JUNE 10th - JULY 10th
सुख की नींद
रात का तीसरा पहर रहा होगा, हाशमी मंज़िल में ग़मी का माहौल था| यूँ तो निचला मंज़िला काफ़ी वक़्त से वीरान रहा करता था मगर आज यहाँ इंसानों की सरसराहट थी, धीमे धीमे किसी के कुरान पढने की आवाज़ आती तो कहीं किसी कोने में कोई तस्बीह गिन रहा होता|
बड़े दीवानखाने से खाने की मेज़ और कुर्सियां हटवा दी गयी थीं, बुजुर्गों के बैठने के लिए एक तरफ़ तीन चार लकड़ी की कुर्सियां रखी थीं और बाक़ी लोगो के बैठने के लिए काले और सुर्ख बिंदियों वाले मोजैक के फ़र्श पे दरी बिछा दी गयी थी, उसी पर चादरें डलवा दी गयी थीं| दीवार से ज़रा सटा कर चौकी लगी थी, उस पर गद्दा डाल कर सफ़ेद चादर बिछाया गया था| अनवर मामू दीन दुनिया से बेखबर उसी सफ़ेद चादर पर अबदी नींद सो रहे थे| दसियों साल से बीमारियों में उलझा उनका बूढा कमज़ोर जिस्म जैसे आज कितनी राहत महसूस कर रहा था|
सर से पैर तलक उन्हें सफ़ेद चादर ओढ़ा दिया गया था, बड़े से कमरे में लोबान की खुशबु तैर रही थी, मय्यत के आस पास रिश्तेदार बैठे उकताई हुई नज़रों से थोड़ी थोड़ी देर में दीवार घड़ी की तरफ़ देख लेते थे कि कब सवेरा हो, कब नमाज़ जनाज़ा हो कब सब अपने घर को जाएँ| आखिर मग़रिब से पहले जान रुख़सत हुई है, कब तक कोई रखे रहे? मुर्दा यूँ भी जल्द से जल्द मिटटी पाए वही बेहतर है| दूर दराज़ के सारे नाते रिश्तेदार बेटे बेटियां पहुँच चुके हैं अब इंतज़ार किस बात का है...
इन्ही सब के दरमियान एक अलग ही वाक़या पेश हुआ| खैर वाकया क्या कहेंगे मगर औरतों की मामूली हरकतें भी हमारे शरीफ घरानों में वाकये की सूरत अख्तियार कर लेती है| दरअसल नवम्बर की शुरुआत थी क़स्बो देहातों में ठंड ज़रा जल्दी दस्तक देती है| पंखा वगैरा बंद था इस वजह से थोड़ा सन्नाटा महसूस हो रहा था कि तभी अनवर साब के पायताने की तरफ़ नीचे फ़र्श पे बैठी उनकी बीवी असमा, जिन्हें हम सब असमा मुमानी कहते थे उनके हल्के हल्के खर्राटे की आवाज़ आने लगी| ताज़े ताज़े कुछ घंटे क़ब्ल मुर्दे के पास से ख़र्राटों की आवाज़? वो भी उनकी सगी बीवी की? दीवानखाने में मौजूद सारे क़रीबी रिश्तेदार चौंक कर उन्हें देखने लगे, कुछ देर तक नज़रंदाज़ किया मगर टहूके देने पर पुकारे जाने पर भी वो हूँ हाँ करके वहीँ बैठी वापस सो गयीं उसी बेफ़िक्री से| इस रंजोग़म के आलम में ठहरी हुई ख़ामोशी के बीच उन खर्राटों की आवाज़ बेहद नागवार गुज़र रही थी| और साथ ही हैरानकुन भी!
कहाँ तो सबको लगता था कि अस्मा मुमानी रो रो कर अपनी जान दे देंगी, मामू के सिवा उनका और था ही कौन? रात दिन साए की तरह उनके आगे पीछे चलने वाली उनके सुख दुःख हारी बीमारी में हर पल साथ रहने वाली, अनवर मामू को अपनी दुनिया समझने वाली मुमानी उनके मुर्दा जिस्म के पास बैठी मज़े से सो रही थीं? ये बात बड़ी हैरान करने वाली थी|
एक हाथ में तस्बीह थामे दूसरे हाथ से तख़्त का पाया पकड़े, सूती दुपट्टे में लिपटा हुआ उनका सफ़ेद चेहरा...अपने दायें हाथ के बाज़ू पे सर रखे वो कैसी बेफ़िक्री से सो रही थीं...
