अजन्मी सेल्फी

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कहानी. .मनीषा सिंह

अजन्मी सेल्फी

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चारों तरफ अंधेरा था। पर शौक जो ठहरा, वह भी मां की तरफ से आया हुआ। उसने अपने होठों को थोड़ा-सा गोल किया और पाउट बनाया।

“मॉम...एक सेल्फी लो न...देखो मैं कैसी लग रही हूं...ये मेरा ये वाला पाउट देखा आपने...”

हलचल हुई तो नम्रता ने पेट पर नरमाई से हाथ फिराया। अब तो चार महीने की हो गई है, शरारत सूझती होगी इसे।

“तो मॉम को पता है कि मैं हूं... ।” मां के हाथ का नर्म स्पर्श पाकर वह चहक उठी। उसके हाथ-पांव में हरकत हुई तो नम्रता ने एक बार फिर पुचकारते हुए जैसे कहा- “सो जा मेरी बच्ची, सो जा। बाहर अंधेरा है...बहुत रात भी हो गई है।”

“पर एक सेल्फी लो न...मेरे लिए। कैमरा ऑन करो अभी...मैं फिर से पाउट बनाती हूं, एकदम आपकी तरह।” वह जैसे बात करने के मूड में थी। बाहर अंधेरा था, भीतर भी अंधेरा था, पर वह तो जाग रही थी। और फिर मां संग थी तो अंधेरे से क्या डरना।

नम्रता ने एक बार फिर प्यार से पेट पर हाथ फिराया। वह बुदबुदाई, “सो जा मेरी बच्ची, सो जा। बाहर सचमुच बहुत अंधेरा है।” ऐसा कहते-कहते कब उसकी आंखों से आंसू बहने लगे, पता ही नहीं चला। मां की रुलाई सुनकर वह शांत हो गई। सोचने लगी कि मां क्यों रो रही है। क्या उसे अकेलेपन से डर लग रहा है...। पर अकेली कहां है मां, मैं तो उसके साथ हूं। उसने पूरी ताकत लगाकर बोलना चाहा, “मां...सुन रही हो न, मैं हूं न आपके साथ...आप अकेली नहीं हो...अकेली नहीं हो मां।”

फिर खामोशी छा गई। अंधेरा और गहरा गया।

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जैसे कोई सपना चल रहा हो। उसे सब कुछ साफ-साफ नजर आ रहा था। शायद इसलिए हो रहा था यह सब कुछ, क्योंकि मॉम-डैड आपस में बातें करते तो वह सब कुछ चुपचाप सुनती रहती। एक-एक चीज उसके जेहन में किसी सिनेमा की तरह दर्ज होती जाती। वह मन ही मन हंसती। क्या इन्हें नहीं पता कि मैं सुन रही हूं।

“तो कॉलेज में मिले थे ये दोनों”, उस दिन का किस्सा सुनकर उसने यह नतीजा निकाला था। क्या बताया था मॉम ने, वह याद करने लगी।

“हां याद आया, ये श्रीमान जी यानी डैड, एकदम दब्बू टाइप के थे...फट्टू- जैसा कि मां बोलती हैं। लड़कियों से बात करने में बुरी तरह घबराते थे। वह तो भला हो उन प्रोफेसर सर का, जिन्होंने मां से कहा था कि डैड यानी राहुल के साथ मिलकर लड़के-लड़कियों का एक स्टडी ग्रुप बना लेना, उससे तुम्हें पढ़ाई में काफी हेल्प मिलेगी।”

वाह, क्या सीन था वह भी। मॉम यानी नम्रता नाम की मॉडर्न लड़की, डैड यानी राहुल का रास्ता रोके खड़ी है और वह सपकपाए-सकुचाए से कोई पतली गली खोज रहे हैं। तब मॉम ही बोली थीं, “मैं आपको सर बोलूं.... तो चलेगा।”

“.......” घबराए राहुल की तरफ से कोई जवाब नहीं आया था।

“यू नो, आप और हम एक ही क्लास में हैं- ये शायद आपको पता होगा और प्रोफेसर शुक्ला ने बोला है कि हम यानी मैं और मेरी दो-तीन फ्रेंड आपके साथ स्टडी ग्रुप बना लें तो.... ”

“पर मैं तो...मेरा मतलब कि मैंने कभी इस तरह पढ़ाई नहीं की।”, आखिर श्रीमान राहुल जी की तरफ से कुछ शब्द निकलकर आए थे।

“इस तरह मतलब...”

