JUNE 10th - JULY 10th
चाँदनी चौक की सड़कों से गुज़रते हुए उसने रिक्शा वाले को दाहिने मुड़ने का इशारा कर दिया था । बहुत देर तक बहस के बाद वह वहीं खड़ा अपने पैसों का हिसाब माँगने लगा था ।
"न- न –न बल्लीमारान में हम रिक्शा ले जाने लगे तो वापस नहीं आ पावेंगे ! ई चाँदनी चौक है ,मैडम इंहा तिनका को भी जगह देख के बनानी पड़े है।"कहकर दाँत चिरियाते हुए वह फिर लाल क़िले की तरफ़ मुड़ गया था । वह अभी भी वहीं खड़ी थी और रास्ते को ठीक से देख रही थी । सामने की पुरानी ईमारतें ,चप्पलों की दुकानें और एक भीड़ से भरी हुई गली जो उसे दुनिया की सबसे विचित्र जगह जान पड़ी । बैग के हत्थे को उसने कसकर थाम लिया था। फिर चौक पर खड़े रेहड़ी वाले से ग़ालिब की हवेली का पता पूछा । जिस पर उसने पहले सीधा जाने को कहा और फिर आगे से दाएँ , फिर जूस वाले की दुकान के बाद फिर दाएँ मुड़ने की सलाह दे डाली थी । दुकानों के बीच दुकान और रास्तों के बीच से गुज़रती हुई पतली गलियाँ और गलियों के बीच आसमान में टँगे खुले नंगे तार उसे किसी हड़प्पा सभ्यता की नहीं बल्कि नानी की डायरी की याद दिला रहे थे । हर क़दम के बाद उसे लगता जैसे वह किसी लिखे हुए शब्द को यूँ का यूँ जीवित होते हुए देख रही है । दुकानों के बीच बने घर जिनके दरवाज़ें किसी राजमहल जितने बड़े थे और नक़्क़ाशी किए हुए थे उसे बेहद आकर्षक जान पड़े । रास्ते में आने वाली हर गली के मोड़ पर वह रुकती और रुककर एक टक उन घरों को देखती ,जो शायद सौ साल से भी अधिक पुराने थे ।लेकिन अपने को अभी भी अवशेषों की तरह जीवंतता के साथ समेटे हुए थे । नए तरह के रंगों से पुते हुए पुराने दरवाज़ें जिनके भीतर से समय झाँकता और एक सदी की झलक देता । यह उसकी नहीं नानी की दुनिया थी । जिसमें चूड़ियों की खनक से लेकर ग़ालिब का इतिहास तक दर्ज़ था । ठीक यहीं इसी गली में किसी रोज़ नाना ,नानी से टकराएँ होंगे । उसने अनुमान लगाया और उसके गालों पर संतोष से भरी मुस्कान तैर गई । हर गली में एक आदमी एक यात्रा का हिस्सा हो रहा था । चलते हुए उसे काफ़ी समय बीत गया था । उसने जूस की दुकान पर रुककर फिर एक बार रास्ता पूछा -" ग़ालिब की हवेली वाली गली किस तरफ़ होगी ?" जूस वाले ने पहले कुछ मुस्कान की मुद्रा बनाई फिर तेज़ी से बोल पड़ा -" अमा यहीं है ,यहाँ से दाएँ हो जाइए और ये रहा ग़ालिब का दयार " ! कहकर वह फिर अपने काम में लग गया । थोड़ी देर आगे बढ़ने पर वह एक बड़े दरवाज़े तक पहुँच गई । नक़्क़ाशी नुमा दरवाज़ा जिसमें एक छोटे दरवाज़े से बच्चे अंदर और बाहर हो रहे थे और जिसके भीतर से तीन चौबारे निकलते । एक ग़ालिब की मूर्ति तक का,एक जो किसी के घर में खुलता था और एक जो ग़ालिब की गली तक जाता । उसने गली तक का रास्ता लिया ।गली की दीवार पर ग़ालिब की पेंटिंग बनी थी । भीतर के गुम्बदनुमा कमरों में उनके लिखे उर्दू के पैगाम लगे थे । उसने शीशे के बक्सों को छुआ तो उसकी देह के रोंगटे खड़े हो गए ,उसके बदन में एक अजीब सी थरथराहट उठ आई । ये ग़ालिब का लिखा है। उर्दू का महान शायर जो आज भी अपनी हेवली की दीवारों में यूँ का यूँ कौंधता है । वह शब्दों को छूकर मुड़ी ही थी कि पीछे से किसी ने एक शेर पढ़ डाला -" कहते हैं ग़ालिब का था अपना अंदाजे बयान !" उसने मुड़कर देखा तो ठीक उसके सामने लाल रंग की शर्ट पहने एक लड़का खड़ा था ।वह उसे देख कुछ अचंभित हुई ही थी कि उसका नाम उसकी ज़ुबान पर तैर गया ।
"कल्पना चलो मैं हेवली तक ले चलूँ ,शाम हो जाएगी तो कहीं पहुँचना मुमकिन न होगा "
उसने कुछ ताज़्जुब से उसकी तरफ़ देखा । फिर ज़रा हल्की सी आवाज़ में उसका नाम दोहरा दिया !
