JUNE 10th - JULY 10th
मनोरंजन, किसी भी फिल्म में सबसे जरुरी होता है। एक फिल्म की सफ़लता के लिए तीन चीजे जरुरी है और वो है: पहली मनोरंजन, दूसरी मनोरंजन और तीसरी मनोरंजन। अगर लोगो को शिक्षा चाहिए तो वो स्कूल जाएगे। ज्ञान चाहिए तो संन्यास ले कर तपस्या करेंगे और भाषण सुनना है तो नेताओ के पास जाएंगे और किसी सामाजिक जानकारी के लिए इतने सारे समाचार चैनल है। ये सब मुफ्त के साधन है। अपनी जेब से धन खर्च करके, समय निकाल कर सिनेमा में फिल्म देखने जाने का कारण सिर्फ मनोरंजन ही है। और हर सफलतम फिल्म ने दर्शको का मनोरंजन किया है। कला सिनेमा, व्यवसायिक सिनेमा, अर्थपूर्ण सिनेमा आदि-आदि। ये सारा वर्गीकरण बेकार है। फिल्म सिर्फ अच्छी होती है या बुरी।
अच्छी मतलब मनोरंजक और बुरी मतलब अमनोरंजक बस यही एक चीज है जो किसी फिल्म को सफल या असफल करती है। एक्शन, हारर, रोमांटिक, कॉमेडी आदि जैसी श्रेणियाँ भी दर्शको की पसंद पर निर्भर करती है। अब किसी को “शोले” ठाकुर के बदले की कहानी लगती है तो कोई वीरू, असरानी, जगदीप और बसंती की कॉमेडी के लिए फिल्म को याद करता है। तो किसी को जय और जया बच्चन की गंभीर प्रेम कहानी पसंद आती है।
पर आज कल मनोरंजक फिल्मो का निर्माण हो ही नहीं रहा है। मनोरंजन कहानी से होता है। और वो आज कल लिखी ही नहीं जा रही। अब तो गाने लिखने का काम भी खत्म हो गया क्यों की पुराने प्रसिद्ध गानों को ही नया बना कर प्रयोग किया जाता है। “तम्मा-तम्मा लोगे” इस गाने को ये कह कर रीमेक किया गया की हम “भप्पी लहरी” को सम्मान देना चाहते है। तो सम्मान दो ना! काम भी दो! फिर देखो की किस तरह वो आप की फिल्म में भी “ऊ लाला” जैसा गाना बनाते। असली गाना, पुराने के नक़ल नहीं। पर भारतीय फिल्म उद्योग तो सिर्फ नक़ल पर ही जिन्दा है। पहले “सलीम-जावेद” के समय में भी दूसरी फिल्मो से प्रभावित हो कर कहानिया लिखी जाती थी। फिर ये प्रभावित होने का काम नक़ल में बदल गया और अब तो पूरी डुप्लीकेट मशीन का काम होता है। अगर मूल फिल्म में हीरो ने नीले रंग की levis जींस पहनी है और उस हीरो का साइज़ 36 है तो भारतीय फिल्म में भी हीरो नीले रंग की levis जींस साइज़ 36 ही पहनेगा।अगर हीरो की कमर 36 नहीं है तो हीरो जिम जाएगा, डाइट प्लान फ्लो करेगा और अपनी कमर को 36 करेगा। और ये सब कुछ इस तरह से प्रचारित किया जायगा की फलाने हीरो ने नई फिल्म के लिए इतनी मेहनत की, उतनी मेहनत की, कितना पसीना बहाया आदि। निर्माता तो यही प्रयास करेगा की मूल फिल्म की ही जींस खरीद ली जाये। अपने-अपने वहम होते है। लक्की चार्म। इन सब बेकार की बातों पर करोडो रूपये खर्च किये जाते है पर कहानीकार को देने के लिए पैसे नहीं होते। इसलिए वो भी प्रभावित हो कर या नक़ल करके लिखने की जगह डुप्लीकेशन का काम ही करता है। हालीवुड