JUNE 10th - JULY 10th
“जाना जरूरी है क्या?
मुझे तो रसोई के किस डिब्बे में क्या पड़ा है, मेरे कौनसे कपड़े मैले हैं कौनसे इस्तरी के लिए गए हैं और कौनसे धूले पडे हैं ये तक नहीं पता। दूध,धोबी और अखबार के कितने पैसे कब दिए जाते हैं इसका भी खयाल नहीं है और.. और चाय में मैं चाय पत्ती कितनी लेता हूँ और दूध शक्कर कितना डलता है ये तक नहीं जानता ये सब जानने के बावजूद भी तुम जा रही हो” मंद, तीव्र और भीगे स्वरों के मध्य पृष्ठभूमि में बज रही मखदूम की गजल ‘फिर छिड़ी रात बात फूलों की’ कभी तेज लगने लगती तो कभी धीमी।
“नहीं जाती अगर पापा की बीमारी का समाचार न होता।“
“पापा के लिए माँ है तो वहाँ। मेरे लिए तो यहाँ कोई भी नहीं। सोचो मैं बीमार हो गया तो।“
“हुजूर की सारी बीमारियों के इलाज़ तो मेरी चुटकियों में है।“ कहते हुए बैग में कपड़ों की तहें बनाती सुधा ने मुस्कुरा कर सुधीर को देखा और अपना नीचे का होट काटा।
“तुम्हे मज़ाक सूझ रहा है! कितनी निर्दयी हो”
“मत जाओ सुधा! मन रिक्त हुआ जाता है। तुम कहो तो साथ चलकर तुम्हारे पिताजी को यहीं पर ले आते हैं। सब साथ रहेंगे।“
“और लोगों से क्या कहेंगे? कि अनब्याही बेटी के दामाद के घर जा रहे हैं? अभी तो उन्होने हमारे साथ तक को ही मंजूर नहीं किया पर ....क्या पता इस बहाने ही....फिर तो जिंदगी भर साथ ही होंगे।“
“मत जाओ यार! मुझे डर लगता है। ये कोई तरीका न हो हमें दूर करने का। बीमारी केवल बहाना न हो।“
“पागल हो क्या? फिल्मों की कहानियों और क्राइम थ्रीलर से बाहर निकलो।“
“सुधा प्लीजज............”
धड़-धड़-धड़ के स्वर के साथ ट्रेन रूकी तो सवारियों के चढने उतरने के साथ ही हाथों में केतली, कागज के कप और चाय कॉफी के पाउचों को टाँगे कई बेचक भी डिब्बे के भीतर घुस आए, सुधा की स्मृतियों भी झटके से उसे अतीत से रेल के डिब्बे में ले आईं।
“चाय कॉफी नाश्ता ले लsss नाश्ताss ब्रेड-कटलेट, ब्रेड-ऑमलेट...... “
सुधा ने खिड़की से आसमानी रंग के पर्दे को एक ओर किया, बर्थ पर बिछी सफेद चद्दर की सलवटें ठीक कीं बाहर देखा तो.... अभी तो मारवाड़ जंक्शन था, उसके बैठने के बाद से सातवां स्टेशन। उसने रेल का ट्रेक करने वाला एप फिर से खोला और देखा कि मुम्बई के लिए अभी अगणित स्टेशन बाकी है।
“बॉम्बे जा रही हो?” निकट बैठी साड़ी में लिपटी कमजोर काया वाली वृद्धा ने मोबाइल में झांकते हुए पूछा।
“आप भी वहीं?”
