शिक्षा का अंतिम उद्देश्य क्या है? आज के भौतिक युग में यह एक यक्ष प्रश्न है। रोज़गार, शिक्षक बनकर शिक्षा देना, व्यवसाय या राज्याधिकारी बनना? इस प्रश्न के उत्तर हेतु लेखक डॉ. ओम् प्रकाश पाण्डेय अपने देश की प्राचीन और समृद्ध शिक्षा प्रणाली की ओर मुड़ते हैं और विशद अनुसंधान करते हैं।
प्रारम्भ में अपने राज्य-हित हेतु चिन्तित ,नायक महामात्य सत्यधन अपने सीमित कार्यक्षेत्र राज्य स्तर से ऊपर उठकर, बाद में राष्ट्रहित हेतु प्रयत्नशील होता है। मानव जाति के उत्थान हेतु स्वयं के सुख-साधनों को तिलाञ्जलि दे देता है। स्वयं को राजनीति से पृथक् कर लेता है, बाद में उसे इन सब कार्यों से विरक्ति हो जाती है। परन्तु नायक अपने मूल आत्मिक गुण’लोकाराधन’ (मनुष्य मात्र की सेवा) से स्वयं को पृथक् नहीं कर पाता है।
महारानी के पद से एक सामान्य स्त्री के रूप में तपस्यारत नायिका शुभंवदा की अहंकारशून्यता, उसके भारतीय नारी के विशिष्ट रूप को प्रदर्शित करती है। शुभंवदा का उदात्त चरित्र पाठकों को प्रभावित करता है। नायिका शुभंवदा का नायक सत्यधन से मैत्री-भाव, सत्यधन के प्रति उसकी चिन्ता और सत्यधन पर अधिकार, उपन्यास के गंभीर विमर्श में लालित्य और छायावादी स्नेहिलता भर देता है।
‘लोकाराधन’ प्राचीन कालीन शिक्षा, समाज तथा षड्विध राजनीति (सन्धि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय एवं द्वैधीभाव) पर प्रकाश डालता है। अट्ठाईस तरंगों में विभक्त यह उपन्यास, पहली तरंग में ऐसी जिज्ञासा उत्पन्न करता है कि पाठकों के लिए आद्योपान्त उपन्यास पढ़ना बाध्यकारी हो जाता है।
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