चोरी का धन

मिथक
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“माँ! माँ!...”

कितना खूबसूरत पल होता है हर माँ के लिए, जब उसका लाडला पहली बार यह शब्द बोलता है। किलकारियों के साथ अपने बेटे को माँ कहते हुए सुन कर निर्मला का मन खुशी से झूम रहा था। “अले मेला गुड्डू, कितना प्याला है!! अपनी माँ को बुला रहा है। ये ले माँ आ गयी।”

इतने में गुड्डू के पिता ईश्वरदास अपने काम से आ गए। वो कुछ थके हुए थे। निर्मला खुशी खुशी बोली, “सुनो जी, आज अपना गुड्डू माँ बोल रहा है।” ईश्वरदास की जैसे थकान मिट सी गयी और चेहरे पर स्मित मुस्कान आ गयी, अपने ६ महीने के बेटे को गोद में ले कर उसे बहलाने लगे।

इस छोटे से परिवार में कुछ अधिक धन नहीं था, हालाँकि निर्मला महत्वाकांक्षी थी, लेकिन ईश्वरदास अपने काम से संतुष्ट थे और अधिक लालसा नहीं रखते थे। जो लोग जीवन को समझते हैं उनके लिए प्रेम ही सबसे बड़ा धन होता है।

रात को खाना खा कर जब ईश्वरदास सो रहे थे तो, निर्मला आ कर बोली, “सुनते हो, आज पड़ोस के शर्मा जी ने नया फ्रिज खरीदा है। बहुत ही सुन्दर है।” ईश्वरदास मुस्करा कर बोले, “अच्छी बात है।” निर्मला ने प्रत्युतर दिया, “अच्छी क्या है? अच्छी तो तब हो जब हम खरीदें।”

ईश्वरदास ने कहा, “तुम छोटी छोटी बातों से क्यों मन दुखी करती हो? अपने परिवार में प्रेम के साथ मन लगाओ, हमारे पास प्रेम की वो दौलत है जो बड़े बड़ों के पास भी नहीं है।”

निर्मला मुंह बना कर सो गयी।

शर्मा जी और उनका परिवार एक महीने पहले ही उनके पडौस में रहने आया था। उनकी माली स्थिति ईश्वरदास के परिवार से काफी अच्छी थी। उनकी एक बिटिया थी और उनकी पत्नी भी कहीं नौकरी करती थी। नौकरी के कारण शर्मा जी और उनकी पत्नी शाम को देर से घर पर आते थे, इस समय तक उनकी तीन वर्ष की बेटी स्कूल से आकर घर पर अकेली ही रहती थी। शर्मा जी की पत्नी ने निर्मला से विनती की वो अगर उनकी बेटी को सम्भ्हाल ले तो उनकी काफी मदद हो जायेगी। इसके बदले में उन्होंने रुपये देने की पेशकश भी जिसे ईश्वरदास ने नम्रतापूर्वक मना कर दिया लेकिन उनकी बेटी की देखभाल की जिम्मेदारी सहर्ष स्वीकार कर ली।

इस कारण से उनका आपस में घर आना जाना बढ़ गया। ईश्वरदास और निर्मला को कई बार शर्मा जी और उनका परिवार शाम की चाय या फिर रात के खाने पर निमंत्रित कर लेते थे। ईश्वरदास और शर्मा जी मित्र और उन दोनों की गृहस्वामिनियाँ आपस में सहेलियां बन गयी थे। दोनों बच्चे भी भाई बहन जैसे ही पल रहे थे।

शर्मा जी और उनकी पत्नी ईश्वरदास के परिवार में उच्च संस्कारों के कारण बहुत विश्वास भी करते थे और कई बार अपना पूरा घर निर्मला के हवाले भी कर जाते थे। और इस तरह जीवन का एक वर्ष और व्यतीत हो गया । निर्मला का पुत्र ११/२ वर्ष का हो गया था। उसका नाम ईश्वरदास ने बड़े चाव से सत्यवान रखा था।

एक दिन शाम को ईश्वरदास कुछ जल्दी घर आ गए तो देखा कि निर्मला बेटे को एक महँगा चोकलेट खिला रही है। ईश्वरदास ने बड़े प्रेम से पूछा कि “अरे, यह चोकलेट कहाँ से आया? किसी ने उपहार दिया क्या?”

