JUNE 10th - JULY 10th
दिल्ली में पढ़ने वाले अधिकतर लड़के जिस तरह के पीजी में रहते हैं वैसा ही एक पीजी मुझे भी मिल गया। तीसरी मंजिल पर 7×8 फिट के केबिन में 4×6 फिट का एक बैड, एक लकड़ी की रैक और फिर इतनी जगह कि कुर्सी या मेज में से कोई एक ही चीज आ पाए। गांव के खुले घर से दिल्ली के पीजी तक की यात्रा करने वाले के लिए थोड़ी थोड़ी देर में बालकनी ही साथी होती है। उस पार एक और बालकनी थी। दोनों बालकनी सड़क की तरफ दो दो फीट निकले हुए छज्जे पर बनी हुई थीं। "हों भी क्यों न दिल्ली में जगह है ही कितनी महंगी, अब तो गांव में भी सब बाहर ही छज्जा निकालते हैं" कहते हुए मैंने अनुभव किया कि दोनों बालकनी के बीच की प्रभावी दूरी दस फिट ही है।
गर्मी परेशान होकर पिछले एक घंटे में यह छठवीं बार था कि मैं बालकनी पर कोहनियां टिकाए अपने चेहरे को हथेलियों पर रखकर आते जाते लोगों को बेमतलब देख रहा था। कुछ नया नहीं था। कई मंजिले मकान, अधिकतर में चल रहे गैर कानूनी पीजी, और कुछ में स्थानीय पंजाबी परिवार। सामने वाले फ्लैट में भी एक पंजाबी परिवार था। पर पंजाबियत के नाम पर बस कुछ पंजाबी शब्द और त्यौहार ही बाकी रह गए थे। भाषा पर हिंदी चढ़ चुकी थी। "कवित्ता" अंदर से आवाज आई। हाथों पर आराम कर रही खोपड़ी को ऊपर उचकाकर मैंने सामने वाली बालकनी के भीतर झांकने की कोशिश की पर कुछ नहीं दिखा। "आई अंटी" एक चंचल किशोर आवाज थी और मधुर भी, उसमें एक आकर्षण था। उससे बचा नहीं जा सकता था। मैं बचना भी नहीं चाहता था। मैंने कई कोण से बालकनी के अंदर झांकने की असफल कोशिश की। बालकनी में बस एक जोड़ी हवाई चप्पल दिखे। "पैर भी छोटे हैं, मतलब हाइट भी ज्यादा नहीं होगी" एक कल्पना सी बुनते हुए मैने अपनी लंबाई से तुलना करनी चाही।
मैं बालकनी पर टंगा तमाम कल्पनाएं करता रहा। उसका रंग, आकृति, स्वभाव और....। घंटे भर के बाद एक तेरह चौदह साल की किशोरी ने आकर वो चप्पल पहन लिए और अपने पहने हुए चप्पल निकल दिए। मेरा अंदाजा सही थी "वो मुझसे बस एक दो साल छोटी होगी"। उसने मेरी तरफ ध्यान नहीं दिया। "अंटी नमस्ते" की तेज आवाज करते हुए वो सीढ़ियों पर दौड़ गई। नीचे के सभी फ्लोर की बालकनी पार करते हुए मैं उसको देखता रहा। मैं उसको सड़क पर तब तक देखता रहा जब तक वो दिखना बंद न हो गई। मैं उसको रोज देखने लगा। एक दो बार शायद उसने मुझे देखते हुए देखा भी हो। या बस ऐसे ही उसकी दृष्टि इस और चली गई होगी, कौन जानता है।