अनवर मामू से तक़रीबन 20 बरस छोटी थीं वो, ब्याह कर आयीं तभी से एक अधेड़ उम्र के शख्स की ख़िदमत करने का सवाब उन्हें हासिल हो गया था| अपने मायके में ग़रीबी से उलझती पिसती अस्मा मुमानी जब यहाँ आयीं तो खाने पीने की ऐसी बहार देख कर उन्हें लगा ये तो दुनिया में ही जन्नत मिल गयी| इससे क्या गरज़ कि अनवर मामू के पहले से तीन बेटे बेटियां हैं, इससे क्या मतलब कि उनके बच्चे अस्मा मुमानी से चंद बरस छोटे हैं| कमस्कम जिंदगी जीने के हज़ारों जवाब थे यहाँ, ये कोई कम बड़ी नेमत तो नहीं!
खैर दुनिया के हुस्न पे ज़वाल आता है हर खूबसूरत शय महज़ चंद लम्हों पे टिकी है मगर ख़ुदा जाने अस्मा मुमानी की कौन सी नेकी उपर वाले को पसंद आ गयी कि उसने उन्हें ताज़िंदगी हसीं बने रहने का तोहफ़ा नवाज़ दिया| मगर कहते हैं न कि खूबसूरती तभी खिलती है जब उसे कोई देखे सराहे उसे चाहे| यहाँ ये बातें सिरे से नदारद थीं|
बेचारे मामू पे एक से एक बीमारियों की आफ़त आती गयी, नई नई दुल्हन बनी अस्मा मुमानी उनकी खिदमात में ऐसी लगीं कि बेदाम गुलाम हो गयीं| रिश्तेदार अगर कभी अफ़सोस जताते कि अस्मा बेचारी रात दिन सेवा में लगी रहती है तो मामू के बेटे बेटियां कहते
“अब्बा अपनी दुल्हन छोड़ कर हमारे पास आने को तैयार नहीं होते, वर्ना क्या हम ख़िदमत न करेंगे?
बेटा कहता
“ सूरत से सीधी ज़रुर दिखती हैं मगर भीतर से चालाक बहुत हैं मैं जानता हूँ|”
वाकई वो जानता था| दरअसल मामू के बेटे की भी अपनी अलग चिढ थी| सालों पहले जब अस्मा मुमानी इस घर में आयीं, अच्छा खाना पीना खाकर और खिल उठीं, वैसे भी असल हुस्न पेट की आँतों में है| अनवर मामू का बेटा उस वक़्त इस दिलफ़रेब रौशनी की ताब न ला सका, खुद से महज़ 7,8 बरस बड़ी उस फूल सी दोशीज़ा से इज़हारे मुहब्बत कर बैठा|
उसे अंदाज़ा था कि फ़ौरन हाँ हो जाएगी, कौन सी ये मेरी क्या लगती है? मेरी असल माँ मर चुकी है ये तो महज़ घर की जिम्मेदारियां निभाने को लायी गयी है| मगर यहाँ वो गलती पर था, अस्मा मुमानी का चेहरा यूँ ही नहीं दमकता था अस्ल में उसके पीछे उनके किरदार की मज़बूती थी|
उस रोज़ वो गुसलखाने से नहा कर निकलीं, तौलिये से लम्बे रेशमी बालों को बेदर्दी से तेज़ झटके मार मार कर सुखाये जा रही थीं कि तभी उसने तौलिया हाथ से लेकर उनकी उँगलियाँ थाम लीं और मुहब्बत का नाम लेकर अपनी सड़ी गली खाहिशों का इज़हार करने लगा|
अनवर मामू के यहाँ काम करने वाली रेहाना बताती थी कि उस वक़्त अस्मा मुमानी ने जो अंगारे का रूप धरा वो किसी ने ख़ाबों ख्यालों में न सोचा होगा| नाज़ुक सी परी जैसी अस्मा मुमानी इस अचानक हुई दस्तदराज़ी से न घबरायीं न बदहवास हुईं बल्कि इज़हार के बदले में उस नौजवान धडकते फडकते लड़के को करारे किस्म के दो चांटे रसीद का दिए साथ ही आइन्दा के लिए सख्त नसीहत की|