से ही पटकथा ले लो। हिंदी में बदलने की जरुरत भी नहीं है क्यों की यहाँ भी कहानिया अंग्रेजी में लिखी जाती है। हिंदी लेखको का तो प्रवेश प्रतिबंधित है भारतीय फिल्म उद्योग में। आज कल तो संवाद भी आधे से ज्यादा अंग्रेजी में होते है। तो लेखक को ना तो कहानी को और ना ही संवादों को हिंदी में बदलने की जरुरत पड़ती है। गाने लिखने का काम भी अब खत्म ही समझो, पुराने गानों को ही रीमिक्स करो। उसके बाद सन्नी, करीना, कैटरीना, जैकलिन मलायका आदि जैसी हजारो हीरोइने है आइटम सोंग के लिए, फिर एक प्रमोशनल सोंग, अंत में हन्नी सिंह जैसे किसी सिंगर का एंडिंग सोंग, लन्दन, पैरिस से ड्रेस डिजाइनर, और मेकअप डिजाइनर बुला लो। मिडिया के साथ तो पहले ही बात हो जाती है। और बस तैयार है एक फिल्म। फिल्म को दर्शक ना मिले तो सेंसर बोर्ड को दोष दो, सरकार की नीतियों को दोष दो, वैट-gst जैसे करो को दोष दो, पाइरेसी को दोष दो, सिनेमाघरों को कम संख्या को दोष दो, सिनेमाघरों में ना मिलने वाली मूलभूत सुविधाओ को दोष दो, कुछ ख़ास संगठनो(ज्यादात्तर हिन्दू संगठनो) को दोष दो, टीवी, इन्टरनेट और लोगो की उदासीनता को दोष दो। पर अपनी घटिया फिल्म के बारे में एक भी शब्द नहीं सुनेंगे।
जब दर्शक मूल फिल्म पहले ही देख चुके है तो आपकी घटिया रीमेक को कोई क्यों देखेगा? सोंग के नाम पर हिरोइनों का नंगा नाच देखने के लिए? पर वो तो टीवी और इन्टनेट पर देख लिया, मुफ्त में। इन गानों पर दर्शक कई बार नाच भी चुके होंगे, क्यों की इस प्रकार के गाने डीजे, डिस्को, पब, बार आदि में बजते ही है। निर्माता ये समझ लेता है की गाना हिट हो गया तो फिल्म भी हिट हो जायगी। जो उसकी गलती है। आप की फिल्म में तो चोचले थे, मनोरंजन कहा था। मनोरंजन हमेशा कहानी से ही आता है। “बाहुबली” दोनों भाग को ही ले या ग़दर, घायल, हम आपके है कौन, दिल वाले दुल्हनिया ले जायगे या शोले आदि एक लम्बी लिस्ट है सफलतम फिल्मो की। बोबी के लिए तो विशेष बसे चलती थी। आवारा, श्री 420, मुगलेआजम आदि फिल्मो ने तो सिनेमाघरों में आग लगा दी थी। आज कल के फिल्मकार बहाने बनाते है जो उपर लिखे है। तो ज्यादा पुराणी बात नहीं करते। बाहुबली दोनों भाग सफलतम फिल्म है। क्या इस वक़्त सेंसर बोर्ड नहीं था? सरकार की नीतिया बदल गई थी? वैट-gst जैसे कर नहीं थे? पाइरेसी बंद हो गई थी? सिनेमाघरों को संख्या ज्यादा हो गई थी? या टीवी, इन्टरनेट खत्म हो गई थे जो लोग सिनेमाघरों की तरफ दौड़ पड़े? ग़दर फिल्म की भी पाइरेसी हुई थी। केबल वाले टीवी पर दिखाने भी लगे थे। पर फिर भी लोग सिनेमा गए। क्या था इन सब सफल फिल्मो में? हन्नी सिंह, सन्नी लियोन थे या आइटम सोंग,प्रमोशनल सोंग जैसी बेकार की चीजे थी?