धरा

minisingh3112
वीमेन्स फिक्शन
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“चार दिन बाद का डॉक्टर से अपोइंटमेंट ले लेता हू, ठीक है? ” चाय का घूंट भरते हुए अरुण ने कहा तो शिखा का कलेजा धक्क कर गया। “एक काम करो, जल्दी से नास्ता तैयार कर दो। ऑफिस जाते समय हो सकेगा, तो डॉक्टर से मिल कर कल या परसो का समय ले लूँगा। क्योंकि यह काम जितनी जल्दी निपट जाए अच्छा है।“

“पर अरुण......

“अर-पर मत करो समझी। सिर्फ तुम्हारी मूर्खता के कारण ही आज तीन-तीन बेटियाँ पैदा हो गईं। लेकिन इस बार कोई मूर्खता नहीं करूंगा मैं। वैसे, भी कितनी मुश्किल से तो एक डॉक्टर मिला है” पास खेल रही अपने ढाई साल की बेटी जुही को घूरते हुए अरुण बोला और चाय का खाली कप टेबल पर पटक कर बाथरूम चला गया। अरुण का रूखा व्यवहार देखकर शिखा की आँखों से दो बूंद आँसू टपक पड़े। सोचने लगी कि अगर यही बेटा होती, तो अरुण कैसे उसपर अपना प्यार लुटाता। और बेटी जानकार कैसे छिलमिला उठा है।

अरुण को ऑफिस भेजकर वह जुही को दूध पिलाकर सुलाने की कोशिश करने लगी। जानती है सुमित्रा को मंदिर से आने में एक घंटा तो लगेगा ही। शायद ज्यादा भी, क्योंकि मदिर में पुजा के बाद भजन-कृतन करने के पश्चात ही वह घर लौटती है। और अगर बातों में लग गई, तो और भी देर हो सकती है। देवी माँ के मंदिर में सुमित्रा सुबह-शाम जयकारा लगाना नहीं भूलती कभी। लेकिन ये कैसी पुजा है ? जहां देवी की पुजा तो होती है, लेकिन वहीं एक अजन्मी बच्ची को, जिसे देवी का रूप माना गया है, माँ के पेट में ही मारने का फरमान सुना दिया जाता है। माँ के गर्भ में ही उसकी कब्र खोद दी जाती है ?

‘दुख तो इस बात का है कि अरुण भी अपनी माँ का साथ दे रहा है। किसी ने पूछा आकर मुझसे की मैं इस बच्ची को जन्म देना चाहती हूँ या नहीं ? क्यों, आखिर क्यों एक लड़की के जीवन का फैसला उसके जन्म से पहले ही ले लिया जाता है ? कौन होते हैं ये लोग बोलने वाले की वह इस दुनिया में आएगी या नहीं ? आखिर कैसा समाज है ये जहां बेटे का स्वागत तो होता है, पर बेटियों का नहीं। लेकिन अगर बेटी ही नहीं होगी, फिर बहू कहाँ से आएगी? वश कैसे बढ़ेगा ? कभी सोचा है किसी ने ?’ अपने पेट पर हाथ फिराते हुए शिखा फफक कर रो पड़ी।

सुमित्रा और अरुण की ज़िद के कारण ही उसे चौथी बार गर्भधारण करना पड़ा। वरना, तो वह अपनी तीन बेटियों के साथ बहुत खुश है। नहीं चाह है उसे बेटे की। और बेटे आकर क्या कर लेंगे, जो बेटियाँ नहीं कर सकतीं ? मोक्ष ? लेकिन मरने के बाद क्या पता की इंसान को मोक्ष मिला या नहीं। इंसान तो अपने अच्छे बुरे कर्मों का फल पाता है। लेकिन यह बात इन्हें कौन समझाएँ। सुमित्रा से तो बोलने की हिम्मत नहीं थी उसकी। लेकिन अरुण को कितना समझाया था कि वह सोनोग्राफी नहीं करवाना चाहती। लेकिन अरुण ने उसकी एक नहीं सुनी और लिंग परीक्षण करवा ही आया। जब बेटी निकल गई तो अब उसपर अबोर्शन का दबाव बना रहा है।