हालाँकि उस बात को सालों गुज़र गये मगर बेईज्ज़ती के ज़ख्म भरते कहाँ हैं? शर्मिंदा होने की बजाय वो उनसे ख़ार खाने लगा, खैर ये भी मर्दों की ख़ास फ़ितरत है क्या कीजे! औरत आसानी से हाथ आ गयी तब तो वो किरदार की हल्की है और अगर दाम में नहीं आई तो उस जैसा बदकिरदार कोई नहीं|
बहरहाल इसी तरह से हजारों शिकवे शिकायतों के साथ जिंदगी गुज़र रही थी| अनवर मामू बड़े मज़हबी थे इसलिए सारे खानदान से सख्त पर्दा करवाते थे, हालाँकि अस्ल वजह अस्मा की बेपनाह खूबसूरती थी लेकिन शरीयत से चलने वालों को कौन टोक सकता है भला? अस्मा लाख हसीं ठहरीं मगर कोई ग़ैर उन्हें क्यूँ देखे? अनवर मामू भले ही देखने सराहने के मरहले से आगे गुज़र चुके थे मगर अपने सामान पे हक़ उन्ही का था| वैसे भी मुमानी की अम्मा ने हमेशा समझाया था कि “दुनिया में भले ही दुःख सह लो, मरने के बाद अल्ला जन्नत में सारी ख़ुशियाँ देगा| बस दिल ज़ेहन को क़ाबू में रखियो|” तो बस इसी बात पे अमल करते हुए वो ख़ुशी ख़ुशी दुःख सहे जा रही थीं|
लेकिन इधर दस सालों से मामू बिस्तर पे आ गये थे, वो तो कहिये कि लम्बी चौड़ी ज़मीदारी आज भी थी खेत ज़मीने और दुकाने थीं जिनसे आमदनी होती और इज्ज़त से बसर हो रही थी| इन हालात में जिस तरह से अस्मा मुमानी बरसों से उनका पख़ाना पेशाब बिला शिकायत करती आ रही थीं देखने वाले उन्हें देवी का दर्जा देते कहते कि
“अनवर भाई की क़िस्मत है वर्ना इस दौर में ऐसी शरीफ़ औरतें कहाँ मिलती हैं? ऐसी वफ़ा परस्त इतनी ख़िदमत गुज़ार| ख़ुदा न खास्ता अनवर भाई की जिंदगी न रही तो अस्मा भाभी कैसे जियेंगी उनके बगैर?”
वो जो उनकी मुहब्बत में रात दिन खड़ी रहीं बरसो बरस का खयाल नहीं किया वो पाकबाज़ औरत अपने शौहर की मय्यत के पास सो रही हैं, बेखबर? ये बात कैसी नाक़ाबिले बर्दाश्त थी!
हल्की फुसफुसाहटें शुरू हो चुकी थीं| उनमे सबसे वाज़ेह आवाज़ अनवर मामू की समधन की थी यानि उनकी बेटी की सास की आवाज़| जो मेहमानखाने के एक कोने में नीचे बिछी चादर पे बैठी हर तरफ़ का जायज़ा ले रही थीं|
“कैसे मज़े से सो रही हैं, असल चेहरा अब ज़ाहिर हुआ है| तोबा तोबा!”
उन्होंने दुपट्टे को पेशानी से आगे खींचा और अनवर मामू की बेटी यानि अपनी बहू को टहोके मारते हुए दुबारा पूछा
“अरे कुछ खबर है क्या क्या इनके नाम कर गये हैं? ऐसा तो नहीं कि रूप का जादू दिखा कर सारा कुछ अपने नाम करवा लिया हो?”
“नहीं नहीं! अब्बा ने सिर्फ ये घर ही इनके नाम किया है बाक़ी सब भाई का है|”
“हुंह भाई का है! अरे शरीयतन और कानूनन तुम्हारा भी हक़ है मगर तुम्हारे अब्बा के दिल में इंसाफ़ रहा होता तब न? बीवी का याद रहा और बेटी को भूल गये|”
सास की फुसफुसाहट सुन कर अनवर मामू की बेटी एक पल को हैरान हुई, उसे अपनी ननद याद आ गयी जो ससुराल में ग़रीबी से जूझ रही थी मगर अम्मी ने साफ़ कह दिया था कि हमने शादी कर दी हमारी ज़िम्मेदारी खत्म!”