एक उदाहरण देता हूँ। “आशुतोष गोवारिकर ने “लगान फिल्मे की कहानी पर काफी शोध की, ब्रिटिश कालीन भारतीय गावं का माहौल बनाने पर। नतीजा पूरी फिल्म में हीरो हिरोइन एक-दुसरे से लिपटे-चिपटे नहीं, कोई चूमना-चूसना नहीं हुआ फिल्म में। पर “मोहनाजोदारो में हीरो-हिरोइन का चुम्बन सीन डाल दिया। वो शायद ये भूल गई की सिंधु सभ्यता ब्रिटिश काल से भी पुरानी थी उस काल में भी महिलाए किसी से चुम्मा-चाटी नहीं करती थी। शोध की कमी की वजह से शहरी सभ्यता एक मामूली से गाव जैसी लगती है पूरी फिल्म में। पाठक जानते ही है की लगान और मोहनाजोदारो के परिणाम क्या थे। तो फिल्मे चोचलो से नहीं चलती मजबूत कहानी से चलती है। कहानी जो दर्शको में उन्माद जगा दे। ताकि वो दौड़ पड़े सिनेमा घरों की तरफ। आज कल फिल्म के रिलीज होने से पहले ही उसके टीवी अधिकार सिर्फ इसलिए बेच दिए जाते है क्यों की फिल्मकार को पता है की उसकी फिल्म नहीं चलेगी। इसलिए पहले ही बेच दी, पैसा कम लो।
“हम आपके है कौन “ 1994 में आई थी और उसका सबसे पहले टीवी पर प्रदर्शन 2000 में हुआ। ये होती है सफलता। और आज कल “pk” जिसके बारे में कहा जाता है की 350 करोड़ कमाए है। वो 3 महीने के बाद ही टीवी पर दिखाई जाने लगी। सिर्फ 3 महीने लगे सिनेमाघरों से निकाल कर टीवी के (मुफ्त के) प्रदर्शन पर। फिर भी ये सफलतम फिल्म है?
आजकल के फिल्मकारों का मूल मकसद धन कमाना है अच्छी फिल्म बनाना नहीं है। वो चाहते है की दर्शक सिर्फ टिकट खरीद ले, फिर भले ही वो फिल्मे देखने आये या ना आये, बीच में चला जाए, बोर हो जाये इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता क्यों की सिनेमा टिकट पर रिफंड जैसा कोई नियम नहीं होता। फिल्म पसंद नहीं है तो चले जाओ, पर फिल्म ने तो कमाई कर ली। इसलिए आजकल दर्शक बहुत ही सोच समझ कर सिनेमा जाता है। यहाँ पर उन दर्शको की बात हो रही है जो फिल्म देखने जाता है। पैसे के घमंड में चूर लड़के –लडकिया, प्यार के लिए जगह की तलाश में निकले या इस ही तरह के दर्शको को तो चाहे कुछ भी मत दिखाओ। वो तो फिर भी पुरे तीन घंटे हाल में बैठ कर अपना काम करेंगे ही। इनको फिल्मो से मतलब नहीं होता। और इन्ही दर्शको के लिए वो सारे चोचले फिल्मो में डाले जाते है। इसलिए असली दर्शक सिनेमा से हट गया।
90 के दशक तक पुराने फिल्मकार अपनी धार खो चुके थे। अमिताभ बच्चन जैसे महान हीरो भी उम्रदराज हो रहे थे। “हम” और “खुदा गवाह” ही आखरी सफलतम फिल्म थी। उस समय गुलशन कुमार का उदय भी हो रहा था। ये इंसान पुरानी लीक से हट कर नई परम्पराओं का निर्माण कर रहा था जो पुराने फ़िल्मी वर्ग को पसंद नहीं था। फिल्म उद्योग की चमक धमक और धन दौलत को देख कर डान आदि भी हफ्ता वसूली और फिरौती वसूलने लग गए थे। जबकि गुलशन कुमार पुरे देश से प्रतिभाओ को फिल्म उद्योग में ला रहे थे। एक मशहूर डॉन को गुलशन कुमार का इस प्रकार खुल कर एक विचारधारा का