ज़िन्दगी "२ बटा २

Gee
जीवनी
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"कहते है दमा दम के साथ ही जाता है ये गारंटी है ,पर दम कब निकलेगा, ये मालूम नहीं ". इल्ताफ़ आलम हुक्के का कश मारते हुए अपने दोस्त शकील की ओर मुखातिब होकर बोले.


“अब्बा का ऐसा ही हाल है. कब तब जलेगा चराग ,खुदा ही जाने .कोई तो सर्द हवा का झोंका आएगा,जो इस बुझते चराग की लौ को निगल जाएगा”...


“अजरक की माफ़िक़ बैठे सारी उम्र खानदानी दौलत पर हमारे अब्बा...ये नहीं कि बच्चो से थोड़ा बाँट लेते, कुछ सुकून की ज़िंदगी हम भी जी लेते मियाँ .... हुंह ". गले में पड़ी सोने का मोटी चेन को ऊंगलियों से घुमाते चालीस बरस के इत्लाफ आलम ने मन ही मन अपने बूढ़े बाप को लानत भेजी।
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सर्दी का मौसम था और दोनों इल्ताफ आलम के घर के बरामदे में चिलम लगा कर हुक्के से कश लगा रहे थे . कमरे के अन्दर से खांसी की एक लहर उठी और डूबते तूफ़ान की तरह थम के बैठ गयी ।
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मकबूल आलम के ज़िन्दगी के ३० साल उत्तर प्रदेश की एक केमिकल फैक्टरी में फोरमैन का काम करते निकल गए. चूंकि परिवार का ऐसे माहौल में रहना उनको गवारा नहीं था, इसीलिए उन्होंने अपनी बेगम और चार बेटो को मेरठ में अपने वालिद के यहाँ भेज दिया और खुद रोज़ी रोटी कमाने के हेर फेर में फँस गए . महीने में दो बार आते ,अपनी और बच्चो की ज़रूरतें पूरी कर के वापिस फैक्टरी चले जाते .ऐसे में कब ३० साल निकल गए, पता नहीं चला. शादी देर से हुई थी पर बच्चे जल्दी हो गए थे और आगे उनके निकाह भी जल्दी पडवा दिए थे .घर आँगन में वाल्दायन के साथ अब छोटे छोटे बच्चे भी दीखते थे .इल्ताफ़ सबसे बड़ा था और उसके बाद थे राजा, मुराद और कैफ . मकबूल मियाँ तो तस्सली थी कि जो तालीम उनको नहीं मिली उसकी कमी उन्होंने अपने साहबजादों को नहीं होने दी. खुदा की मेहरबानी से चारों लड़के पढ़ लिख कर अच्छे सरकारी ओहदों पर बैठे थे .
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रिटायर्मेंट से पांच साल पहले ही कम्पनी ने उन्हें वापस जाने की सलाह थी, कम्पनी को शायद डर था कहीं मकबूल मियाँ की हर वक़्त की खांसी फैक्ट्री के केमिकल को प्रदूषित न कर दे .छुट्टी होने पर मकबूल मियां रिटायर्मेंट के सारी पूँजी समेट कर घर की ओर रवाना हुए .और तो किसी से लगाव नहीं था उन्हें ,साथ काम करने वाले कब किसके हमदर्द या रकीब हए .अलबत्ता "दो बटा दो "का उनका कमरा जो पिछले ३० सालों से उनका आशियाँ बना हुआ था, थोडा रुंवासा दिखा .शायद इस ईमान के बन्दे से उस चार दिवारी को भी लगाव हो गया था .जाने अब कौन आये जो उसके ईंट गारे पर कुफ्र ढाए या जन्नत नसीब करे.


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मकबूल मियाँ के आने से हवेली में खुशियों का समा बन्ध गया .बेगम शौहर को पास पा कर खुश थी और बच्चे दादाजान को .ईद सा माहौल लगता था हवेली में ,रिश्तेदार आते जाते रहते ,फैक्ट्री की कहानियाँ सुनते . मुंह पर बार बार हाथ ले जाकर मकबूल मिया चस्का लेकर फैक्ट्री की कहानियाँ सुनाते .
धीरे धीरे लोगो का आना जाना कम हो गया और घर का दिन चर्या फिर से पहले सा हो गया .मकबूल मियाँ की खांसी की दवा दारू पहले तो साहबजादों ने दिल से की ,सोचा अब्बा ने सारी उम्र हमारे लिए लगादी अब उनकी सेवा करके जन्नत हासिल करे और कुछ और भी मिले .पर मियाँ की खांसी जी तो जी का जंजाल थी. एक बार छिड़ गयी तो किसी रूठी नयी बेगम की तरह मनाये नहीं मानती थी। पूरी रात खांसी की गूँज, सड़क पर भौंखते आवारा कुत्तों के शोर में लिपटी पूरी हवेली में गूंजती.


