटा। कामता, गेंदालाल और गेंदालाल की पत्नी लक्ष्मी झोपड़ी के अगले हिस्से में घुसे, पिछले हिस्से में पहुँचे। घास-फूस की छोटी-सी झोपड़ी, दोनों तरफ़ कच्ची मिट्टी की दीवार पर टिकी है। दीवार से चिपके हुए ज़मीन पर दरी बिछी है। दरी पर एक औरत बिछी है। औरत रज्जो है। रज्जो की बाहों में ब्लाउज फंसा हुआ दिख रहा है। शरीर पर कोई कपड़ा नहीं है। लक्ष्मी ने पास में पड़ा एक चिथड़ा उसके ऊपर डाल दिया। तभी लक्ष्मी की निग़ाह रज्जो के पैरों की तरफ़ गई। उसके पैर लाल हैं- ख़ून से। पैरों के नीचे की ज़मीन लाल है। लक्ष्मी ख़ुद भी लाल ज़मीन पर खड़ी है। ध्यान केंद्रित करने पर प्रतीत होता है कि झोपड़ी के कोने में कुछ रखा है। गेंदा दंपती ने नज़दीक जाकर देखा। कोने में तह करके एक पेटीकोट रखा है। पेटीकोट के ऊपर एक बच्चा है। रज्जो ने बच्चे को जन्म दिया होगा। यहाँ संभालकर रख दिया होगा और फिर मर गई होगी। लक्ष्मी ने उस बच्चे को उठा लिया।
बच्चे की साँसें चल रही थी यानी ज़्यादा देर नहीं हुई है रज्जो को मरे हुए। लक्ष्मी ने जैसे ही बच्चे को नहलाने के लिए गुनगुना पानी डाला। बच्चा चीख़ मारकर रोया। लक्ष्मी ने कहा, "चलो, बच्ची तो ठीक है।" यह शब्द कामता के कान में भी पड़े। 'बच्ची तो ठीक है।' कामता को पहला विचार आया- लड़की है। कामता को दूसरा विचार आया- आते ही रज्जो को खा गई।
18 साल बाद
उस रात को 18 साल गुजर गए। कामता की कमर झुक गई। हाथ में लाठी आ गई। सिर के बाल गिर गए। खाल लटक गई। हाथ-पैर समेत जहां भी शरीर में नसें हैं, फूल गईं। गाल पिचक गए। अब अवनीश 23 वर्ष का युवा था। अवनी 18 की। रज्जो-सा गोरा रंग। बड़ी-बड़ी आँखें। छोटे बाल- ज्यादा छोटे नहीं, लेकिन इतने छोटे कि उन्हें छोटा कहा जा सके। हाव-भाव में स्थिरता। बात करने में ठहराव।
अब अवनी और कामता इलाहाबाद शहर के एक गाँव में रहते थे। उसी मोहल्ले में रहता था विनोद। पूरा नाम विनोद झा। पिता, PWD में बाबू। माँ, स्कूल में अध्यापक। परिवार बिहार के दरभंगा से आकर बसा था। अवनी, विनोद के घर काम करती थी। विनोद को अवनी पसंद थी। वो अक्सर ही चुपके से अवनी को देखा करता था। "कल संगम पर मैं तुम्हारा इंतजार करूँगा।" एक दिन मौका पाकर उसने अवनी से कह दिया।
कामता ने कमरे के पीछे एक छप्पर डाल लिया था। छप्पर के बीचों-बीच बाजरे की ठठेरी से एक टटिया बनाकर खड़ी कर दी थी। एक तरफ कामता पड़ा रहता। दूसरी तरफ अवनी बैठती। विनोद के घर से आकर वो यहीं बैठी थी। आज उसे कुछ अलग-सा महसूस हो रहा था। कहीं से एक आवाज़ आई- सुख।
"कुछ पैसे भिजवा दो बेटा।" इसके बाद टटिया के उस पार से कोई आवाज़ नहीं आई। 'बेटा' ने फ़ोन काट दिया। "पैदा होते ही माँ को खा गई। जब से आई है उसी दिन से जीवन बर्बाद हो गया।" अपनी तरफ बैठी अवनी सब सुन रही थी। बचपन से सुनती आ रही है। वो चाहती थी कि दहाड़ें मारकर रोए- इतनी तेज़ रोए कि पूरा इलाहाबाद उसकी चीख़ें सुने। इतनी तेज ही वो रोती थी, लेकिन अपने अंदर। पलकों की कोरों पर आँसू की एक बूँद नहीं। बहादुर थी- रज्जो-सी। थोड़ी देर बाद उठी और कामता की खटिया पर हमेशा की तरह पैसे रख आई। अवनी के लौटने के बाद कामता उठा और हर बार की तरह पैसे अपनी जेब में रख लिए।
"संगम पहली बार आई हो?" हाथ में रेतीली बालू पकड़े हुए विनोद ने कहा।
"हाँ।"
"तुम संगम से भी ज़्यादा सुंदर हो। तुम्हारा चेहरा इस रेत-सा शांत और निर्मल है। तुम्हारे बाल गंगा की धारा-से ख़ूबसूरत।" इतना बोलकर अचानक विनोद रुक गया। सोचने लगा, "वो क्या बोल रहा है? धत्त!"
