वो छत

सुपरनैचुरल
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अब्दुल अपनी खटिया पर लेटा हुआ उसकी आवाज़ सुन रहा था...टप...टप...टप...!लगता है बाल्टी भर चुकी है,अब खाली करनी होगी,वरना पानी फैलने लगेगा।अब बहत्तर साल की उम्र भी बहुत होती है।उसके सामने उसकी प्यारी बेगम हसीना भी ग़ुज़र गई।अब्दुल कुछ न कर पाया।डॉक्टर साहब ने बोला था कि आपरेशन होगा।सर में गांठ है।पूरे पैंतिस हज़ार का ख़र्चा था।अब्दुल ने किस-किस से मदद न माँगी!खेती-बाड़ी भी नही थी कि बेच दें।बस गाँव के प्रधान ने पाँच हज़ार दिए और बोला,"देखो अब्दुल!तुम ठहरे ग़रीब आदमी!न तुम्हारे कोई ऐसे रिश्तेदार बचे,न तुम्हर लड़के-बच्चे हैं!पैंतिस हज़ार बहुत बड़ी रक़म होती है!मेरी बात मानो!ये पाँच हज़ार रुपये रखो!बेग़म को खिलाओ-पिलाओ,खुश रखो!बाक़ी अल्लाह से दुआ करो!होनी को कौन टाल सकता है!"

अब्दुल को लगा पानी फैलने लगा।वो किसी तरह सहारे से उठा और अपनी छड़ी के सहारे दूसरे कमरे में गया।बाहर घनघोर बारिश हो रही थी।ये बारिश हर साल मुसीबत ले कर आती है।जाने कहाँ से पानी इकट्ठा हो कर टपकने लगता है!अब्दुल ने बड़ी मुश्किल से बाल्टी उठा कर बगल में रखे लोहे के जंग लगे बड़े से ड्रम में पलट दी और फिर खाली बाल्टी ठीक पानी की बूंदों के नीचे लगा दी।

उसने सर उठा कर देखा तो उसे लगा जैसे ये बारिश और इसकी घर में टपकती बूंदें उसे चिढ़ा रही हैं।जैसे दोनो ने अब्दुल को परेशान करने की क़सम खा रखी थी।अब्दुल फिर जा कर अपनी खटिया पर लेट गया।राज-मिस्री से एक दिन पूछा था।मिस्री बाँस की सीढ़ी से चढ़ कर छत पर गया।उस छत पर चढ़ने का वही माध्यम था-बाँस की सीढ़ी।अब्दुल भी पहले उसी से छलाँग मार कर छत पर चढ़ जाता था।पर वो जवानी के दिन थे।जबसे घुटनों का दर्द शुरू हुआ था,अब्दुल छत पर नही चढ़ा!पर उसका दिल बहुत चाहता था कि छत पर एक बार जाए।उसके बचपन और जवानी की अनमोल यादें उस छत से जुड़ी थीं।मिस्त्री नीचे उतर आया था।बोला,"बड़े मियाँ!तुम्हारी कोठरी की छत तो बिल्कुल बेकार हो चुकी है।सारा प्लास्टर जगह-जगह से उखाड़ा है!घास-फूस और न जाने क्या-क्या उग आया है!बहुत खस्ता हाल है!बारिश में पानी तो रिसेगा ही!समझ लो ये छत कभी भी जा सकती है!इसकी मरम्मत कराना बेकार है।पूरी नई छत डालनी पड़ेगी।लगभग सब समान मिला कर कम से कम चालीस हज़ार का ख़र्चा आएगा!"

