JUNE 10th - JULY 10th
समय का अंदाज़ा तो नहीं पर शायद कुछ मिनटों के बाद, मेरे कानों में मेरा छोटा नाम धीरे धीरे तेज़ हो रहा था। मुझे जब होश आया तब मुझे पता चला कि मैं बेहोश हो गयी थी। ऐसा लगता था मानों कोई तूफान आया और मेरी सारी शक्ति को सुखाते हुए कहीं दूर विलीन हो गया। अब उसके अवशेष, मेरा कमज़ोर पड़ा शरीर और भारी सिर था। हमारे गाँव में घूमने के दौरान एक कम उम्र की, राह चलती हुई लड़की को हमसे ना जाने कौन सी कोफ़्त हुई के हमें घूरते घूरते ही शायद उसने गिट्टी उठाने का फैसला लिया।
वो लगातार हम सब को घूरती रही, उसे देख हमारी हँसी छूट रही थी, कि अचानक एक पत्थर दीदी की बायीं आँख के ठीक ऊपर लगा, धप्प। खून के बहते रहने से ये समझना मुश्किल था के चोट आँख में लगी या भौहों पर या सिर फूटा।
दीदी ने सफेद शर्ट पहन रखी थी जिसका अब बस पिछला हिस्सा ही सफेद रह गया था। खून का बहाव इतना तेज़ की खून सोखने की शक्ति के बावजूद सूती कपड़े की शर्ट से ज़मीन पर बूंदे बारी बारी से टपक रही थी।
अपनी कायरता और अदृश्य डर का मुझसे सामना उसी पल हुआ। मुझे दीदी की हालत देखते ही कुछ होने लगा। पूरा शरीर जागे रहने की जद्दोजहद में पसीना फेंक रहा था पर मन पर ऐसा गहरा असर हुआ था उस चोट को देखकर कि शायद आँखे खुद ब खुद बंद हो जाना चाहती थी। नसों में भय से रक्त की जगह मानो बर्फ दौड़ रही थी जो कान तक पहुँच कर उसे सुन्न करने की फिराक में थी। हाथ पैर की शक्ति इतनी कम हो चुकी थी कि क्या सड़क क्या बिस्तर ।शायद शरीर खुद को, किसी के दर्द की भयाक्रांत स्थिति को देखने से बचाना चाहता था और आँखों के आगे धीरे धीरे रोशनी की कटोरी खाली होती गयी और घुप्प।
माँ के लिए ये चिंता की बात थी क्योंकि हर वक़्त कोई आपके पास मौजूद नहीं रह सकता।
छठवीं की परीक्षा का पहला दिन, मैं खूब मेहनत से पढ़ती थी और परीक्षा से डरने जैसे फोबिया से कोसों दूर थी। मैं खुद को बहुत मजबूत मानती थी उस दिन के पहले।
एग्जाम हाल में अपनी जगह पर पहुँचकर, मैंने पूरी मुस्तैदी से अपनी टेबल चेक की, पर ये क्या! जब आप किसी बात पर ज्यादा ही ध्यान देते हैं तो उसमें आपको कोई न कोई खोट नज़र आ ही जाता है।
उस टेबल के एक तरफ एक कील निकली थी जो किसी को चुभ न जाए इस मंशा से टेढ़ी करके ठोंक दी गयी थी। खैर मुझे ये बात खटक रही थी फिर भी मैंने उस तरफ अपना पेन बॉक्स रखकर लिखने का फैसला किया था।
जैसे ही कॉपी मिलती है, तो हालत ये होती है जैसे आप स्टेशन पर खड़े हों, हरी झंडी दिखा दी गयी हो और आपको अभी अपने पूरे सामान के साथ ट्रेन पर चढ़ना हो। इसी तेज कदमी के चक्कर में मेरी कोहनी ने कील के मुड़े हुए हिस्से पर दे मारा। मामूली सी खरोंच,पर अफसोस! कि मुझे पहला वाकिया याद हो आया। जब आप कोई डरावनी फिल्म देखते हैं तो इसका खामियाज़ा तब तब उठाना पड़ता है, जब जब आप अंधेरे में हों, या अकेले हों। हद तो तब हो जाती है जब आप उस वक़्त आईने में खुद को देखकर मुस्कुरा भी नहीं सकते। वरना कहीं वो भूतिया चुड़ैल आपके रूप में ही आईने से बाहर न आ जाए।