"विनोद बाबू! जीवन इन ख़ूबसूरत-सी बातों से इतर होता है। जीवन इस जल की तरह होता है- जहाँ इसे डाल दिया जाएगा- वहीं का लोग इसे बताएँगे। अभी संगम में बह रहा है तो पवित्र गंगा मईया का जल है लोग आचमन करते हैं। यही जल नाले में डाल दें तो लोग इससे दूर भागेंगे- जबकि जल तो वही है।" गंगा के पवित्र जल को हथेली में भरते हुए अवनी बोली।
"मैं कुछ समझा नहीं।"
"मैं तुम्हारी नौकर हूँ। तुम्हारे घर झाड़ू-पोंछा लगाती हूँ। खाना बनाती हूँ।" अवनी रुक गई।
बहुत देर तक कोई शांति तोड़ने की हिम्मत ना कर सका। बादल घिर आए। एकाध बूँद भी दोनों के ऊपर गिर जाती।
"तुम मुझे अच्छी लगती हो अवनी।" विनोद ने गतिरोध तोड़ा।
"विदा का वक्त है।" विनोद कुछ समझ पाता। उससे पहले ही अवनी उठ गई। बारिश तेज हो गई। रेत में उसके पैर धंस रहे हैं। आँसू निकल रहे हैं। बारिश में भी आँसू दूर से दिखाई पड़ते हैं।
'विनोद से मैं क्यों विदा बोल आई?' संगम के घटनाक्रम के बारे में सोचते वक्त अवनी के सामने अवनीश आ जाता है। अवनीश की अधेड़ उम्र की औरत आ जाती है। कामता की चीख़ें-लातें-घूसे-डंडे आ जाते हैं। हर तरफ से आवाज़ें ही आवाज़ें। मानो आवाज़ों का हमला हुआ हो। वो कान बंद कर लेती है। बंद आँखों से भी आँसू बह रहे हैं। कौन-से दुःख के यह आँसू हैं- पता नहीं। कितनी बड़ी त्रासदी है कि आँसू किस दु:ख में निकल रहे हैं यह भी नहीं पता। अवनी आँखें खोलती है, अब आवाज़ों की बजाय दृश्य उसके सामने चलने लगते हैं।
वो पांच या फिर छह वर्ष की है। कामता उसे पीट रहा है। याद रह जाने का सिलसिला यहीं से शुरू हुआ। दृश्य बदल जाता है। कामता अब डंडे से उसे पीट रहा है। दृश्य बदल जाता है। कामता लातों से उसे पीट रहा है। पूरा मोहल्ला खड़ा है। मारते-मारते कामता कहता है, "पैदा होते ही रज्जो को खा गई। तू खुद क्यों नहीं मर गई?" दृश्य बदल जाता है। कामता उस पर चीख़ रहा है, अब वो 17 साल की है। दृश्य बदल जाता है। अब कामता उससे कुछ नहीं कहता। अवनीश, शराबी हो गया है। कामता फूल बेचने जाता है और आकर पड़ा रहता है। अवनीश पैसे छीन ले जाता है। दृश्य बदल जाता है। अवनीश, अपने पिता को पीट रहा है। शराब पीकर आया है। कामता की गर्दन हाथों में दबाकर उसकी पीठ पर कोहनी से मार रहा है। मोहल्ले के लोग खड़े देख रहे हैं। कामता उसके हाथों से छूटने के लिए छटपटा रहा है, लेकिन छूट नहीं पाता। अवनी, अवनीश को धक्का देकर कामता को छुड़ाती है। कामता खींचकर अवनी को थप्पड़ मारता है। 'तू रज्जो को ना खा जाती...।'