“हाँ अपने बेटे के पास जा रही हूँ। एसी का टिकट उसी ने भेजा है। जिद कर कह रहा था “माँ! तुमने बहुत मेहनत कर ली, अब आराम से बॉम्बे में आकर रहो”। मैंने तो कहा था कि “ना बेटा! मुझे तो बीकानेर जैसा कुछ नहीं लगता, बचपन से पली बढ़ी और ब्याह भी वहीं हुआ, उसी घर में तेरे पिताजी की याद बसी है, पर वो कहाँ मानने वाला। बच्चे ऐसे ही होते हैं, पास रहो तो झड़ेंगे और दूर रहो तो ‘तुम्हारे बगैर मन नहीं लगता हूंह’ कहते हुए बृद्धा ने पलकों में उतर आयी नमी को साडी से किनारे किया। और फिर ठहर कर बोली “तुम तो अपने पति के पास जा रही दिखती हो? गर्मियों की छुट्टियों में आयी सब लड़कियाँ स्कूल खूलते ही घर लौटतीं हैं।“ वृद्धा ने ये बात इतने गर्व के साथ कही मानो वो कहना चाहती हो कि झुर्रियों ने सौंदर्य भले ही कम कर दिया पर सर्वज्ञाता तो बना दिया है।
पति! इस शब्द और शब्द में छिपी पीड़ा पर सुधा एक बार मन ही मन हिचकी, मगर फिर संभलते हुए जोड़ा। हाँ! हाँ! पति ही, अपने घर जा रही हूँ, छुट्टियों के बाद।“
‘अपना घर’ कही बात को सोचते हुए सुधा के चेहरे पर एक ललाई सी दौड़ पड़ी, “अपना घर।‘ शादी नहीं हुई तो क्या! रहते तो वो और सुधीर पति-पत्नी की ही तरह हैं। साथ मिलकर घर सजाना, हर शाम ऑफिस से आने के बाद की चाय और रात का खाना साथ में खाना....और भला क्या ह मिया- बीबी के संबंध में कलाबातू होता है। साथ वो दोनों खुश, विवाह और बच्चे उन्हें चाहिए नहीं बाकी समाज ठेंगे पर। कितना तो चाहता है सुधीर उसे ये पूरा साल पिताजी की बीमारी माँ के अकेलेपन और फिर पिताजी के जाने के बाद के दिनों में व्यस्त तो कट गया था मगर सुधीर को एक पल के लिए भी कहाँ भूली थी वो।
“परांठा लोगी बेटी?” महिला और निकट खिसक आई थी।
सुधा को बार-बार वृद्धा का यूँ जबरन बात करना अब खलने लगा था, मगर उसने मुस्कुराते हुए ना में सर हिला दिया। कम्पार्टमेंट तरह-तरह के व्यंजनों की सुगंध से भर गया था।सुगंध से लगा कि वो भी तो सुधीर के लिए कितनी खाद्य वस्तुएँ साथ लाई है। स्पंजी रसगुल्ले, भीखाराम की भूजिया, और पंधारी के लड्डू। रूठे को मनाने के लिए इतना काफी तो नहीं होगा पर ..कितने महीने हो गए थे, सुधीर का फोन आए, ठीक से बात किए। वो कॉल करती तो हाँ! हूँ! बस। और मैसेज तो कभी पढ़ता, कभी दो-दो दिन बाद जवाब देता, और अब तो जनाब के विचार भी सामाजिक होते जा रहे थे, मां-बाप समाज में शादी के लिए कहें तो विरोध मत करना, हमारा प्रेम तो अमर है..ब्ला ब्ला...आए बड़े अमर प्रेम वाले । साथ रह कर ही निभाऊंगी ये अमर प्रेम। खुशी में बड़बड़ाने लगी थी सुधा।
"घर में कौन कौन है तुम्हारे बेटी?" आंटी ने परांठे को हरी मिर्च के कूटे और आलू की सब्जी संग उदरस्थ करना शुरू किया तो सुधा को लगा वो भी भूखी है बहुत दिनों से भूखी और उनींदी है।
“मुम्बई में बस वो और मैं।“ कह सुधा फिर चुप हो गई।
“हाँ भई! आजकल के लोगों को आजादी प्यारी होती है, बच्चे और बूढ़े नहीं।" फिर स्वर में गर्व भरते हुए बोली-" मेरे तो बहू-बेटा पोता-पोती सारा परिवार है और अब मैं भी। महानगर में रहता है मेरा बेटा मगर संस्कार नहीं भूला अपने, बस बहुत बरस हो गए सबको देखे।“
फिर जोड़ा
“ आएं भी तो कैसे ,समय ही नहीं होता उनके पास ,कहते है महानगरों वाले हम छोटे शहरों की तरह नहीं जीते, मेरा बेटा और बहू तो जहाँ भी जाते हैं हवाई जहाज से जाते हैं कुछ दिन पहले ही लाखों नहीं करोड़ों का घर खरीदा है उन्होंने, विदेश तो हर माह....।“
सुधा को अब वृद्धा की तंजिया बातों और बार-बार की अपने बेटे के संस्कारों और ऐश्वर्य की अनावश्यक और भौंडी दिखावट से अरुचि होने लगी थी। उसने पर्स में से मोबाइल निकाला और अपने रवाना होने का संदेश गलबहियाँ वाली इमोजी के संग सुधीर को भेज दिया, और जब कुछ देर में जवाब में हाथों-हाथ वैसा ही ईमोजी और धड़कते दिल का आइकन आया तो संतुष्ट सी हुई, जैसे क्षुधा ने भोजन को स्वीकृति दे दी। पैंट्री कार के परोसकारे से ब्रेड ऑमलेट लिया और खाने लगी इस मध्य सवालों से बचने के लिए पूरे समय वृद्धा को उपेक्षित करती रही । लेकिन वृद्धा ने उपेक्षा को कोई महत्तव न दिया वो बातों के मैदान में अपने पैर अंगद की तरह जमाए रहीं।
“कौनसे स्टेशन उतरोगी बेटा?”