“हाँ – हाँ.... वो पडौस की.... भाभी जी ने.....” – निर्मला ने प्रत्युतर दिया। लेकिन उसका फीका पडा चेहरा कुछ और ही कह रहा था, जिसे ईश्वरदास ने पढ़ लिया।

उन्होंने निर्मला से पूछ लिया कि, “निर्मला, क्या बात है, आज ऐसा क्यों लग रहा कि कुछ छिपा रही हो?”

“आप ऐसा क्यों सोच रहे हैं? शायद मुझे कुछ थकान है” – निर्मला ने कुछ थकी सी आवाज में कहा।

ईश्वरदास चुप हो गए। उन्हें दाल में कुछ खटका लगा, लेकिन गृहस्थी में कभी कभी चुप रहना सुख को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक होता है।

सच्चाई यह थी कि, निर्मला, शर्मा जी के घर से उनकी बेटी की चोकलेट ले आयी थी और अपने बेटे को खिला रही थी। जिस घर में केवल ईमानदारी की रोटी ही पकती थी, उस घर के बच्चे के मस्तिष्क में उदर के रास्ते चोरी की मिठास घुलती जा रही थी। बालक के रक्त में अगर धीरे धीरे मीठा ज़हर घोल दें तो जीवन भर के लिए उसके आचरण में विष ही घुला रहता है। लोग कई बार अपनी संतान को बुरा कहते हैं, लेकिन उस समय ऐसा नहीं सोचते, जब जलवायु और वातावरण के माध्यम से संस्कार देने की बारी आती है। हम समय का अपने मन के वशीभूत होकर दुरुपयोग करते हैं और फिर जब समय परिणाम दिखाना प्रारम्भ कर देता है तो अपनी भूल स्वीकार करने की बजाय समय और वातावरण को ही दोष देना आरम्भ कर देते हैं।

अब कई बार शर्मा जी के घर के जूते-चप्पल, निर्मला देवी के पैरों की शोभा बढाते, शर्मा जी की खरीदी हुइ अन्य कई छोटी वस्तुएं भी निर्मला के उपयोग में आती, कई बार फल और अन्य खाद्य वस्तुएं भी ईश्वरदास के घर पर आ जाती। ईश्वरदास अब कुछ समझ गए थे। उन्होंने एक दिन निर्मला को बहुत डाट पिलाई और फिर उनके २ दिन के निराहार उपवास के पश्चात निर्मला ने कसम खाई कि अब वो शर्मा जी के घर से कभी कुछ सामान लेकर नहीं आयेगी।

कुछ दिन सब ठीक चलता रहा। ईश्वरदास ने शर्मा जी से सम्बन्ध खराब ना हो जाये, इसलिए उन्हें कुछ नहीं कहा। निर्मला देवी के मन में लेकिन लालच आ गया था, लेकिन ईश्वरदास का डर भी कुछ कम नहीं था।

ईश्वरदास को दफ्तर के काम से कुछ दिनों के लिए दिल्ली जाना था। उनका बेटा बहुत खुश था कि, पिताजी दिल्ली से बहुत खिलौने लेकर आयेंगे। उन दिनों निर्मला, शर्मा जी के घर पर ही उनकी बेटी और अपने बेटे का ध्यान रखती थी। एक दिन शर्मा जी की बेटी की कान की बाली कहीं गिर गयी। वो शुद्ध सोने की थी, काफी ढूँढने पर भी नहीं मिली। शर्मा जी और उनकी पत्नी ने अपनी बेटी को फटकार लगाई और कहा कि आगे से ध्यान रखना।

सत्यवान की आँखों के सामने वही बाली रखी हुई थी, जिसे उसकी माँ सुनार को बेच रही थी। उस दिन माँ ने अपने बेटे के लिए कुछ खिलौने और कपडे खरीदे, और खुदके लिए भी काफी कुछ।

इस तरह से चलता रहा और सत्यवान १५ वर्ष का हो गया। दोनों परिवारों में मित्रता बरकरार रही और समय की धूल भी उसे मलीन नहीं कर पायी। निर्मला कई बार शर्मा जी के घर से छुपा कर कई वस्तुएं ले आती, लेकिन इसकी कानों कान भनक भी ईश्वरदास या शर्मा जी के परिवार को नहीं पड़ने देती। अगर किसी को पता चलता तो वो सत्यवान था, जिसको भी लालच था कि अब माँ कुछ ना कुछ नया और अच्छा दिलायेगी।