अब बेगम भी उकता गयी थी . चार बहूओं की सास थी पर सबसे निभा कर एक चौका चलाती थी । घर के मुआमलों में उनका रूक्का चलता था। पर अब मियाँ जी के आने से ज्यादा समय उनकी दवा दारू में कटता और इस वजह से बहुओं पर उनकी पकड़ ढीली हो चली थी।


कहीं आने जाने पर मियाँ जी टोकते पूछते थे ,अब चाव था उनके घर के सर्वाली होने का,कुछ तो हक दिखाते -बेटो के काम में भी कभी कभी दखल देते .सामने कोई कुछ नहीं कहता पर धीरे धीरे अब्बा का साथ होना सबको खलना शुरू हो गया था. बहुत बार घुमा फिरा कर अब्बा से कुछ पैसे निकलने की कोशिश थी पर वो सफाई से हर बार टाल गए .खुश थे तो सिर्फ बच्चे जो ददाजन के इर्द गिर्द सारे दिन घुमते रहते थे .
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सबको लगता था अब्बा को रिटायर्मेंट का और जल्दी बर्तास्थगी का अच्छा मुवायज़ा मिला है .हर बेटे की कोशिश रहती की कुछ हिस्सा मिल जाए .अम्मी ने भी चापलूसी की पर मियाजी ने धूप में बाल सफ़ेद नहीं किये थे .कुछ ही दिनों में समझ गए की अपने यहाँ कोई नहीं है, अपने हो कर भी सब पराये है . बेगम उनकी कम, अपने बेटों की ज्यादा थी .पैसा फ़ेंक देने का मतलब था, बुढापे की लाठी तोडना . इसलिए पोस्ट ऑफिस में पैसा डाल ब्याज से दवा दारू,हस्पताल का खर्चा चलाते. उनके बच्चे इस उम्मीद में थे कि अब्बा की खांसी कभी तो सायिलेंसर के हत्थे चड़ेगी ,तब सब्र का फल मिलेगा .लड़के तो रूखे थे ही , बहुहें भी दबी ज़बान में तानाकशी करते थकती न थी .
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एक खुश मिजाज शख्स जिससे मिल कर मियाँ जी सच में बाग़ बाग़ होते थे,वो थे उनके बचपन के मित्र हरी प्रसाद मिश्र .रिटायर्ड वकील थे ,आजकल कोर्ट की जगह दाँव पेंच घोड़ों और प्यादों पर शतरंज बोर्ड के ऊपर चलते थे . दोनों दोस्त मिल कर दिन में -दो एक शतरंज की बाज़ी खेलते और अपनी अपनी कहते सुनते .


मिश्रा जी भी आधुनिक परिवार की नई सच्चाइयों के शिकार थे ,दोनों दोस्त हंस रो कर अपना दुःख सुख बाँट लेते .
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ये सिलसिला कुछ पांच साल और चल सका. वक़्त से साथ बड़ते रहे खांसी के दौरे , कुनबे की बेरुखी और शतरंज की चालें .
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जुम्में की रात थी।
आजकल सांस कुछ ज्यादा उखडती थी ,पम्प भी बेअसर हो चला था।
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उस रात अब्बा देर तक सोये नहीं थे और इल्ताफ़ के बारामदे में अपने दोस्त से कहे लफ़्ज़ बरामदे की दीवारों से टकराते हुए सीधा उनके दिल पर आ लगे थे .
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डेथ सर्टीफिकैट में मौत का कारण दिल का दौरा बताया गया .लोग हैरान थे की जो आदमी बुझती साँसों को सालों से संभाल के बैठा था, उसका दिल कैसे धोखा दे गया . सच्चाई का किसे क्या पता था .
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मैयत के बाद सब रिश्तेदार वापस चले गए. अब सबको इंतज़ार था अब्बा की मिलकियत के बंटवारे का .सारा खानदान मिल साथ बैठा था क़ि मिश्रा जी आते नज़र आये. बहुत ग़मगीन था उनका चहरा, ५५ सालो का रिश्ता दफना के आये थे ,मैयत में कफ़न की चादर भी उन्होंने ही ओढाई थी.
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कैफ ने सोफे की तरफ इशारा किया . मिश्र जी के हाथ में एक सफ़ेद कागज़ था .सवालात लिए नौ चेहरों ने मिश्र जी को देखा .
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गला खंखारते हुए मिश्रजी बोले " मियाँ जी क़ि विल लाया हूँ "
कमरे में चुप्पी छाई थी .सबके चेहरे फक्क थे .किसी को इस बात का पहले इल्म नहीं था कि अब्बा ने विल कब बनवा ली।
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मिश्रा जी ने शुरू किया -