ये कैसा डिफाल्ट सिस्टम था मुझमें, मेरी समझ से परे था।
मैं अपने इस डर से उबरने के लिए जितनी कोशिश करती उतना ही ये मुझ पर हावी होता जाता। पर मुझे उस वक़्त खुद से ज्यादा शालिनी की चिंता होती और उसे मेरी। उसने एग्जाम हाल में मेरी हालत देखी थी। वो मेरी अच्छी दोस्त बन गयी थी; हमें साथ साथ 2 साल हुए थे। शालिनी मिलनसार थी और मुझे बस उसका सहारा। वो स्कूल न आये तो मेरा दिन अकेले गुज़रता। एक बात मुझे उसके बारे में खटकती, मुझे शालिनी की बातें झूठ या किसी कहानी सी लगती।
उसकी हर बात, किसी अंधेरे कमरे में चलने के जैसी होती, किसी भी चीज से टकरा जाने का खतरा। मेरी बेहोश हो जाने की बात उसे किसी चुटकुले सी लगती। अरे यार, ज़रा सी चोट से कोई बेहोश कैसे हो सकता है। उसे मेरी बातों पर यकीन न होता और मेरे लिए उसकी बातों पर यकीन करने का मतलब, अपने दिमाग को घर पर आराम करने के छोड़कर चले आना था।
अक्सर उसकी कॉपी पर स्याही के छींटे रहना; कटे फटे पन्ने। एक बार तो कला की कॉपी में सिनरी पर वॉटर कलर को उड़ेल दिया गया था। उसके चेहरे पर अशांति और परेशानी इतनी थी कि कोई भी देखकर बता सकता था।
एक बार मैंने पूछ ही लिया, कैसे इतनी बुरी हालत हो जाती है तुम्हारी कॉपी की। इससे पढ़ोगी कैसे और मैम ने देख लिया तो? वो संजीदा हो जाती फिर मुस्कुराती। पर उसकी मुस्कुराहट मुझे हमेशा बनावटी लगती। अरे घर में किरायेदार रहते हैं ऊपर, उन्हीं का बेटा है। हमेशा आकर सामान छूता रहता है। मानता नहीं और डाँटने में डर लगता है जाने उसके पैरेंट्स क्या सोचें।
मैं बिगड़ गयी, "पागल हो क्या"।
मना भी नहीं करोगी, डाँट भी नहीं सकती तो झेलो। शालिनी मुझसे दूर हट गयी। वैसे तो वो कभी नाराज नहीं होती थी मुझसे इसलिए मैं हक से उसे डाँट देती और समझाती भी। पर इस बार बात कुछ और थी। तीन दिन से उसने मुझसे बात नहीं की थी। मेरे लाख पूछने पर भी कुछ न बोलती और मुझसे दूर जाकर बैठ जाती। मैंने भी सोच लिया कि अब ना मनाऊँगी।
मन ही मन कोस रही थी खुद को कि सहेली बनी भी तो एक बेवकूफ जो अपनी मदद नहीं कर सकती। उसने कुछ दिन बाद खुद आकर मुझसे बात की और कहा "प्लीज़ मुझे कभी पागल मत कहा करो"।
मैं हैरान थी; इतनी छोटी सी बात पर इतनी नाराजगी।
मैंने हाँ में सिर हिलाया।
जब आप बहुत बातें करते हैं तो फ़िज़ूल बातों की भरमार होना कोई बड़ी बात नहीं होती, बातों बातों में उसने मुझसे पूछा कि तुमने ऐसे इंसान को कभी देखा है जो कई कई दिनों तक न सोता हो, रात में टुकुर- टुकुर चमकती आँखें देखी हैं?