सुधा ने एकबारगी वृद्धा के स्वर को सुन कर भी अनसुना किया। मगर अगले ही पल उसे अपने व्यवहार पर ग्लानिबोध हुआ। पलट कर पूछा
“आप कहाँ उतरोगी आंटी? और मुस्कुराते हुए जोड़ा “शायद हमारा आगे का भी साथ लिखा हो।”
“बांद्रा नाम लिखा है। “
“मेरा भी वहीं मकाम है, पर वहाँ से कहाँ जाएंगी आप, कहाँ है आपके बेटे का घर?”
“नारूल में।“
“नारूल नहीं आंटी नेरूल कहें”.... “फिर तो हम एक ही राह के राही हैं, मेरे आप के इस संग में न जाने कितने संयोग लिखे हैं।साथ चल लीजिएगा।“
“अरे नहीं बेटी ! मेरा बेटा लेने आएगा, गाडी लेकर। दामाद जी न आ रहे हों तो तुम्हें भी तुम्हारा भाई छोड़ देगा।“
पहले बेटी! फिर दामाद ! और अब भाई!! कहीं ये बुढिया कोई ठग या चोर तो नहीं! जरूरत से ज्यादा लाड इडा रही है। सुधा ने मन में ये सोचा, मगर व्यवहार में बोली “अंधे को दो आँखों से अधिक क्या चाहिए, आपके संग ही सही।“ अगले पलों में सुधा ने सीट के नीचे बंधे अपने बैग की जंजीर को एक बार हाथ से खींच कर तसल्ली की। चप्पलें थैले के पीछे खिसकाईं। पानी की बोतल को पायताने की जाली में डाला पर्स बाजू में लपेटा और चादर सिर तक तान कर लेट गई तो सवेरे ग्यारह बजे तक केवल बाथरूम और माँ के कॉल के लिए ही चादर से बाहर निकली। हाँ रात को एक बार निगाह डाल दी थी कि आंटी सो रही हैं या नहीं, परंतु अंधेरे में सीधी लेटी वृद्धा की आँखों से वो ये अनुमान न लगा पाई कि मामला शांत होगा या छेडने पर छत्ता बिखर जाएगा।
न पांच मिनट पहले न दस मिनट पीछे, ठीक ग्यारह बजकर दो मिनट पर गाडी बांद्रा स्टेशन पर सवारियों को उतार रही थी, दरवाजे पर सामान उतारने के बाद सुधा को न आंटी दिखी और न उनकी आवाज सुनाई दी। उतरने की हड़बडाहट और सुधीर से मिलने की खुशी में सुधा को रेल की छब्बीस घंटे की यात्रा क्या माँ-पिताजी के साथ गुजारा पूरा बरस भूलने को था, सामान कूली के हवाले कर सुधीर को फोन लगाया और रूंआसा स्वर बना शिकायत की
"स्टेशन लेने नहीं आए ?"
