JUNE 10th - JULY 10th
सतरंगी फिरकियाँ
ईंट की बनी पुरानी दीवारों में पड़ी संकरी दरारों के बीच स्वेच्छा से उगी जंगली पत्तियाँ, बीते सवेरे की नर्म धूप और आने वाली शीतल संध्या के बीच, जलती दोपहरों की गर्म लू में फड़फड़ा रहीं हैं। दीवारों पर ऊपर-नीचे बने चार छोटे झरोंखों से भीतर जाती सूरज की रोशनी में सामने की दीवार पर फड़फड़ाती पत्तियों की एक बेरंग आकृति बन रही है। इस रोशनी में किसी की नन्ही उँगलियों से बनती कुछ और भी आकृतियाँ हैं। कभी लम्बे कानों वाला खरगोश उछल कर जंगली पत्तियाँ ढूँढ़ता है, तो कभी दोनों अंगुठे जोड़कर बनी कोई काल्पनिक रंगीन तितली उस नन्हे बालक की कल्पना के आसमानों में ओझल हो जाती है।
चावल-गेंहूँ-चीनी आदि जैसी खाद्य-सामग्रियों से लदी बोरियों के बीच दीवार पर गिरती रोशनी में परछाईंयों से खेलता बालक, बट्टू है। हर वर्ष हजारों की संख्या में नगर के तीर्थ स्थल पर आए श्रद्धालुओं में प्रसिद्ध ढाबे के भंडार का यह सात बट्टे सात का कमरा है, जहाँ बट्टू ढाबे के संचालन में अपना यथाकथित महत्वपूर्ण योगदान देकर आलस और थकान से कब सो जाता है, यह उसे भी ज्ञात नहीं। ढाबे पर उसका योगदान इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उससे वहाँ हर प्रकार की सेवा ली जा सकती है - फिर चाहे वह जूठे बर्तन मलना हो या खाने की मेज़ों की सफ़ाई। ऊपर से उस पर, किसी पर का भी-किसी बात का भी क्रोध निकाला जा सकता है - उसे प्रशंसा-निंदा की समझ नहीं। और हो भी कैसे कुल सात-वर्ष का ही तो है-बट्टू। उसे तो बस इतनी समझ है कि यदि पूरे दिनभर में एक बार भी किसी ने बातें नहीं सुनाई तो उस रोज़ उसे पूरा भोजन मिलेगा।
हर रोज़ ढाबे पर कई प्रकार के ग्राहक आते हैं - कुछ नियमित तो कुछ तीर्थ स्थल के दर्शन हेतु। कोई प्रवासी है तो कोई पाक-कला से अनभिज्ञ। वैसे तो ढाबे पर काम करने वाले दो और व्यक्ति हैं परंतु ढाबे के मालिक का उनपर अधिक नियंत्रण नहीं। वे समझदार हैं और अपने हित-अहित से परिचित। इधर मालिक की एक बात सुनी और उधर काम छोड़ने की चेतावनी। तनख्वाह भी तय है-न एक रुपया इधर ना उधर। लेकिन यह नियम बट्टटू पर लागू नहीं होते-बिना किसी तनख्वाह के सारा दिन ढाबे पर एक मेज़ से दूसरी पर दौड़ना, इनाम में कभी ग्राहक की चार बातें सुनना तो कभी मालिक की और आखिर में यदि ढाबे पर ग्राहकों की अधिक भीड़ न होने से थोड़ा भी भोजन मिल जाए तो मालिक भला व्यक्ति है।
दिन का सूरज टुकड़ो में पवित्र भार्गवी नदी में समाहित हो रहा। निकट के मंदिर में संपूर्ण होती आरती के स्वर के साथ बीच-बीच में तेज़ी से बजते मंदिर के घंटे की ध्वनि सहित श्रद्धालुओं के जयकारे सुनाई देते हैं। पूजा के संपूर्ण होते-होते उत्साह अपनी सीमा तक पहुँच जाता है - अब न जाने यह उत्साह भक्ति के प्रति है या आरती के पश्चात मंदिर के प्रांगण में वितरित होती शुद्ध खीर के प्रसाद के प्रति! आज अप्रैल माह के अंतिम सप्ताह का अंतिम दिन है- और हर वर्ष की तरह ही तीर्थ स्थल के वार्षिक मेले का पहला दिन। हर दिशा में आकाश से उतरे इद्रधनुष के रंग बिखरे हैं - कहीं सतरंगी चूड़ियाँ तो कहीं रंग-बिरंगे वस्त्रों का अंबार। एक ओर तरह-तरह की रंगीन पतंगे हैं तो दूसरी ओर वायु की गति पर चकरी खाती इंद्रधनुषी फिरकियाँ। फिरकियाँ! वैसे तो एक रंग, दो या तीन रंगों की भी है, लेकिन ना जाने क्या विशेष है इन सात रंगों में- पहाड़ों का बैंगनी मौसम, नील की खेती, नभोनील स्याही, वर्षा के पश्चात गाँवों की हरितिमा, खिलखिलाता वसंत, भार्गवी में डूबता संध्या का सूरज या शीतकाल की भोर में जासवंत की पंखुडि़यों पर गिरे तुहिन-कण! वायु की गति से जब यह सतरंगी फिरकियाँ पूरे उत्साह से घूमती है तो इसके भीतर जाती सूरज की किरणों से समय-समय पर इंद्रधनुषी आकृति बनती है - बट्टू की आकृतियों से बिलकुल भिन्न। इनमें रंग हैं।