वो काम करने आती थी। दिन में दो बार। सुबह और शाम। पीजी में अब कम से कम एक चीज मुझे अच्छी लगने लगी थी। मैं वहां उसका इंतजार करता था। मैं उसकी एक भी झलक देखने के लिए घंटों बालकनी में बैठे रहने को गलत नहीं समझता था। शायद मैं प्रेम में था। मैं उसको चाहता था। उससे बताना चाहता था कि मैं कितना अकेला हूं और वो कैसे मुझे अर्थ प्रदान करती है। उसके काजल लगे चंचल नेत्र और बेतरतीब गुंथी हुई चोटी देखकर मैं हमेशा उससे पूछना चाहता था कि वह अपने आप काजल और चोटी कर लेती है क्या? मैं सोचता कि माथे पर एक छोटी सी बिंदी और होती तो कितनी सुंदर लगती कविता। "छोटी से बिंदी भी लगाया करो अच्छी लगेगी" मिलूंगा तो जरूर कहूंगा।
उसके एक इंच जितने क्षैतिज विन्यास वाले होठ दो भूरी रेखाओं से ज्यादा केवल तभी दिखते थे जब वह खुलकर हंसने के लिए अपना मुंह खोलती। पर ऐसा मैंने बहुत कम होते हुए देखा। अधिकतर उसे मैंने कुछ ना कुछ गुनगुनाते हुए ही देखा। अगर मैं उससे बात करता तो जरूर पूछता कि "क्या वो सिंगर बनना चाहती है?" और फिर मैं खुद गुनगुनाने लगता
"क्योंकि तुम हो
अब तुम ही हो
मेरी आशिकी अब तुम ही हो.."
मैं रोज की तरह बालकनी में था। "ऐ कविता, शाम को जल्दी आ जाना कुछ काम है" जाते हुए आंटी ने आवाज दी। "ठीक है अंटी" अपने हाथ ही थैली लहराते हुए वह चप्पल पहनकर दौड़ गई। मुझे नहीं पता था वह शाम को कितनी जल्दी आयेगी। मैं दोपहर बाद से ही बालकनी में बैठ गया। शाम को वह खुले बालों के साथ बिंदी लगाकर आई। पीले रंग के फ्रॉक सूट में उसकी पतली कमर के ऊपर अर्धविकसित उभार आज अधिक स्पष्ट थे। मैचिंग के चप्पल थे, जिनको वह बिना बाहर निकाले अंदर चली गई। वह रोज से अधिक खुश लग रही थी और सुंदर भी। मैंने उसका फोटो अपने मोबाइल में ले लिया और कई दिन तक जूम करके देखता रहा। वे सभी कॉपियां जिन पर सवाल लिखे होने चाहिए थे, जगह जगह कविता लिखता रहा। कहीं कहीं कविता के साथ मेरा नाम भी लिखा था। मैंने दिल बनाकर दोनों का नाम नहीं लिखा। "वह उस दिन लिखूंगा जब वह हां बोलेगी"। मेरे अंदर कुछ उमड़ने लगा, कुछ अव्यक्त अवर्णनीय। मुझे लगने लगा था कि मुझे कोई नहीं समझता, मैंने उसको कागज पर उतारना चाहा। मैंने अपनी पहली कविता लिख
"सुबह की धूप जाड़े की, पीली रंगत लिए है खास।
विगत हुई रात जाड़े की,
ओस की बूंदें लिए है घास"
सालभर बीतने के बाद भी यह कविता चार पंक्ति से आगे कभी नहीं बढ़ी। इस बीच बस इतना ही अलग हुआ कि एकबार वो पीली ड्रेस वाली फोटो मेरे घर में चर्चा का विषय बन गई थी, और उसको डिलीट कर देना पड़ा था। फिर एक साल और बीत गया।