"मेरे अज़ीज़ों,


पता नहीं आप लोगो को अपना अज़ीज़ कहने का मेरा हक है कि नहीं .
पिछले कुछ सालों में कुछ ऐसा लगा क़ि मैं एक बोझ बन कर अजनबियों के साथ रह रहा हूँ.


ज़िन्दगी के ३० खूबसूरत साल "२ बटा २" के कमरे में यह सोच कर गुज़ार दिए के अगले तीस सालो में अपने हलाल की कमाई से बची ज़िन्दगी सुकून से बिताऊंगा ,पर शायद ये मेरा नसीब नहीं था .
जिंदा रहते जो न कह सका वो अब बताता हूँ . मेरे अब्बा को व्यापर में बहुत नुकसान हुआ था और हवेली कर्जे में डूबी थी. इसिलिये मैं केमिकल फैक्ट्री काम करने गया . भारी कर्जा उठाया था फैक्ट्री के मालिक से जो ब्याज के साथ ३० सालो में मुश्किल से चुका पाया था .

एक टाइम पर खाना खाता और एक टाइम पर चने ताकि मेरे बेटों की तालीम में कोई इजाफा न हो, मेरी बेगम को दूसरों का मोहताज न होना पड़े . एक बात की तस्सली थी कि हवेली पर कर्जा उतर गया था और मेरी हलाल की कमाई ,मेरे बच्चे, लायक निकले थे . अपने अनपढ़ होने का जो गम था वो बेटो के पढ़ा लिखा होने के फ़क्र से कम हो गया था . जब वापस लौटा तो पास था - सिर्फ मेरा गुरूर और चंद रुपये जो जल्दी नौकरी छोड़ने के मिले थे. लंबी बीमारी रिसते नलके सी होती है। दवा दारू पर हुआ खर्चा उस टंकी खाली कर गया .


तुम लोगों को देने के लिये मेरी मिलकियत में बस दुआएँ बची है, जो तुम सब के नाम किये जा रहा हूँ ,हवेली तुम्हारी अम्मी के नाम बरसों पहले कर दी थी ,उनकी पनाह में खुदा करे तुमको सबब दे . अम्मी का ख्याल रखना .


चेस का बोर्ड मिश्राजी के नाम और हमारी दोस्ती के नाम करता हूँ.
अपने लिए खुदा से "२ बटा २" का कमरा ज़मीन के नीचे बुक करवा लिया था ,मेरी कब्र पर और कोई खर्चा नहीं करना. मिश्र जी से कहा था कि कफन की चादर लेकर रखी है, मरुँ तो ओढा देना .


खुदा के घर किस्मत में और कुछ ले जाना नहीं लिखा है ,हां ,अगर आप लोग कुछ प्यार देते तो जन्नत/दोहज में ले जाता पर वो न पाना मेरी किस्मत थी .


खुश रहो.


खुदा हाफ़िज़.
अब्बा ".


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बेगम चक्कर खा कर बेहोश हो गयी थी और बेटे बहुएँ बिलख- बिलख कर रो रहे थे.अब अपने किये का पछतावा हो रहा था पर जाने वाला चला गया था .खाली हाथ, उदास दिल लिए . आधी ज़िन्दगी "२ बटा २" के कमरे में गुज़ार दी, क़यामत के दिन तक बाकी की २ गज ज़मीन के नीचे निकल जायेगी.

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