समर्थन करना भी पसंद नहीं था। और उनकी वजह से उद्योग एक विचारधारा के लोगो के हाथ से निकाल रहा था। इस सब उलझन में गुलशन कुमार की हत्या करवा दी गई। बाकि दुसरे उदारवादियो को भी डरा धमका कर चुप रखा गया या मरवा दिया गया। और इस प्रकार फिल्म उद्योग पर एक ही विचारधारा के लोगो का मानो कब्ज़ा हो गया। फिल्म उद्योग ने सिर्फ ख़ास यूनियनों से ही लोग लिए जाने लगे, उन का प्रचार होने लगा। अपराधी डॉन ने भी अपना काला धन सफ़ेद किया। तत्कालीन कांगेसी सरकार तो सो ही रही थी। ओर इस प्रकार एक ही मानसिकता का गुलाम बन गया हमारा फिल्म उद्योग। शोषण, भाई-भतीजावाद, परिवारवाद ने बर्बाद कर दिया भारतीय फिल्म उद्योग। इन सब का उदाहरण के साथ वर्णन करता हूँ, ताकि आप को समझने में आसानी हो।
शाहरुख खान को बादशाह कहा जाता है, सुपर स्टार कहा जाता है किंग आदि ना जाने क्या क्या कहा जाता है। उन की आखिरी सफलतम फिल्म 2013 में “चेन्नई एक्सप्रेस” थी। उस के बाद 5 साल में एक भी सफल फिल्म नहीं। हर फिल्म पिटी। कैसे सुपरस्टार है, किंग है जो अपने दम पर फिल्म को सफल भी नहीं कर पाता? सुपरस्टार तो अमिताभ बच्चन थे जिनकी “कालिया” जैसे घटिया फिल्म भी सफलतम फिल्म थी क्यों की हीरो अमिताभ बच्चन थे। सलमान भी अपने दम और नाम से घटिया फिल्म “tubelite” को सफल नहीं कर पाए। कैसे सुपर स्टार है ये? आगे देखिये अमीषा पटेल जिसकी पहली फिल्म “कहो ना प्यार है”, सफलतम फिल्म थी। दूसरी फिल्म “ग़दर” भी सफलतम थी। तीसरी फिल्म “हमराज” भी सफल हुई पर आज वो हिरोइन कहा है? गुमनाम है। जबकि करीना की पहली तीनो फिल्मे फ्लॉप हुई। उस के बाद की फिल्मे भी फ्लॉप हुए। करीना के नाम जो सफल फिल्मे है भी उसका हक़ भी दुसरो को जाता है जैसे की “गोलमाल” और “सिंघम” आदि। पर फिर भी करीना आज भी सुपर स्टार है। क्यों की वो कपूर खानदान की है। पूरा फिल्म उद्योग , जहान्वी कपूर, सारा अली खान,आदि को अपनी फिल्मो में लेने के लिए खड़ा है पर क्या ये किसी और बाहरी लड़की को लेने की हिम्मत करते है। इस भाई-भतीजावाद, परिवारवाद ने उद्योग के अरबो रूपये का नुक्सान किया है।
इन कलाकारों के कुते तक का खर्चा फिल्मकार देता है लेकिन काम करने वाले तकनीशियनों को उनका मेहनताना भी नहीं मिलता। इसलिए फिल्मे फ्लॉप होती है। एक कहानी लेखक को धन नहीं मिलेगा तो वो क्यों मेहनत करेगा? नक़ल ही करेगा ना। आज फिल्म उद्योग में ऐसे लोग है जो हिंदी कहानी को देखते ही फैंक देते है। मतलब हिंदी भाषी कहानीकार नहीं चाहिए। कर दिया न प्रतिभा को नियंत्रित। अंग्रेजी के ही लेखक वो भी वामपंथी संस्थानों से निकले हुए। नतीजा एक जैसी फिल्मे, एक जैसे विषय, एक जैसे तरीका। एक जैसे चोचले और फिर परिणाम भी एक ही आएगा असफल फिल्म।
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