प्रश्न बड़ा विचित्र था, मैंने बोला ऐसा इंसान तो नहीं देखा, चमगादड़ देखा है। वो अपनी आँखें बड़ी करते हुए कहती है, " मैनें देखा है। मैं जानना चाहती थी कि कौन है ऐसा। पर न जाने क्या था जिसने उसे रोक दिया। कई बार पूछने पर भी वो हँस कर बोली, अरे मज़ाक था। ऐसा कोई नहीं होगा।
मैं उसके बारे में सोचती रही ऐसा क्या था जिसने उसे बोलने दिया और किसने उसे मौन कर दिया। चुप्पी को छुपाने का सबसे बड़ा हथियार या साधन " हँसी " उसके पास पर्याप्त थी। मुझे उसकी हँसी में उसके डर की झलक दिखती।
कुछ विचित्र था जो उसके भीतर भी घट रहा था या वो किसी विचित्रता से जुड़ी लगती थी। वो क्लास में आकर अपना पूरा बैग पलट देती, फिर एक एक किताब और कॉपी को बारीकी से देखकर वापस बैग में भरती। मैं पूछती, " क्या कुछ छूट गया है घर पर क्या?, वो कहती नहीं, बस यूँ ही, ठीक से रख रही हूँ।
पर स्याही से लीपे हुए पन्ने रोज़ ही मिल जाते। "इतनी सुंदर पेंटिंग! इस पर भी इंक, मैंने आश्चर्य से उसकी तरफ देखा। उसकी आँखों में दर्द और डर दोनों डबडबा गए।
स्कूल के कैंपस में ही ;पिछले गेट के पास, मंगल समोसे वाले की दुकान थी, हम वापसी के वक़्त अक्सर समोसे खाते । मंगल अपना दुकान बड़े से बरगद के पेड़ के नीचे लगाता। वहाँ एक असीम शांति मिलती हमें। इतना बड़ा पेड़ हमारे अंदर एक अजीब से आश्चर्य को भर देता।
ये पेड़ कितना पुराना होगा, मैंने पूछा। समोसे को मुँह में भरे उतावली शालिनी ने कहा, हमारी पैदाइश के पहले का होगा। वहाँ बैठकर शालिनी अक्सर अपनी एक पुरानी डायरी निकालती थी। जिसमें उसकी माँ की प्यारी सी तस्वीर थी। कितना सुंदर था उनका चेहरा पर वक़्त की उतार चढ़ाव से गुजरा हुआ लगता। उनके चेहरे पर एक उदासीनता दिखती थी, एक बेफिक्री।
उसी डायरी के कवर में से वो अपने पैसे निकाल कर अक्सर गिना करती। उस पेड़ ने भी जाने, कितने रहस्यों को देखा होगा। कितनी ही आत्माओं के शरीर छोड़ने का साक्षी बना होगा। कितने प्रिंसिपल, टीचर्स, चपरासी बदल गए होंगे और ये पेड़ वही एक पुराना। असीम सत्ता का स्वामी लगता था वो वट वृक्ष। कितने ही चेहरों की स्मृति को उसने आत्मसात किया होगा और कितनों को बिसरा दिया होगा।
बातों की इस भूलभुलैया में मेरा घर आ चुका था, शालिनी मुझे बाय कहकर आगे बढ़ गयी।
अगले दिन टेस्ट था, उसने बताया कि उसकी ऊँगली पर ब्लेड से कट लग गया है, मुझे उसके बारे में हर चीज अजीब लगने लगी। मैंनें पूछा, " टेस्ट देने का मन नहीं था क्या। चोट को देखकर लगता जैसे धीरे धीरे ऊपर से बहुत बारीकी से और बचा के काटा गया हो। बिल्कुल पहली पतली परत कटी थी और उसने टेस्ट न देने का सोचा था। मैंने शालिनी से उसकी कॉपी एक दिन के लिए माँगी। मैं देखकर ही सीखने का सोच रही थी। शालिनी ने कहा कि वो छुट्टी के वक़्त कॉपी दे देगी। पर दो दिन से वो छुट्टी होते ही बिना बताये निकल जाती। अगले दिन फिर,छुट्टी के समय वो ऐसे गायब हो गयी जैसे कोई किसी से पैसा उधार माँगे तो वो धीरे से गायब हो जाता है और पता तक नहीं लगता। पर मैने भी ठान लिया था आज कॉपी लूँगी और घर जाकर प्रेक्टिस करूँगी।