“मतलब स्टडी ग्रुप...लड़कियों के साथ....।”

“आप कभी को-एड स्कूल नहीं रहे।”, मॉम ने हैरानी से पूछा था।

“था पर कभी गर्ल्स के साथ स्टडी ग्रुप नहीं बनाया।”

“तो अब बना लेते हैं...”, शायद छेड़ने की गरज से मॉम ने अपनी फ्रेंड के साथ यह बात जोर से हंसते हुए कही थी।

डैड को पता नहीं कि बुरा लगा या क्या हुआ, लेकिन तीन दिन तक वो मॉम के सामने नहीं पड़े। एक दिन प्रोफेसर शुक्ला ने ही टोक दिया, “अरे राहुल, तुम्हें नम्रता से कोई प्रॉब्लम है क्या। कह रही थी कि तुम उसके साथ स्टडी ग्रुप नहीं बनाना चाहते।”

राहुल ने बहाना बनाया था, “ऐसी कोई बात नहीं है सर। इधर घर में कुछ काम आ गया था, इसलिए मैं थोड़ा बिजी हो गया था।”

“तो ठीक है, अगले हफ्ते से तुम उसकी और उसकी फ्रेंड्स की कुछ मदद कर दिया करना। भाई, तुम लोग एक साथ स्टडी करोगे तो आगे चलकर कैरियर में तुम्हीं को फायदा होगा।”, प्रोफेसर शुक्ला ने सजेशन दिया तो राहुल जी बेचारे इस सजेशन को मानने से भला इनकार कैसे करते।

आखिर संग पढ़ाई का भी दौर आया और कॉलेज टूर पर एक साथ जाने का भी। इस बीच ग्रैजुएशन के तीन साल कब निकल गए, पता ही नहीं चला।

**

राहुल जी किताबी कीड़ा जरूर था, पर टॉपर नहीं। लड़कियों से बुरी तरह शर्माए, दीन-दुनिया की कोई खबर नह रहे, ऐसे लोग कोई टॉपर थोड़े ही होते हैं। टॉपर तो मॉम थीं। पूरे कॉलेज में अव्वल आई थीं। वैसे राहुल का दूसरा नंबर था टॉपर लिस्ट में।

“सो, श्रीमान राहुल जी, अपनी नाकामी का अफसोस मना रहे थे....न..न...न, अफसोस अपनी असफलता का नहीं, बल्कि नम्रता के टॉप करने का मना रहे थे। मुंह छिपाए घूम रहे थे हर किसी से।”, यह उसने सोचा मन ही मन।

वैसे सच भी यही था। उस दिन राहुल को हॉस्टल में खोजा गया, तो वह वहां नहीं मिला। कॉलेज फंक्शन शुरू हुआ और उसमें भी राहुल के दर्शन नहीं हुए तो नम्रता ने अपनी फ्रेंड्स को ही उसकी खोजबीन में लगाया। बड़ी मुश्किल से राहुल को नम्रता के सामने पेश किया गया। सामने पड़ने पर राहुल के सामने सवालों की झड़ी लग गई। पूछा कि क्या ऐसे मौके पर नम्रता को विश करना नहीं बनता था... क्या जलन के मारे वह सामने नहीं आ रहा था....लेकिन सेकेंड टॉपर होना क्या कम बड़ी बात है।

राहुल झेंप कर रह गया। माफी मांगने लगा। उसने कहा कि आइंदा ऐसी गलती दोबारा नहीं होगी। नम्रता ने माफ कर दिया। नाराज भी तो नहीं रह सकती थी राहुल से। जाते-जाते नम्रता फ्रेंड्स से अलग ले जाकर राहुल से बोली थी, “मैं नहीं जानती कि आपके मन में मेरे लिए क्या फीलिंग्स हैं, पर मैं आपसे अपनी एक बात शेयर करना चाहती हूं।”

“कोई प्रॉब्लम है....मैंने कुछ गलत कहा...।”