शर्मा जी की पुत्री के लिए कोलेज में दाखिला लेना था, ईश्वरदास दिल्ली जाते ही रहते थे। शर्मा जी ने उनसे विनती की कि वो उनकी बेटी के लिए कोई अच्छा सा कोलेज देखें, जिसमें गर्ल्स होस्टल भी हो। ईश्वरदास ने विनम्र भाव से सहर्ष ही उनकी विनती स्वीकारी और दिल्ली में एक कोलेज देख कर भी आ गए। शर्मा जी अपनी पुत्री और ईश्वरदास के पुत्र सत्यवान को लेकर दिल्ली के ओर रवाना हुए। साथ में फीस और अन्य व्यय के रुपये भी रख लिए।

ट्रेन में सवेरे जब नींद खुली और उन्होंने जेब टटोली तो सारे रुपये गायब थे। शर्मा जी के होश फाख्ता हो गए। किसी ने रात को सोते समय उनकी जेब से सारे रुपये निकाल दिये थे। फीस कैसे भी करके आज ही जमा करानी थी। ईश्वरदास ने समय को देखते हुए अपने परिचितों से रुपयों का बंदोबस्त कर दिया, और एक बार इस समस्या का निराकरण कर दिया। शर्मा जी उनके बहुत आभारी थे। लेकिन वे सब अनभिज्ञ थे कि ये रुपये उनके अपने विश्वासपात्र सत्यवान ने ही लिए हैं। उन रुपयों को पाकर वो बहुत खुश था और उस दिन उन रुपयों से उसने अपने जीवन पे पहली बार शराब भी पी।

सत्यवान का नाम ही सिर्फ सत्यवान रह गया था। सत्य तो कहीं दूर चला गया। समय का चक्र चलता गया। सत्यवान निर्मला की दिखाई राह पर चलता गया। बालक मन से किशोर अवस्था और किशोरावस्था से परिपक्वता। बचपन मन चंचल नदी होता है, किशोरावस्था में जो ठहरी हुई झील बन जाता है, सारी गहराई समुद्र बन कर परिपक्व होने पर आ जाती है। इस गहराई में वो कुछ अवस्थित हो जाता है जो नदी और झील के सागर में मिलने पर आ जाता है। सत्यवान के मन की गहराई में भी वो सब कुछ अवस्थित हो गया था, जो कि निर्मला द्वारा किया गया था।

तब तक उसके बारे में लोग जान गए थे, सत्यवान से सत्या और सत्या से सत्तूभाई बनने में इतना समय नहीं लगा था। दो बार कोतवाली भी काट आया था।

ईश्वरदास बहुत दुखी थे, और निर्मला का मन ग्लानी से भरा रहता था।

एक दिन ईश्वरदास ने निर्मला से कहा कि “कई बार मानव मन को गलत कर्म अच्छे लगते हैं, उनसे वो थोड़ी खुशी हासिल भी कर लेता है, लेकिन ईश्वरीय सच्ची खुशी केवल ईमानदारी और मित्रता से ही मिलती है। तुमने ज़रा से स्वार्थ के लिए अपने पुत्र को अपराधी बना दिया। आज तुम्हारे कर्मों की वजह से मैं भी भुगत रहा हूँ। ईश्वर करे अगले जन्म में मुझे तू या तेरी जैसी पत्नी नहीं मिले।”

निर्मला ये कटाक्ष सुन कर अवाक रह गयी। लेकिन उसके पास चुप रहने के अलावा कोई चारा नहीं था। उसका पुत्र उस राह पर था, जहां से लौटना इतना आसान नहीं था। ईश्वरदास की यह बातें उसके कानों में गूँज रही थी, "हम लोग कई बार सोचे समझे बगैर अपने बच्चों के सामने वो सब कुछ कर जाते हैं, जिसका उनके मन पर वो प्रभाव होता है, जिसके बारे सोच कर भी डर लगता है। इसलिए अगर कभी अपने नन्हे-मुन्नों के सामने कुछ गलत करने का सोचे तो पहले उसके प्रभाव के बारे में अवश्य सोच लें। तो आपको सही कार्य करने की राह मिल जायेगी। “माँ! माँ!...” में निहित प्रेम को और अधिक खूबसूरत बनाएं।"

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