मैंने साइकिल तेज की और शालिनी को ढूँढने लगी। मैंने उसका घर नहीं देखा था इसलिए एक बार उसको देख कर पीछे लग जाना चाहती थी। समस्या का हल और अबूझ प्रश्नों के उत्तर आपको कब मिल जाएँ कोई नहीं कह सकता।
कभी कभी आप ढूँढते कुछ और हैं और आपको वो तो नहीं मिलता पर कोई ऐसी चीज मिल जाती है जो आपने कभी सोची भी न हो। शालिनी को दूर से देखकर मैं साइकिल उसके पीछे ले जाने लगी, वो एक पानी की टंकी के पास जाकर रुकी। मैं उसे आवाज़ देना चाह रही थी कि वो फिर किसी पहेली की तरह ओझल हो गयी।
छोटे से गेट के अंदर घुसते ही एक कमरे का दरवाजा था और आँगन खुला था जिसमें आगे की तरफ और कमरे दिख रहे थे। मुझे सूझ नहीं रहा था कि किधर जाऊँ।
कमरे के दरवाजे पर जाकर मैंने आवाज़ लगाई, शालिनी! आवाज़ देने की देरी थी कि अंदर से एक आवाज़ आई , जैसे कोई सब काम छोड़कर बस आपका जवाब देने बैठा हो।
इतनी जल्दी उत्तर की उम्मीद नहीं थी मुझे। मुँह से नाम निकला और उधर से आवाज़ आई, अंदर आ जाओ।
शालिनी की माँ को तस्वीरों में अक्सर देखा था, वही तस्वीर मुझे दरवाजे के अंदर जाते ही सामने की दीवार पर टँगी हुई दिख गयी।
तस्वीर वही थी पर इसमें एक शख़्स उनके साथ था। वही शख्स पास पड़ी चौकी पर बैठा मुझे घूर रहा था। शालिनी के पास जो तस्वीर थी उसे देखकर कभी लगा नहीं कि साथ में कोई और हो सकता था। वो तस्वीर पूर्ण लगती थी बिना किसी के साथ की, एकांत, अकेली और पूरी।
उन्होंने मुझे बुलाया और बैठने को कहा। वो अजीब लग रहे थे, उनके बाल बढ़े हुए, मूंछें भी काफी बढ़ी हुई लगती थी ।
वो मुझे घूरते और बीच बीच में मुस्कुराते। मुझे अजीब माहौल का अहसास होने लगा। सांय सांय की आवाज और कमरे में अजीब मनहूसियत पसरी हुई थी।
उन्होंने धीरे से पूछा शालिनी की दोस्त हो।
मैंने हामी भरी।
उन्होंने अचानक मेरा बैग देखना शुरू किया।
मुझे अजीब लगा ,मैंने उनसे शालिनी को बुलाने को कहा।
उन्होंने मेरी कला की कॉपी देखी और मेज़ पर पड़े स्याही की पूरी बोतल उस पर उड़ेल ली।
मैं हक्का बक्का रह गयी। मैं अपना बैग लेकर भागी, जितना तेज भाग सकती थी। ये कैसा डर था, जो मेरे शरीर को पसीने से तर ब तर कर दे रहा था। कैसे पागल आदमी हैं उसके पापा। कैसा रहस्य था ये और शालिनी की बातें।
डर उस स्याही की तरह था,जो जिंदगी की खूबसूरत पेंटिंग को खराब करने की फिराक में था, हम दोनों का डर कहीं न कहीं एक जैसा था।
शालिनी की आवाज़ मेरे कानों में पड़ रही थी, मेरी पेंटिंग पर फिर से स्याही, "देखो मां"।
#427
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