दंगों के असर का पैमाना महज़ क़त्ल, बलात्कार या जान माल की हानि नहीं हो सकता। दंगे की जड़ें किस तरह समाज की मिट्टी में धँस कर उसकी उर्वरता सोख लेती हैं, इस विस्तृत प्रभाव को दर्शाती है ''दंगे की छाँव में''। बात 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गि रा दि ये जाने से शुरू होती है। नौबतपुर में क्रिकेट खेलने वाले बच्चे परेशान हैं क्योंकि दंगों की वजह से क्रिके ट बंद हो चुका है। उनकी क्रिकेट की जद्दोज़हद से शुरू हुई कहानी, इंजीनियरिंग के स्टूडेंट से होते हुए, एक हवलदार, एक गुंडा, एक किसान, भोंपू मास्टर, एक स्ट्रगलिंग एक्टर जैसे कई चरित्रों को छूती हुई दंगों के अंत तक पहुंचती है। सच्चाई का ज़हर गले में थाम नीलकंठ बना पगला बाबू एक धागे की तरह इन मोतियों को पिरोता है। दंगे की छाँव में झुलस रहे ये आम लोग कैसे इसमें फँसते हैं, उलझते हैं और फिर इससे बाहर निकलते हैं, इसी उठा पटक को ज़िंदा करती है ''दंगे की छाँव में''।एक भीनी मुस्कान के साथ अंदर तक झकझोरती ये कहानी समाज के उस अनछुए पहलू की है जि सपर कभी कि सी ने ध्यान ही नहीं दिया। ये कहानी उन लोगो की है जो हर गली, हर मोहल्ले, हर शहर में होते हैं पर किसी को दिखाई नहीं देते, गोया पीठ का तिल हो।
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