“कोई प्रॉब्लम नहीं है। मैं बिल्कुल क्लियर हूं इस मामले में। असल में मैं आगे चलकर तुम्हें अपने लाइफ पार्टनर के रूप में देखना चाहती हूं।”, नम्रता ने पूरी बेबाकी से अपने दिल की बात राहुल के सामने रख दी थी। एकदम स्पष्ट प्रपोजल था, जिसके इनकार की कोई सूरत कम से कम नम्रता को तो नजर नहीं आ रही थी।

राहुल नम्रता के दिल की बात जानकर अवाक् रह गया था। इस बार तो वह वाकई में समझ ही नहीं पा रहा था कि वह क्या जवाब दे। वह सोच में पड़ गया था।

“ऐसा करते हैं राहुल...एक दिन का वक्त ले लो और तब सोचकर बताना...मैं इंतजार करूंगी।”

किसे पता था कि उस दिन वे अलग हुए तो चार साल तक एक दूजे की शक्ल तक नहीं देख पाएंगे।

**

यह शहर दिल्ली था। मेट्रो में सवार हुई नम्रता ने लेडीज सीट पर बैठे शख्स से सीट खाली करने को कहा था। हालांकि वह अपनी बात कहती, इससे पहले ही उस शख्स ने सीट खाली कर दी।

“आय एम सॉरी...प्लीज बी सीटेड।”, यह राहुल था।

नम्रता ने भी उसे देख लिया था और तकरीबन मुंह फेरते हुए वहां से आगे बढ़ने लगी।

“ओह नो...नम्रता। प्लीज, मेरी बात सुन लेना।”, राहुल ने रिक्वेस्ट की।

“किसलिए....कोई बहाना भी तो नहीं होगा आपके पास।”, उसने गुस्से और नफरत में कहा था।

“नम्रता...प्लीज। मेट्रो में नहीं....मैं यहां वह सब कुछ नहीं बता पाऊंगा जो इस बीच हुआ।”

नम्रता ने घड़ी देखी। कनॉट प्लेस पहुंचने में आधा घंटा लगेगा। अभी साढ़े नौ हुए थे और जिस ऑफिस में उसकी ट्रेनिंग चल रही थी, वहां उसकी शिफ्ट शुरू होने में अभी डेढ़ घंटा था।

“नम्रता...प्लीज। क्या एक मौका दोगी मुझे अपनी बात कहने का।”, राहुल ने अनुरोध दोहराया था।

“... अगर एक घंटे का वक्त हो तो कनॉट प्लेस के किसी रेस्टोरेंट में बैठकर बात करते हैं।”, नम्रता मान गई।

तब राहुल ने पूरी रामकहानी कह सुनाई। कैसे कॉलेज में उसी रोज गांव में दादाजी की बीमारी की खबर मिली और कैसे ऐसा सिलसिला बना कि वहां से लौटने का कोई संयोग कई सालों में नहीं बना। जब वह लौटा, तो नम्रता एजुकेशन पूरी कर कॉलेज से जा चुकी थी। इस बीच जहां नम्रता बैंक में अफसर बनकर चंडीगढ़ में पोस्टिंग पा चुकी थी, वहीं राहुल का संघर्ष अभी जारी था। हालांकि राहुल अब आईटी में ऊंची डिग्री हासिल कर चुका था और उम्मीद थी कि जल्द ही उसे जॉब भी मिल ही जाएगी।

बरसों तक बिना अता-पता दिए लापता हो जाने वाले राहुल से नम्रता नाराज तो थी, लेकिन मन ही मन जिसे चाहा हो, अगर वह लौट आए और गलती स्वीकारते हुए समर्पण कर दे तो ऐसे सुबह के भूले का शाम को लौट आना माफी योग्य होता है। यही सोचकर नम्रता एक बार फिर राहुल से मिलने लगी।

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राहुल ने राजी तो कर लिया था अपने मां-बाप को, पर इसका अहसास नम्रता को शादी के चंद माह बाद भी हो गया था कि सिर्फ लाइफ पार्टनर का समझदार होना काफी नहीं होता है। अगर वह समाज के पिछड़े विचारों को अपनी पढ़ाई-लिखाई और जेहनियत के बल पर ठुकरा दे, तो भी समाज उसका पीछा आसानी से नहीं छोड़ता है। शादी के बाद जितनी बार नम्रता का ससुराल में जाना हुआ, उसने पाया कि राहुल के घर-समाज में पूरा माहौल बेटियों के खिलाफ बना हुआ था। खुद नम्रता की सास यानी राहुल की मां ने उसे कई बार टोक दिया था कि देख छोरी, हमारे खानदान में ब्याह के बाद बहू के पोता जनने का रिवाज है। आज तक सारी बहुओं ने इस रिवाज को कैसे भी करके निभाया है, तू अनोखी होगी, अगर इस रिवाज को तोड़ा।