"तुम घर पहुँचो मैं मीटींग में हूँ, शाम को मिलता हूँ।" सपाट स्वर में कह कर सुधीर ने फोन काट दिया।
“तो साहब हैं प्रेमी और ज्यादतियाँ पति की तरह करेंगे” सोचती- मुस्कुराते और अपने ही से बात करती हुई सुधा आगे बढ़ती रही, फिर कब स्टेशन से बाहर निकली, टैक्सी पकड़ी और हवाओं से बात करती हुई नेरूल के अपने उस परिचित फ्लेट पर पहुँच गई पता ही नहीं चला। अपने पर्स में सहेज कर रखी फ्लेट की चाबी को की होल में लगाने ही वाली थी कि दरवाजा अपने से खुल गया, सामने एक सुंदर महिला खड़ी थी सुधा को देखकर बोली “आप सुधा जी हैं न?”
"जी! जी हाँ!" सुधा ने अचकचाते हुए कहा। "पर आप ??....मैं गलत पते पर तो.!!"....उसका गला सूखने लगा था। 'नहीं गलत तो नहीं, वही दीवारें, वही बंदनवार, दरवाजे पर लटकती विंडचाम भी। पर ये औरत...'
“आप को पहचाना नहीं?” दरवाजे में भीतर घुसते हुए सुधा ने पूछा।
“अरे कैसे पहचानेगी ? हमारे ब्याह में आप आयीं कहाँ थी।“
"आपके विवाह में मैं.....मतलब?"
इससे पहले कि वो ब्याह के नाम पर कुछ और पूछे सोफे के सामने की दीवार पर टीवी के पास टंगी सुधीर और उस महिला की तस्वीरों पर नजर पड़ी, जिन्होने उसे वो सब बता दिया जो सुधा को ध्वस्त करने के लिए काफी था। वो गश खाकर गिरते गिरते बची। ऐसा सदमा तो पिता की मृत्यु पर भी न लगा था।
“वो कल ही बोले कि उनकी एक दोस्त यहाँ इंटरव्यू देने आएगी, मैं राह ही देख रही थी।“ सामने बैठ चुकी महिला प्रेम से मुस्कुरा रही थी।
“इंटरव्यू?? अरे हाँ! पर उसमें तो मैं फेल हो चुकी ।“ सोफ़े के हत्थे पर टिकते सुधा ने रूंधे कंठ से कहा।
“इंटरव्यू हो गया? पर वो तो.......”
“सीधा दे कर आ रही हूँ, मैं उस पोस्ट के योग्य न थी तो....”
“ओह सॉरी !.. चाय लाती हूँ ।“ कहते हुए महिला उठ कर भीतर चली गयी।
“मत जाओ! सुधा मत जाओ!”
सुधा के कानों में सुधीर के शब्द मकान के हर कोने से प्रतिध्वनि बन कर गूँजने लगे। वो पर्दे, वो सजावट की चीजे उसे लगा वो सबको खींच कर तोड़ दे । चिल्लाने लगे। सुधीर को फोन कर खूब खरी खोटी सुनाए और इस औरत को चीख़ कर कहे कि ये घर मेरा है।
मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ, महिला के भीतर से वापस लौटने से पहले ही उसने अपना बैग पकडा और लिफ्ट से तेजी से उतरती हुई सड़क पर आ गई। राह पर लगभग अचेत सी चलते-चलते वो इस असमंजस में थी कि वापस अपने शहर लौटे या यहीं नौकरी तलाशे, यही सोचने के लिए वो निकट के एक रेस्त्रा में चली गई।
“एक चाय और साथ में पारले जी पैकेट ले आइए।“ सामने की टेबल पर से पहचाना स्वर सुना तो कुछ होश आया....”आंटी आप?...
“हाँ! वो बेटे के घर पर ताला था। पडोसियों ने कहा कि परिवार विदेश में बस गया है साल भर पहले। सोचती हूँ शाम की रेल से वापस लौट जाऊँ, हताश स्वर में वो बोली“
“पर....आपको तो.....”
वृद्धा जबरन मुस्कुरायी “बच्चों के भरम माँ न रखे तो कौन रखेगा।“
सुधा ने वृद्धा के हाथ पर हाथ रख कहा “मैं भी चलूंगी आंटी! मेरे पतिदेव भी एक ट्रेनिंग के सिलसिले में विदेश गए हैं।“
#143
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shilpisheen
Nice Story
sonu yashraj
हकीकतों को गले लगाती संवेदनशील कहानी
Dr Shalini Goyal
अच्छी कहानी
Description in detail *
Thank you for taking the time to report this. Our team will review this and contact you if we need more information.
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