श्रील प्रभुपाद के दिव्य गुणों के विवरण का न तो कोई अंत है न ही हम उनका यश कभी रोकना चाहते हैं। उनकी प्राप्तियों के साथ उनके गुण निःसंदेह उन्हें एक अभूतपूर्व दिव्य व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करते हैं।
श्रील प्रभुपाद अब भी हमारे साथ हैं, कृष्णभावनामृत आंदोलन के उत्तरोत्तर विस्तार को देखते हुए।हम अपेक्षा कर सकते हैं कि यदि हम उनकी शिक्षाओं का ध्यानपूर्वक अनुसरण करेंगे तो अनेक आश्चर्यजनक चीजें होंगी जिनकी कल्पना भी आज कठिन है।
भक्ति विकास स्वामी का जन्म 1957 में इंग्लैंड में हुआ। वे 1975 में लंदन में
इस्कॉन में सम्मिलित हुए और उसी वर्ष उन्हें इस्कॉन के संस्थापकाचार्य श्री श्रीमद्
ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद के द्वारा, इलापति दास के नाम के साथ दीक्षा
प्रदान की गई।
1977 से 1979 तक उन्होंने भारत में रहते हुए अधिकांशतः पश्चिम बंगाल में भ्रमण
कर श्रील प्रभुपाद की पुस्तकें वि तरित कीं। अगले दस वर्ष उन्होंने बांगलादेश,
बर्मा , थाईलैन्ड एवं मलेशि या में इस्कॉन के प्रचार को प्रारम्भ करने में लगाए।
1989 में उन्हें संन्यास आश्रम प्रदान कर उन्हें भक्ति विकास स्वामी नाम दिया गया।
उन्होंने पुनः भारत को अपना प्रचार-क्षेत्र बनाया। तब से उन्होंने पूरे उपमहाद्वीप
में अंग्रेज़ी , हि न्दी तथा बंगाली में प्रवचन देते हुए भ्रमण किया है। भक्ति विकास
स्वामी कुछ माह विश्व के अन्य भागों में भी प्रचार करते हैं, टी. वी. पर उनके हिन्दी
में प्रवचन करोड़ों लोगों द्वारा देखे एवं सुने जाते हैं।
भक्ति विकास स्वामी कृष्णभावनामृत से सम्बंधित विषयों पर विस्तृत रूप से
लिखते हैं। उनकी पुस्तकें बीस से भी अधिक भाषाओं में अनुवादित हो चुकी हैं
और इनकी पंद्रह लाख से भी अधिक प्रतियाँ वितरित हो चुकी हैं।
इसके अलावा, वे सादा जीवन और उच्च विचार पर आधारित वैदिक ग्राम्य प्रकल्प
और गुरुकुल के विकास में संलग्न हैं।