दृश्य बदल जाता है। उसे एक आवाज़ सुनाई दे रही है। अहसास होता है, यह आवाज़ उसके बीते हुए कल से नहीं बल्कि आने वाले कल से आ रही है। आँखें खुल जाती हैं। पत्थर आँसुओं से गीला हो गया। 'अवनी।' विनोद सामने खड़ा है, संगम से सीधा आया है।
"हमारे चयन ही हमारे भविष्य का, हमारे जीवन का फैसला करते हैं अवनी। मैं कुछ दिनों में चला जाऊँगा। दिल्ली। एक अख़बार को मेरे लेख पसंद आते हैं। वहीं, नौकरी करूँगा।" अवनी के साथ चलते-चलते विनोद कहता है।
"चयन करने की आज़ादी भी सबको नहीं मिलती। सबके हिस्से में नहीं होता फैसले करने का हक़ होना। सभी तय नहीं करते अपना जीवन, ख़ासतौर से लड़कियाँ। तुम जाओ विनोद। तुम जाओ और बड़े बनो।"
"अवनी, जीवन अपनी तमाम क्रूरताओं के बाद भी ख़ूबसूरत है। तुम क्यों इसे बर्बाद करने पर तुली हो। मैं सिर्फ़ इसलिए तुमसे यह सब नहीं कह रहा हूँ क्योंकि मैं तुम्हें चाहता हूँ बल्कि इसलिए कहता हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि तुम यहाँ के लिए नहीं बनी हो।"
"जानते हो! गेंदालाल चाचा कहते हैं कि मैं अपनी माँ की तरह दिखती हूँ। मैंने माँ को कभी नहीं देखा। लेकिन वो कहते हैं कि बिल्कुल तुम्हारे जैसी थी तुम्हारी माँ। वो कहते हैं कि तुम्हारी माँ ने बहुत दर्द सहा। पूरी रात अकेले तड़पती रही। दर्द से कराहती रही लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। सृजन की असीम पीड़ा झेली, लेकिन तुम्हें इस पृथ्वी पर लेकर आई। वो कहते हैं कि उस रात बहुत बारिश हुई थी। सुबह जब वो झोपड़ी में पहुँचे तब तक मेरी माँ मर गई थी और मैं एक कोने में पड़ी थी- जिंदा। वो कहते हैं कि उन्होंने तुम्हें चुना, ख़ुद को मारकर। वो कहते हैं..." वाक्य पूरा किए बिना अवनी फ़फ़क-फ़फक कर रो पड़ी। विनोद के सीने से चेहरे को चिपका लिया। विनोद चुप रहा। अवनी रोती रही। रोती रही।
"कब चलना है।" विनोद के सीने से हटते हुए अवनी ने कहा।
"हम दोनों चले आए।" वसंत विहार के घर 'संगम कुटीर' में बैठी हुई अवनी ने अपनी बेटी से कहा।
"माँ, कामता नाना अब कहाँ हैं?"
"तुम पेट में थी, जब उनकी ख़बर मिली।"
"रज्जो, चलो स्कूल का टाइम हो गया है।" विनोद की आवाज़ आई।
"माँ, अब मैं आपसे कभी नहीं कहूँगी कि मेरा नाम रज्जो क्यों रखा? मेरा नाम बहुत ख़ूबसूरत है।"
"हाँ, तुम्हारी तरह।"
कहीं दूर से गेंदालाल की आवाज़ अवनी कानों में गूंज गई।
"तुम्हारी माँ, बिल्कुल तुम्हारे जैसी दिखती थी।"
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minakshibisht456
Very very sad and nice story
omimaletha3456
Story is good.
ashasingh0554
Nice story
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