क्या हर आवाज़, जो भीतर सुनाई देती है, हमारी ही होती है?
और क्या हर स्मृति, सच होती है या मृगतृष्णा?
ब्रह्म-पत्र एक ऐसी कथा है जहाँ लिखना धीरे-धीरे आदत नहीं, आवश्यकता बन जाता है। शब्द बार-बार लौटते हैं, प्रश्न गहरे होते जाते हैं, और वास्तविकता अपनी सीमाएँ खोने लगती है। यहाँ प्रेम कोई घटना नहीं बल्कि एक मानसिक अवस्था है, जो समय, दूरी और तर्क से परे फैलती जाती है।
जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, पाठक यह तय नहीं कर पाता कि वह किसी कहानी को पढ़ रहा है या किसी मन के भीतर झाँक रहा है। कुछ रिश्ते स्मृति में बनते हैं, कुछ मौन में टिके रहते हैं और कुछ केवल इसलिए जीवित रहते हैं क्योंकि उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता।
ब्रह्म-पत्र उन पाठकों के लिए है
जो जानते हैं कि सबसे खतरनाक यात्राएँ
अपने अंदर की ओर होती हैं।
इस कहानी को न पहले कभी लिखा गया है और न ही कभी लिखा जा सकेगा -
"न भूतो न भविष्यति"
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