अब्दुल को फिर लगा कि बाल्टी भर कर छलक रही है।फिर से उसने वही काम किया।देखा तो ड्रम भी आधा भर चुका था।छत से टपकती पानी की बूंदों को देख कर बोला,"या परवरदिगार!अब बस भी करो!!गाँव के खेतों की तो अब तक अच्छी सिंचाई हो चुकी होगी!"और वापस अपनी खटिया पर लेट गया।उसके अब्बा ने बड़े शौक़ से ये दो कमरे का घर ख़रीदा था।परते में मिल गया था।उस ज़माने में पाँच हज़ार बहुत बड़ी रक़म होती थी।घर के पिछले मालिक ने नई कोठी बनवा ली थी।अब्दुल के अब्बा से बोला,"मियाँ रफ़ीक़!तुम भले आदमी हो!तुम ही ले लो इसे!रफीक़ ने कुल जमा पाँच हज़ार अपनी जेब से निकाल कर उसकी हथेली पर रख दिये।बोला,"हज़ूर!मेरे पास इतनी ही जमा-पूँजी है!"तबसे अब्दुल हर समय छत पर ही टंगा रहता!उसके अब्बा कहीं से एक बाँस की सीढ़ी ले आये थे,पर वह इतनी कमज़ोर थी कि बस अब्दुल और उसके दोस्त ही उस पर चढ़ पाते।अब्दुल तब आठ-दस साल का रहा होगा।उसे तो छत पर पतंग उड़ाने में बड़ा मज़ा आता।अम्मा कभी कपड़े सूखने के लिए छत पर डालने को बोलती,कभी पापड़ बना कर दे देती!अब्दुल की ज़िंदगी ही वह छत हो चुकी थी।अब्दुल का मन कभी अपने अब्बा की बाल काटने की दुकान पर नही लगा।हाँ!अब वो इतना बड़ा हो चुका था कि पड़ोस के घर में रहने वाली हसीना को कनखियों से देख सके।बढ़ते-बढ़ते ये मोहब्बत में बदल गई और फ़िर निकाह में।अब्दुल के दोनो बड़े भाई अब्बा की दुकान में काम सीखते-सीखते कटिंग मास्टर हो गए।अब घर में उतनी ग़रीबी नही रही।अब्दुल अब चालीस साल का हो चुका था।उसके दोनों भाइयों ने अलग दुकान खोल ली थी और अलग दूसरे मकान में अपने बीवी-बच्चों के साथ रहने लगे थे।

अब्दुल की अम्मा और अब्बा तब तक अल्लाह को प्यारे हो चुके थे।अब्दुल कुछ न कुछ बेगारी कर के अपना और हसीना का पेट पालता।हसीना को जाने क्या बीमारी थी कि वो कभी माँ न बन पाई।उसी के लिए एक बार अब्दुल हसीना को शहर के बड़े अस्पताल ले गया।क्योंकि हसीना के सर में अक़्सर भयानक दर्द उठता था।जिस काम के लिए गया था वो तो पीछे रह गई।स्कैन में हसीना के सर में ट्यूमर निकला।डॉक्टर साहब ने समझाया,"देखो!इनका ट्यूमर अगर बढ़ गया तो इनकी जान को ख़तरा है!जितना जल्दी हो सके ऑपेरशन करवा लो!"

बाल्टी फिर भर चुकी थी और अब बारिश बंद हो चुकी थी।छत पर पड़ने वाली बारिश की आवाज़ से ही अब्दुल को पता चल गया।खिड़की से धूप आने लगी थी।याने के बादल भी छंट चुके थे।अब्दुल ने चैन की साँस ली और करवट बदल कर सो गया।उसके सपने में हसीना आई,अम्मी-अब्बा आए,बचपन के दोस्त आए ,बाँस की जर्जर सीढ़ी आई,उसके घर की वो छत भी आई।छत जैसे कुछ कह रही थी।छत की सारी प्यारी यादें उसके ज़हन से हो कर ग़ुज़र गईं।अब्दुल को सपने में लगा जैसे छत बोल रही हो,बल्कि चिल्ला रही हो,"अब्दुल!भाग!जल्दी भाग....!"

अगले दिन पूरा गाँव अब्दुल के घर के सामने इकट्ठा था।अब्दुल की अर्थी सजाई जा रही थी।प्रधान ने कहा,"मैंने तो कितनी बार बोला कि अब्दुल ये घर अब खंडहर हो चुका है,कभी भी गिर सकता है!तुम मेरे बाहर वाले कमरे में रह लो!पर इसे पता नही इस घर और इसकी छत से क्या लगाव था!चढ़ तो पाता नही था,बस बैठ कर घंटों निहारा करता था इस छत को!"

पड़ोस के अलगू बोले,"जैसे ही कल बारिश ख़त्म हुई और धूप निकली,उसके थोड़ी देर में ही मैनें बड़ी तेज़ आवाज़ सुनी!भाग कर बाहर आया तो अब्दुल की पूरी छत ढह चुकी थी!छत और दो दीवारों के सिवा बचा ही क्या था घर में!मैं फ़ौरन चीखा और सबको बुलाया।अब्दुल को आवाज़ भी दी पर कोई जवाब नही मिला!फिर जब सबने मिल कर ढूंढ़ना शुरू किया तो अब्दुल उसी छत के मलबे में दबे मिले!हड्डी-पसली सब वराबर हो चुकी थी!पर...पर चेहरे पर मुस्कुराहट थी!"

-पिंगाक्ष त्रिपाठी

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