अपने अजन्मे बच्चे की मौत की बात सुनकर शिखा पूरे दिन रोती रही लेकिन किसी को भी उसके आँसू से कोई लेना-देना नहीं था। रोते हुए कब उसकी आँखें लग गई पता ही नहीं चला। देखा उसने, एक बच्ची उसके बगल में सोई है और रो रो कर कह रही है। ’माँ, मुझे मत मारो माँ...... मुझे भी इस दुनिया में आने दो न माँ.........बेटी हूँ तो क्या हुआ........ बोझ नहीं बनूँगी, हाथ बटाऊंगी..........गर्व से आपका सिर ऊपर उठाऊँगी माँ……..बेटी हूँ....... इस धरा की.........इस धरा पर तो आने दो माँ’ शिखा हड़बड़ाकर कर उठ बैठी। उसका पूरा बदन पसीने से तर-बत्तर था। देखा, तो वहाँ कोई न था सिवाय उसके।

शिखा चित्तकार कर उठी कि कोई उसके बच्चे को बचा ले। आखिर कोई तो कहे, शिखा यह बच्चा नहीं गिराएगी, जन्म देगी इसे क्योंकि इसका भी अधिकार है इस दुनिया में आने का। लेकिन ऐसा कोई नहीं था इस घर में जो इस अनहोनी को रोक सके। एक मन तो हुआ पति और सास के खिलाफ भ्रूण हत्या का केस कर उन्हें जेल भेज दे, या कहीं भाग जाए। लेकिन फिर अपनी तीन मासूम बच्चियों का ख्याल कर वह चुप रह गई। औरत यहीं पर तो कमजोर पड़ जाती हैं और जिसका फायदा पुरुष उठाते हैं। लेकिन यहाँ तो एक औरत ही औरत की दुश्मन बनी बैठी थी। एक औरत ही नहीं चाहती थी कि दूसरी औरत इस दुनिया में आए।

भगवान और पुजापाठ में अटूट विश्वास रखने वाली सुमित्रा से किसी बाबा ने कहा था कि महापुजा करवाने से इस बार जरूर शिखा को लड़का ही होगा। उस बाबा की बात मानकर सुमित्रा ने पुजा-हवन पर हजारों रुपये खर्च किए। लेकिन इसके बाद भी जब शिखा के पेट में लड़की होने की बात पता चली तो बाबा बोलें कि जरूर पुजा में ही कोई चूक रह गई होगी जिसके चलते शिखा के पेट में फिर से लड़की आ गई।

अंधविश्वास का ऐसा चश्मा चढ़ा था सुमित्रा की आँखों पर कि एक भी काम वह बाबा से पूछे बिना नहीं करती थी। और जांतपात तो उसके अंदर कूट कूट कर भरा था। मजाल जो कोई छोटी जाति का आदमी उसके घर में पैर भी रख दे ! अगर गलती से कभी किसी ने पैर रख भी दिया, तो वह अपने घर को पाँच पानी से पखारती थी।

शाम को ऑफिस आते ही अरुण ने बताया कि डॉक्टर ने कल का समय दिया है और इसके लिए उसने छुट्टी भी ले ली है। लेकिन शिखा ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया और किचन में चली गई। समझ में नहीं आ रहा था उसे कि वह क्या करे। कैसे कहे अरुण से कि वह अपनी बच्ची को नहीं मारना चाहती, जन्म देना चाहती है इसे।

रात में जब अरुण अपने लैपटॉप पर व्यस्त था, तब बड़ी हिम्मत जुटा कर शिखा बोली, “अरुण, आज लड़कियाँ किसी भी बात में कम नहीं है। कल्पना चावला, सानिया मिर्ज़ा, सानिया नेहवाल, ये सब भी तो बेटियाँ हीं हैं न। क्या इन्होंने अपने मातापिता का नाम ऊंचा नहीं किया? गरीब परिवारों की बेटियों को भी देख लो। जब परिवार पर जिम्मेदारियों का बोझ पड़ा, तो बेटियाँ ऑटो, रिक्शा और ट्रेन तक चलाने लगीं। हमारी नीता दीदी को ही देखा लो न, देश के इतने बड़े बैंक में मैनेजर हैं और बैंक की तरफ से वह विदेश भी जा चुकी हैं” शिखा ने अपनी तरफ से बहुत सफाई दी लेकिन अरुण यह बोलकर सोने चला गया कि जिसका बेटा नहीं होता, समाज में उसकी कोई इज्जत नहीं होती।