खैर अभी तलक सबकी आँखों से नागवारी झलक रही थी दिल ही दिल में सब बुरा मान रहे थे, मगर तब तक कोई भीतर वाले कमरे से रुकैया फूफ़ी को बुला लाया| फूफ़ी सफ़ेद गरारा पहने और सफ़ेद चिकन का दुपट्टा ओढ़े जो अपनी सफ़ेदी खोकर मटमैले रंग का हो चुका था| मज़बूत लाठी का सहारा लिए तेज़ी से मेहमानखाने तक आयीं|
क्या देख्रती हैं कि अस्मा मुमानी चौकी के पाए से टेक लगाये सो रही हैं, चौकी के ऊपर अनवर मामू सो रहे हैं नीचे बैठी मुमानी सो रही हैं| ये मंज़र देखते ही फूफ़ी के तलवों में आग लग गयी, आख़िर को अस्मा औरत थीं और औरतों को यूँ बेपरवा बेढंगा होने की इजाज़त कब है?
वैसे भी खानदान भर की औरतों को उनसे जलन हसद कम नहीं थी, वो तो कभी मौक़ा नहीं पाती थीं कुछ कहने सुनने का| आज उपर वाले ने क्या ख़ूब मौक़ा फ़राहम किया था|फूफ़ी उनके क़रीब गयीं, जलती निगाहों से उन्हें देखा गोया 70 बरस के अनवर मामू की मौत की ज़िम्मेदार वही हों| पास रखी कुर्सी के हत्थे का सहारा लिया और नाराज़गी से पुकारीं
“अस्मा! अस्माssss
उनके ज़ोर से कंधे हिलाने पर अस्मा मुमानी ने हडबडा कर आँखें खोलीं, नींद से भरी वो आंखे सुर्ख हो रही थीं| गोल सादा से चेहरे पे बला की मासूमियत उतर आई, बच्चों जैसे तजस्सुस भरे अंदाज़ में दुपट्टा सर पे जमाती हुई वो घबराई पूछ बैठीं
“क्या हुआ आपा?
“ए लो! अरे कुछ होश करो| तुम तो ऐसे बेफ़िक्र सोये जा रही हो जैसे जन्नत में बैठी हो| सारा खानदान इकठ्ठा है सब कुरान पढ़ रहे हैं मरने वाले के हक़ में दुआएं कर रहे हैं और तुम तो खर्राटे मार रही हो, वो भी मय्यत के सामने? कुछ तो शर्म करना चाहिए, ये शरीफों के घर की रवायत नहीं है!”
धीमे मगर कटीले अंदाज़ में बोलती हुई रुकैय्या फूफी ने जाने कब की भडास निकाली थी| अनवर मामू की बेटी ने उन्हें चुप कराना चाहा मगर वो तुर्शी से बोलीं
“ए हटो, उम्र बीत गयी ऐसे किसी को नहीं देखा, मियां की मय्यत सामने रखी है और बीवी खों खों सो रही है|” फूफी मुमानी के क़रीब रखी लकड़ी की कुर्सी पे बैठ गयीं|
अस्मा मुमानी की आँखें बेदार हो चुकी थीं उन्होंने बेचारगी से रुकैया फूफी को देखा और बोलीं
“बहुत ज़माने से ऐसी नींद नहीं आई, अनवर साब पूरी रात जगते थे और मुझे पुकारा करते, मैं रात में सोना भूल गयी थी आपा| मुझे लगता था अब मैं कभी सो नहीं पाउंगी मगर..आज वो ख़ामोश हुए तो...आज मुझे नींद आ गयी|” कहते कहते उनकी आँखें आंसुओं से भर गयीं, चेहरा भीगने लगा|
रुकैया फूफी ने एक नज़र उनके अफसुर्दा चेहरे को देखा और जाने क्या दिल में आया कि अपनी कमज़ोर झुर्रियों वाले बाजुओं में अस्मा मुमानी को समेट लिया|
पूरा मेहमानखाना रोने की तेज़ आवाज़ों से भर गया, हिचकियों की सिसकियों की बारिश के तले कोई नहीं जानता था कि इन आंसुओं में दुखों की कितनी परतें हैं!
सबाहत आफरीन
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kishorejajhar
सुंदर। कहानी अचानक मन गीला करती है। शुक्रिया।
mamtathinks
बहुत पहले इसी विषय पर मन्नू जी की एक कहानी पढ़े थी,पर यह कहानी उससे आगे की बात करती है,कई अन्य पहलुओं को दर्शाती है अतः बहुत ही शानदार कहानी है
mahwish150711
Amazing story ♥️♥️
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