" अफ़ज़ल….?
“तुमने मुझे कैसे पहचाना ? "
तुम्हारी अम्मी ने मुझे तस्वीर भेज दी थी ।कहते हुए अफ़ज़ल ने ज़रा सी मुस्कान दी और आगे की ओर बढ़ गया । अब वह और अफ़ज़ल गली से आगे बढ़ गए थे । ठीक एक गली आगे बढ़ते हुए अफ़ज़ल ने उसे एक दरवाज़े के पास रोक दिया । दरवाज़ा ठीक कई सदी पुराना और धूल लगा था जिसकी मुंडेर पर कबूतरों ने घर बना लिया था । कबूतर का एक जोड़ा अफ़ज़ल और उसे झाँककर देख रहा था जैसे सालों बाद उन्हें अपनी जगह हथिया लेने का डर सता रहा हो । अफ़ज़ल ने हवेली खोल दी थी । जालों के बीच से अब वह जगह बनाने की कोशिश में लगा था । हर एक जाले को पार करते हुए वह उसे अंदर आने का इशारा करता और वह विश्वास कर भीतर जाती -जाती । हल्की रौशनी में लिपटा बरामदा किसी भूतिया जगह की याद दिला रहा था । यहीं ठीक, यहीं नानी कथक किया करती थी, उसे औचक उनका डायरी में लिखा हुआ याद आया और उसने अपने पैर में पड़ी पायल को खनका दिया ।
"अरे बाप रे तो क्या आप भी कथक करेंगी अब यहाँ ?" अफ़ज़ल ने कुछ छेड़ते हुए कहा । फिर नज़रें काम की ओर मोड़ ली ।बरामदे की लाइट जलाई और पास से किसी को बुलाकर सफ़ाई में मशरूफ़ हो गया । कल्पना बहुत देर तक बरामदे में खड़ी छत की नक़्क़ाशी को देखती रही । फिर डायरी का एक पन्ना निकालकर पढ़ने लगी जिसमें लिखा था
"यहाँ नाचते हुए लगता है ,जैसे मैंने सारे आकाश को अपने में पा लिया है । आकाश को पाना प्रेम को पाने जितना कठिन ही है !"