‘लेकिन यही समाज और लोग यह क्यों नहीं समझते कि प्रकृति ने बेटियों को भी बेटे के बराबर जीने का हक दिया है। उसे भी इस हवा में सांस लेने का उतना ही अधिकार है जितना लड़कों को। बेटे की तरह बेटियाँ भी अपनी माँ के कोख में नौ महीने रहती है। कहते हैं प्रकृति और पुरुष मिलकर सृष्टि का संचालन करते हैं। लेकिन जब प्रकृति ही नहीं बचेगी फिर सृष्टि का संचालन क्या संभव है ?’ अपने मन में ही सोच शिखा ने अरुण की तरफ देखा जो चैन की नींद सो रहा था। सुबह किचन में चाय बनाते हुए सोचने लगी कि आज उसका बच्चा हमेशा के लिए उससे बिछड़ जाएगा। लेकिन तभी फोन की घंटी से उसकी तंद्रा भंग हो गई। सुमित्रा का फोन था। जाने उधर से किसने क्या कहा कि फोन सुमित्रा के हाथ से छूटकर नीचे गिर पड़ा और वह खुद भी लड़खड़ा कर जमीन पर गिर पड़ी।

“माँ माँ ! क्या हुआ आपको ?” अरुण घबराते हुए सुमित्रा को उठाकर सोफे पर लिटा दिया। तब तक शिखा दौड़ कर पानी ले आई। उसकी हालत देख कर शिखा भी घबरा गई। पता चला कि नीता दीदी का एक्सीडेंट हो गया और उसकी हालत सिरियस है। फोन नीता के पति ने किया था। जो भी पहली फ्लाइट मिली, उससे अरुण सुमित्रा को लेकर मुंबई पहुंच गया।

दरअसल, नीता, जब बैंक जा रही थी तभी पीछे से एक ट्रक ने उसकी गाड़ी को ज़ोर का धक्का दे दिया जिससे उसकी गाड़ी लुढ़कती हुई सड़क के नीचे गिर गई। ट्रक वाला तो वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गया। लेकिन आसपास के लोगों ने तुरंत पुलिस को फोन कर दिया। पता चला की ट्रक ड्राइवर शराब पीकर गाड़ी चला रहा था। डॉक्टर का कहना था की नीता का काफी खून बह जाने के कारण उसे तुरंत खून चढ़ाना पड़ेगा। लेकिन किसी का खून उससे मैच नहीं हो रहा था। तब भगवान बनकर आया उसी अस्पताल के एक सफाई कर्मचारी से नीता का खून मैच हुआ और तब जाकर उसकी जान बच पाई। जांतपात और ऊंचनीच में भेद करने वाली सुमित्रा का सारा घमंड चूर हो गया जब उस सफाई कर्मचारी का खून नीता को चढ़ाया गया। समझ में आ गया उसे की खून का रंग तो हर इंसान का एक सा ही होता है। बस सोच और विचार भिन्न होने के कारण हम दूसरों से प्यार या नफरत करते हैं।

जान तो बच गई नीता की पर अभी भी वह खतरे से बाहर नहीं आई थी। बेटी की हालत देख कर सुमित्रा की जान सुखी जा रही थी, उसके हलक से खाना पानी भी नहीं उतर रहा था। बस दुआ कर रही थी कि जल्दी से उसकी बेटी ठीक हो जाए। शिखा से रहा नहीं गया, इसलिए बेटियों को बहन के घर छोड़कर वह भी मुंबई पहुँच गई।

डॉक्टर का कहना था कि नीता की हालत में सुधार तो हो रहा है पर अभी उसे पूरी तरह से रिकवर होने में वक़्त लगेगा। बेटी को बेड पर पड़े देखकर सुमित्रा के दिमाग में एक ही बात तीर की तरह चुभ रही थी कि अगर नीता को कुछ हो जाता तो, तो वह भी मर जाती। “माँ...... अब दीदी ठीक है आप चिंता मत करो और डॉक्टर ने कहा न कि दीदी अब खतरे से बाहर है” अरुण ने कहा तो सुमित्रा उसकी तरफ देखते हुए अपने आँसू पोंछने लगी। “माँ, अब हमें निकलना होगा क्योंकि शिखा को डॉक्टर के पास भी लेकर जाना है अबोर्शन के लिए।“

आज सुमित्रा भली प्रकार से शिखा का दर्द महसूस कर पा रही थी कि उसे कैसा लगता होगा अपने बच्चे के लिए। एक माँ अपने बच्चे को अपने खून से सींचती है, फिर कैसे कोई माँ उसके बहते खून को देख सकती है भला ! ‘मैं प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने जा रही थी ! एक माँ से उसके बच्चे को छीनने का पाप करने जा रही थी ? ओह ! कितनी बड़ी पापन हूँ मैं ! नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूँगी’ अपने मन में ही सोच सुमित्रा उठ खड़ी हुई और एक फैसला ले लिया कि उसकी धरा...... इस धरती पर जरूर आएगी.

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