वह फोटो दोबारा चर्चा का विषय तब बनी जब मैं दूसरी बार एग्जाम में फेल हुआ। मुझे घर बुला लिया गया था। वहां खुला खेत है, बाग है, बड़ी छत है, बाड़ा है पर बालकनी नहीं है। अपने अकेलेपन को धोखा देने के लिए मैं मक्का के खेत में बनी मचान पर जाकर बैठने लगा। यहां सामने कोई बालकनी नहीं है, यहां मैं कविता के आने का इंतजार नहीं करता, मैं किसी के आने का इंतजार नहीं करता। बल्कि मैं चाहता कि कोई ना आए ताकि मैं वो हर एक दिन वापस उसी तरह याद कर सकूं। "कवित्ता, जल्दी ऊपर आ", "कविता, कहां रह गई थी आज", "कविता, वो पीछे वाला कमरा मत करना आज", "जी anti", "ठीक है एंटी", "नमस्ते anti"।
पहले ये यादें स्पष्ट थीं लेकिन फिर एक तूफान के साथ आने लगीं। यह सिद्ध किया जा चुका था कि मैं उसी की वजह से फेल हुआ हूं। "लड़कीबाजी की है दिल्ली में बस", "लड़की के चक्कर में बहुत लड़के बर्बाद हुए हैं", "फोटो वाली लड़की है ना", "वो तो अब भी वहीं काम कर रही होगी", "अब कोई और बालकनी में बर्बाद हो रहा होगा इसकी जगह", "होना तो इसका भी कुछ ना है, यही हाल रहा तो", "मुझे तो पहले ही पता लग गया था" "भटक गया रास्ते से" "कैसा बढ़िया लौंडा था दिल्ली जाने से पहले" "आशिकी में पड़ के बस आशिकी २ बनती है हाहाहाहाहा", "प्यार में तू पहला आदमी थोड़े है बर्बाद होने वाला, तेरी कविता ने ही कई बर्बाद कर दिए होंगे अब तक तो हाहाहाहाहा"।
"मैं प्यार नहीं करता उससे" "अब मैं उससे प्यार नहीं करता" "मैं आगे बढ़ चुका हूं" जब मैं खुद से कहने लगता तो मैं मचान से कूदकर उतर आता। दो वर्ष यही चक्र दोहराने के बाद एक शाम मैं मचान से कूदते हुए बड़बड़ाया "मैं प्यार नहीं करता अब उससे, नफरत करता हूं, आई हेट हर" "जिंदगी बर्बाद कर दी साली" "साली" "थी तो कामवाली ही"। मैं गुस्से में था। आसपास के ताने भी वजह थे लेकिन इस गुस्से का अधिकांश हिस्सा मेरा निजी था। मैं उसको जिम्मेदार मानता था अपने चार ऊर्जा भरे तरुण वर्षों की बरबादी का, बेरोजगारी का, अकेलेपन का और शायद खुद के साथ घट रहे सब कुछ का कारण वही थी। मुझे नफरत थी उससे। मैं झुलस रहा था। मैं शांत होना चाहता था। मैं वापस मचान पर चढ़ गया।
मैंने वह दबी हुई कॉपी निकाली जिसमें मैंने कविता को समर्पित तमान अधूरी कविताएं लिखीं थीं। मैंने फिर से लिखना प्रारंभ किया। कविता का विषय बदल चुका था। और शायद लिखने की विधा भी। इसमें छंद नहीं थे, तुक नहीं थे, वाक्य नहीं थे, इसमें समास और श्लेष गुण प्रधान था। मैंने हिंदी भाषा में रैप सॉन्ग लिखा, खुद की अंधी तारीफ और सामने वाले के अपमान से सनी हुई आधुनिक विधा। यह रैप पूरा होते होते मैं स्पष्ट था कि "एक काम वाली के चक्कर में मुझे अपनी जिंदगी बर्बाद नहीं करनी है"।
"आएंगी हजार
ऐसी छिनार
पर होना है पार
हर बार,
नहीं प्यार नहीं करना
...."