पढ़ते हुए उसने आकाश की ओर देखा और मुस्करा दी ।फिर उसने बैग को अपनी ओर सरकाकर उसमें से घूघरुं निकाल लिए । अफ़ज़ल ने तब तक सफ़ाई का काम पूरा कर लिया था। वह कुछ खाने की चीज़ें और पानी की बोतल ले आया था । कुछ देर में अँधेरा होने वाला था ,उसने कुछ कमरों की लाइटें जला दीं थी । कल्पना उठकर कमरे में गई और पास की अलमारी खोल दी ,अलमारी में कुछ कैसेट और एक टेपरिकॉर्डर मिला । उसने अफ़ज़ल को बुलाया और स्विच लगाकर उसे चालू करा दिया । टैप में किसी महिला की आवाज़ थी और कुछ बंदिशें जो वे गा रहीं थीं ।
"ये नानी की आवाज़ है ," अफ़ज़ल ने कहा फिर उनके कुछ क़िस्से सुनाने लगा ।
"तुमको भी कथक का शौक है ? कुछ बंदिश गा लेती हो या नहीं ?" उसने पूछा फिर कैसेट का बटन बंदकर दिया । बंदिश ख़त्म हो गई थी ।
कल्पना बहुत देर तक उसके सवालों को सुनती रही । कमरे में दोनों के बीच दो पल की चुप्पी तैर गई थी । फिर उसने जवाब देने शुरू किए । कुछ जवाब इतने लंबे होते हैं कि उन्हें देने में समय बीतता जाता है । जवाब देने में शाम कब बीत गई दोनों को पता ही नहीं चला । ख़ाली हेवली में शाम का अँधेरा और उसमें तैरती साँय-साँय की आवाज़ें कल्पना को कुछ असहज महसूस करवाने लगी थी ।
"क्या तुम आज रात यहीं रुक जाओगे बिना किसी को ख़बर हुए " कल्पना ने बहुत उम्मीद से उसकी ओर देखकर पूछा । एक तो यह जगह उसके लिए नई थी तीस पर इतनी बड़ी और पुरानी हवेली में उसका डर गहरा हो गया था । अफ़ज़ल ने हामी भर दी । सारी रात वह नानी की डायरी उसे पढ़कर सुनाती रही । दिन में हवेली की साफ़ -सफ़ाई से लेकर उसकी सजावट का काम चल निकला था । ठीक कल यहाँ उसका शो होगा । नानी की तरह वह कथक में निपूर्ण भले ही न हो लेकिन नाम उसका भी कम नहीं । बंदिशें तैयार करने में पूरा दिन निकल गया ।रात में उसने टेप पर कैसेट चढ़ा दी और कुछ टुकड़े दोहारने लगी । अफ़ज़ल देख रहा था कि हवेली में इतिहास लौट रहा है ।शो का दिन लौट आया था ,कल्पना को कुछ घबराहट हुई थी । बाहर बहुत लोग जमा नहीं थे लेकिन तब भी ,वह कुछ डरा हुआ महसूस कर रही थी ।
अफ़ज़ल ने उसके कँधे पर हाथ रखकर ढाँढस बंधाई,फिर आँखों को झपकार मुस्कारते हुए कहा । “अरे डरो नहीं यहाँ मेरे सिवाय किसी में इतनी समझ नहीं है कि तुम्हारी गलतियों पर उनका ध्यान जाए” और फिर तेज़ ठहाका मारकर हँसने लगा ।कल्पना ने टेप में लगी कैसेट चला दी थी ।
यह नानी की गाई बंदिश थी। जिस पर उन्होंने ठीक उस दिन प्रस्तुति दी थी जब वे नाना से पहली बार मिली थीं । इसके बाद ही हवेली ने धर्म और जात की अवधारणा को तोड़ा था।
प्रेम में बंधी इस बंदिश के स्वर सूफियाना थे । हलेवी में सिर्फ़ उसके पैरों की थाप और बंदिश के स्वर गूँज रहे थे । देखने वाले कभी उसकी तरफ़ देखते और कभी टेपरिकार्डर को देखते जो बीच -बीच में कहीं -कहीं पर अटक जाता । लेकिन कल्पना के पैर वे बिना संगीत के भी मानो यूँ थिर रहे थे जैसे हवेली की चुप्पी ही कोई राग हो । जल्दी ही परफॉर्मेंस ख़त्म हो गई थी । हवेली में तालियों की सँगीत के स्वर एक लंबी सदी के बाद गूँजे थे ।