फिरकी वाले बूढ़े का मुख सामने से आते ग्राहक को देख इस प्रकार खिल गया है जैसे किसी स्थिर वृक्ष पर वायु का मंद स्पर्श। अपने पिता के ज़री के काम वाले कुर्ते के एक कोने को तेज़ी से पकड़े सात-आठ वर्ष का यही बालक सतरंगी फिरकियों का ग्राहक है। अपने संपन्न पिता के बड़े प्यार से उसकी पसंद पूछने पर वह सतरंगी फिरकियों की ओर संकेत करता है- बूढ़े को उसकी फिरकी की मनचाही कीमत मिलती है और बिना किसी देरी के बालक के मुख पर इंद्रधनषी चमक लाने वाली फिरकी, उसके हाथों में होती हैं।
सवेरे से ढाबे पर मेले की चकाचौंध के कारण काफ़ी भीड़ रही है। एक से दूसरी फिर तीसरी और बाद में फिर पहली मेज़ पर दौड़ता बट्टू थक चुका है। और अब ढ़ाबे का चौआलीसवाँ ग्राहक भी आ चुका है। दाएँ की मेज़ पर बैठे ज़री के कुर्ते वाले धनी आदमी के साथ एक साथ-आठ साल का बालक सात रंगों वाली फिरकी से खेल रहा है। मेज़ पर पानी का जग लाते बट्टू का सारा ध्यान फिरकी के घूमते पंखों पर है। बालक जैसे ही फिरकी पर फूंक मारता है - उसके पंख तेज़ी से नाचने लगते हैं और अपनी चमक से एक घूमती सतरंगी आकृति बनाते हैं। आकृति को देख बालक प्रफुल्लित हो उठता है और एक बार फिर दुगनी तेज़ी से फूँक मारता है। बट्टू के मन में भी उसी तेज़ी से सात रंग उभरने लगते है जैसे बारिश के बाद साफ़ आसमान में छटते बादलों से सूर्य की लालिमा। उसका मन कहता है कि कैसे वह बस एक बार फिरकी से वह सात रंगों की आकृति बना सके।
पास में बैठा धनी व्यक्ति अपने बालक के उम्र के इस सात वर्षीय निर्मल मन को पढ़ लेता है और अपने भले स्वभाव का परिचय देते हुए कम से कम उस क्षण के लिए उसका मन रखने हेतु उसे उसकी सेवा के लिए ठीक वैसी ही इंद्रधनुषी फिरकी दिलाने का आश्वासन दे देता है। इस आश्वासन से बट्टू सातवें आसमान पर इंद्रधनुष के झूले पर बैठा रंगों से सराबोर फिरकी से सतरंगी आकृति बनाने लगता है। शीघ्र ही फिरकी वाले बालक के साथ धनी व्यक्ति अपना क्षणभंगुर आश्वासन खाने के जूठे बर्तनों में ही भूल कर ढाबे से चला जाता है।
लेकिन ना जाने क्यूं पर बट्टू को विश्वास है कि वह व्यक्ति उसके लिए इंद्रधनुषी फिरकी
ज़रूर लाएगा। वह सोचता है कि उस धनी व्यक्ति के लिए फिरकी भला क्या बड़ी वस्तु होगी? वह जितनी मन चाहे उतनी खरीद सकता है। पर शायद उसे यह नहीं पता कि उस धनी व्यक्ति के लिए एक ढाबे के मठमैले बालक को दिया आश्वासन भूलना भी कोई बड़ी बात नहीं। यह विश्वास शायद इस लिए भी है क्योंकि उससे कभी भी ठीक तरह से बात तक न करने वाले ग्राहकों से तो वह व्यक्ति कुछ भिन्न है। फिरकी के स्वप्नों में मग्न बट्टू अब हर क्षण प्रतीक्षा में है- उसकी आँखे हमेशा बाहर की ओर टिकी रहती है। हर ग्राहक में वह उस व्यक्ति को ढूँढ़ता है - और सकारात्मक फल न मिलने पर यह सोचता है कि आज वह शायद कहीं व्यस्त हो - कल अवश्य आएगा। वह निराश नहीं होता। औेर वास्तविकता की तरह ही सतरंगी फिरकी की इस स्पर्धा में दो सात-वर्षीय बालकों में फिर से हमेशा की तरह वंचित बालक को इनाम में 'इंतजार' के सिवा और कुछ भी नहीं मिलता।
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jitendra.lu359
ritu061978
suhanipandeymarch2005
Well written
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