कुछ दिन बाद मैं मुंबई की ट्रेन में था। यहां दिल्ली से भी ज्यादा ऊंची इमारतें हैं। मैं पढ़ने, कुछ बनने आया था। मुझे अब प्रेम नहीं करना था। मुझे प्रेम से नफरत थी। मैं इस नफरत से झुलसकर कलम की शरण में जाने लगा। मैं लिखने लगा। फिर मैं पढ़ाई छोड़ सिर्फ लिखने लगा। मेरी लिखा हुआ पसंद किया जाने लगा। मैं लिखने के लिए लिखने लगा। लिखना मेरा काम हो गया। मैं अपनी कविताओं से, गानों से कमाने लगा। इतना कि मुंबई की एक ऊंची इमारत में मैं फ्लैट ले सकता था। मुझे फिर से प्रेम हो गया और कुछ साल बाद विवाह।
मैं हर लेखक की तरह शहर से कितना भी घृणा करूं, वो मुझसे नहीं कर पाता, वो मुझे वापस गांव जाने नहीं देता। शायद इसीलिए आज दस साल मुंबई में गुजारने के बाद अपनी बीस वीं मंजिल के फ्लैट की बालकनी में बैठा हूं। सबसे पास वाली इमारत की बालकनी भी इतनी दूर है कि वहां क्या चल रहा है पता नहीं चलता। मुझे दिल्ली वाली बालकनी अभी भी याद है। बल्कि अब ज्यादा याद है। मुझे सुनाई देता है "कविता, चप्पल बाहर निकाल" और वो चप्पल बाहर निकालकर दूसरे चप्पल पहनकर अंदर चली जाती है सिवाय उस दिन के जब वह अंटी के पुराने मैचिंग वाले चप्पल पहनकर आई थी। मुझे याद है वो तेरह साल के सख्त और खुदरे हाथ जिन्हें शायद उस समय बर्तन और कपड़े नहीं घिसने चाहिए थे। मुझे सुनाई देता है "हिसाब तेरी मां से कर लूंगी कवित्ता, बीच में बहुत छुट्टी करती है"। "ठीक है अंटी" के बाद सन्नाटे में बदल जाने वाला चंचलपन। मुझे याद है कविता उस दिन उस पीली फ्रॉक में परी जैसी लग रही थी। अब वो शायद बड़ी बिंदी और मांग में सिंदूर लगाती होगी, पीली साड़ी पहनती होगी। पर वह आज भी पहले की तरह दुबली ही होगी और उस रक्ताल्प कुपोषित किशोरी के उभार पूरी तरह कभी विकसित ही नहीं हो पाए होंगे। अब कविता अंटी के यहां काम नहीं करती होगी। शायद किसी "दीदी" या "भाभी जी" के यहां काम करती होगी या "मेमसाब" के यहां। पढ़ी लिखी होती तो शायद.....।
बहुत सालों बाद फिर से कविता मुझे मेरापन लिखने के लिए ललकार रही है। पर अब प्रेम मुझे प्रेरणा नहीं दे रहा। सच कहूं तो मुझे अब उससे घृणा भी नहीं है जिससे कागज झुलसाने वाले रैप लिखूं। मुझमें उसके लिए बस करुणा और दया बची है। मैं अब उसकी चंचल आंखें और रेखीय होठों पर नहीं रुक पा रहा। उसके उभार भी मुझे रोक नहीं पाते। मेरे भावों पर विचार हावी हैं। मैं अब कविता से प्रेम नहीं करता मैं उसका अध्ययन कर रहा हूं। वह मेरे लिए कविता से लड़की तो बहुत पहले ही हो चुकी थी। आज वह टॉपिक बन चुकी है। मैं लिखने के लिए आज आंतरिक आदेश महसूस नहीं कर रहा प्रतिबद्ध महसूस कर रहा हूं। मैं घंटों से दूर एक बालकनी को देखकर पंक्तियां बनाने का प्रयास कर रहा हूं कि शायद कोई भाव जागे और मैं उस कविता की करुणा को अपनी कविता में लिख सकूं। पर अब मैं शायद बुद्धि जीवी हो गया हूं। मैं कविता लिख नहीं पा रहा। मुझे गद्य ही लिखना पड़ेगा --
"दिल्ली में पढ़ने वाले अधिकतर लड़के जिस तरह के पीजी में रहते हैं वैसा ही एक पीजी मुझे भी मिल गया.....
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aarushi
बढ़िया कहानी।
babalvikas029
aryak3129
Kahani se judav mahsoos kiya hai mne i think it is realistic story
Description in detail *
Thank you for taking the time to report this. Our team will review this and contact you if we need more information.
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