परफॉमेंस ख़त्म करते हुए कल्पना ने अफ़ज़ल का आँखों -आँखों में शुक्राना किया । अफ़ज़ल ने आँखों ही आँखों में उसके प्रति नेह ज़ाहिर किया । हवेली में उस दिन सिर्फ़ कल्पना नहीं लौटी थी ,न सिर्फ़ हवेली का इतिहास लौटा था बल्कि एक पुरानी कहानी भी फिर से लौटकर आई थी । जिसे नानी की डायरी और उनकी बंदिशों ने मिलाया । प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद सब अपने घर की ओर लौट गए थे । हवेली में फिर एक बार सन्नाटा था । अफ़ज़ल तय नहीं कर पा रहा था कि वह रुके या चला जाए । रुकने और कहने के बीच एक असमंजस के भाव को वह न तो ज़ाहिर कर पा रहा था और न ही चुप रह पा रहा था । कल्पना को यह बात भाँपने में समय नहीं लगा ।उसने आगे बढ़कर फिर उसे रुकने को कहा लेकिन वह किस रिश्ते से रुकेगा ? लोग क्या कहेंगे जैसी बातें उसके दिमाग़ में तैर रही थी ।अफ़ज़ल दरवाज़े से बाहर चला गया था ।कल्पना ने कुंडी लगा ली थी । हवेली की पिछली सीढ़ियां उसके घर में निकलती थी । जहाँ से हेवली में लौटकर आया जा सकता था । थोड़ी ही देर में अफ़ज़ल फिर हवेली के अंदर था और कल्पना के पहले से ज़्यादा पास ।
लेकिन यह रास्ता आसान नहीं था । कल्पना को कल ही तुरन्त लौटना था ,इस एक एहसास के साथ कि अफ़ज़ल और वह यहीं हवेली में मिलते रहेंगे । हवेली साल में एक बार खुलने लगी थी । हवेली की जगह की सारी जिम्मेदारी अफ़ज़ल ने अपने कँधों पर उठा ली थी । साल में एक बार कल्पना अपने शो के लिए आने लगी थी । अब वह अपने काम में निपूर्ण हो गई थी । हर बार साथ होने और मिलने पर वह अफ़ज़ल और खुदको कैमरे में कैद कर अपने साथ ले जाती । इस बार वह लौटी तो साथ में कुछ कागज़ लेकर आई थी ।
उसने अफ़ज़ल को कागज़ थमाकर कहा –“ इन्हें जल्दी से भर दो ताकि मैं दिल्ली और तुम्हारी दोनों की हो सकूँ ।“
अफ़ज़ल बहुत देर तक पन्ने पलटता रहा । फिर बहुत ख़ामोशी से बोला “ लेकिन हमारे रिश्ते को यह ज़माना नहीं मानेगा”
कहते हुए उसने कल्पना की तरफ़ देखा
।
“रिश्ता ज़माने को नहीं हमें मानना है “
कल्पना ने अपनी पलकें झपकाते हुए कहा । मानो वह अपने प्यार और रिश्ते को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हो । अफ़ज़ल ने कागज़ों पर जल्दी से दस्तख़त कर दिए और दो ही दिन में दोनों ने निक़ाह कर लिया ।हवेली ने फिर दो प्रेमियों को मिलवा दिया था। दोनों ने हवेली के गेट पर एक तख़्ती लगाकर टाँग दी थी “ यहाँ जात ,धर्म नहीं सिर्फ़ मोहब्बत निभाई जाती है” ।
गालिब़ की हवेली से कुछ गली दूर ही इश्क़ एक सदी बाद फिर पल रहा था ये गालिब़ को कहाँ पता था।
#158
தற்போதைய தரவரிசை
1,52,860
புள்ளிகள்
Reader Points 860
Editor Points : 1,52,000
18 வாசகர்கள் இந்தக் கதையை ஆதரித்துள்ளார்கள்
ரேட்டிங்கஸ் & விமர்சனங்கள் 4.8 (18 ரேட்டிங்க்ஸ்)
nsnikhilsri33
umeshgupta2013202
बहुत उम्दा लिखा है पूर्णिमा जी
sahilkairo99
वाह!
Description in detail *
Thank you for taking the time to report this. Our team will review this and contact you if we need more information.
10புள்ளிகள்
20புள்ளிகள்
30புள்ளிகள்
40புள்ளிகள்
50புள்ளிகள்