नम्रता के मुंह से ऐसे मौके पर नाराजगी में यह सवाल निकल गया था, “अगर पहली बेटी हुई तो क्या उसे पैदा होते ही मार दोगे।”

बात पूरे गांव में फैल गई। दबी जुबान में नम्रता के सामने भी कुछ महिलाएं यह कहते सुनी गईं कि नई बहू के लक्षण ठीक नहीं हैं। जुबान लड़ाती है और बेटा नहीं पैदा करेगी।

नम्रता ने सोचा कि बेटा हो या बेटी, क्या यह तय करना हमारे हाथ में है। वैसे अगर बेटी हुई तो अच्छा ही होगा। शायद इससे उसे ससुराल वालों को सबक सिखाने का मौका मिलेगा।

नम्रता ने जैसा सोचा था, संयोगवश वही हुआ। चोरी-छिपे एक कस्बे में जबरन उसका अल्ट्रासाउंड कराया गया तो पता चल गया कि पेट में बेटी ही है। फिर तो मानो कोहराम मच गया। नम्रता की जिद थी कि वह इस बेटी को पैदा करेगी, चाहे इसके लिए कुछ क्यों न करना पड़े। जिद देखकर उसे गांव में नजरबंद कर लिया गया था। राहुल को भी जैसे वहां से गायब कर दिया गया। नम्रता छटपटाकर रह गई थी। उसे राहुल को लेकर अपने फैसले पर अफसोस हो रहा था। वह सोच रही थी कि राहुल को इस मौके पर उसका साथ देना चाहिए था। शादी के बाद पत्नी के किसी फैसले में अगर लाइफ पार्टनर का साथ नहीं मिल रहा है तो यह मजबूरी नहीं, नामर्दी है। अगर ऐसा है तो ऐसे घर में बेटी का नहीं आना ही अच्छा। नम्रता अपनी ही राय से एक उलट फैसले पर पहुंच गई थी। अबॉर्शन के लिए जब उसे क्लीनिक ले जाया रहा था, तो उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया। आंखों में आंसू जरूर थे...राहुल के लिए नहीं, अपनी उस अजन्मी नन्ही-सी जान के लिए, जिसे शायद वह पूरे वक्त पर जन्म देती तो खुद अपने जीवन को धन्य मानती।

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ये ...ये अजीब सी रोशनी कैसी है। अरे, अंधेरे से एकदम उजाला कैसे हो गया। और मैं...जैसे किसी के दस्तानों में कैद हूं। कोई मुझे खींचकर बाहर निकाल रहा है, अंधेरे से उजाले में ले जा रहा है।

हां, मैं कुछ-कुछ देख पा रही हूं। ये कौन है...मेरे सामने।

ओ....तो ये मेरी मां है....। जैसा सोचा था, वैसी ही सुंदर। तो मेरे नाक-नक्श भी ऐसे ही होंगे, होंगे न डॉक्टर...नहीं ये तो नर्स हैं। नर्स दीदी, आप सुन रही हो न। अरे, मुझे ये कहां ले जा रहे हो आप। मुझे मां के पास ले चलो...दूर नहीं। मां...मां...रोको न इन्हें।

मां....मैं सांस क्यों नहीं ले पा रही मां...मां।

ये क्या....मेरी जैसी कई सारी छोटी-छोटी बच्चियां हैं यहां। उफ...खून से लथपथ....पर इनकी तो सांस भी नहीं चल रही। मुझे भी अब सांस नहीं आ रही..मेरे शरीर पर भी खून ही खून है,..मां...नर्स दीदी। मुझे मां के पास ले चलो न....अरे, मुझे कुछ दिख क्यों नहीं रहा।

मां...प्लीज, एक सेल्फी मां...एक सेल्फी तो ले लो मां, मेरे साथ एक सेल्फी।

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