झरने सा प्रेम

रोमांस
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"ये झरना नहीं... पहाड़ों का दर्द है जो आँसू बनकर बह रहा है..." उसकी आवाज़ पहाड़ों से टकराकर गूंज रही थी।

वह आवाज़ सुनकर मुझे यूँ लगा मानो यह किसी की अनकही पीड़ा है जो पहाड़ों से टकराकर मुझ तक आ रही है।

बिखरे घुंघराले बालों वाली उस लड़की को मैंने कई बार इन वादियों में देखा था। वह अकेली घन्टों झरने को निहारते बैठी रहती थी और मैं... मैं उसे निहारते... उससे थोड़ा पीछे बैठा करता था।

आज भी मैं उसके पीछे ही बैठा था। ठीक पीछे। इतना पीछे कि वह मुझे न देख पाए लेकिन इतना पीछे कि मैं उसे महसूस कर पाऊं।

उसने अपने गीले बालों को झटका। उसकी कुछ बूंदे मेरे चेहरे पर पड़ीं कि मानो मुझे अमृत मिल गया हो।

वह उठी। मेरी धड़कन तेज हो गयी। इतनी तेज कि शायद उसे भी सुनाई दे जाती। मैं घबराहट में पीछे हट गया और वह... वह आगे निकल गयी।

झरने के काफी करीब जाकर उसने अपनी गोरी हथेलियाँ पानी के नीचे रख दीं।
शायद इस उम्मीद में कि उसके हाथ की रेखाएं धुल जाएं... लेकिन ऐसा भी कहीं होता है क्या!

मेरे दिल ने कहा कि जाकर उसके हाथों को कसकर पकड़ लूँ। और... और उसके हाथ की रेखाओं को बदल दूँ। मैं हिम्मत कर आगे बढ़ा लेकिन तब तक वह दूसरी तरफ मुड़ चुकी थी। शायद जान गई थी कि जो यूँ पानी से हाथ की रेखाएं मिटतीं तो क्या ये दुनिया सर पीटते घूमती।

फिर भी वह रोज उस झरने के नीचे अपने हाथ रखती तब तक... जब तक वे ठंडे पानी के वेग से नीले न पड़ जाते। शायद इस तरह वह अपनी किसी पीड़ा को घोल कर बहा रही थी।

उसे देख मेरी रातों की नींद उड़ चुकी थी। उसके घुंघराले बाल मेरे सिरहाने महकने लगे थे। उसके गोरे हाथ मेरे बालों में घूमने लगे थे। रात भर जागकर मैं सुबह का इंतज़ार करने लगा था। उसके आने तक मैं बावला हुआ उस झरने से बातें करता।

और एक दिन उसने मुझसे कहा, "क्या तुम भी यहाँ हाथ की रेखाएँ बदलने आते हो?"

मैंने चौंक कर उसकी ओर देखा। वह मुस्कुरा रही थी या मेरा वहम था शायद... लेकिन जो भी था मदहोशी भरा था।
मैंने कहा, "नही, मैं यहाँ अपने हाथ की नहीं बल्कि तुम्हारे हाथ की रेखाएँ बदलने आता हूँ।"

यह सुनकर वह हँसी। इतना हँसी कि उसकी हँसी भी वादियों में गूंज गयी। मैं बेतहाशा उसे देखता रहा। फिर हौले से खा, "मैं... मेरे घर के हर एक कोने में तुम ही तुम हो... तुम मेरे सिरहाने तक आ पहुँची हो।"

उसने मुझे कुछ यूं देखा जैसे मुझे पहचानने की कोशिश कर रही हो। फिर बोली, "तुम भी वही हो..."

"वही कौन?" मैंने तड़प कर पूछा।

"वही.. जो इन हाथों को थामना तो चाहता था लेकिन निभाना नहीं।"

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हिमालय की तलहटी में बसा वह छोटा-सा कस्बा जो प्राकृतिक सौंदर्य से लबालब भरा हुआ है।
नैसर्गिक सौंदर्य साथ ही बर्फ से ढंके, लरजते पर्वत शिखर और बर्फ पिघलने से जगह-जगह बहते झरने... लेकिन जब उसे देखा तो लगने लगा कि जैसे इस प्रकृति ने ही उसका रूप धर लिया हो।

मैं उसमें ही गुम रहने लगा। उसे तरह-तरह से अपने पास महसूस करने लगा। वह कौन है, कहां रहती है, यह सब जानने के लिए मैं उत्सुक हो उठा।

मैं जब भी उससे बात करने की कोशिश करता, वह मुझे और रहस्मयी लगने लगती। जब वह मेरी ओर देखती तो मुझे उसकी आंखों में कुछ दिखता, शायद कोई बात या कोई गहरा दुख जो मेरे दिल में भीतर तक धंस जाता। इतने दिनों में उसने सिर्फ एक बार ही मुझसे बात की थी लेकिन मैं पागलों की तरह उसकी ओर खिंचा जा रहा था।

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मैं उसे ‘झरने वाली लडकी’ कहता...। न मुझे उसका नाम पता था न घर। वो भी इसी कस्बे में कहीं रहती होगी... मैं पता न कर पाया क्योंकि किसी लडकी का पीछा करना मैंने सीखा न था लेकिन आज मैं तड़के ही झरने की ओर चल पड़ा इस आस में कि आज उससे सब पूछकर ही वापस आऊंगा कि वह कौन है और कहां रहती है।

मैं अभी झरने की ओर बढ़ा ही था कि पीछे से आवाज आई, "किधर जा रहे हैं साहब?"

मैंने पलटकर देखा, "इस आदमी को कहीं देखा है...कहां? हां, याद आया। यह तो वही है। कल इसकी दुकान से ही तो सिगरेट ली थी मैंने।" मैं उसके पास गया, “क्या हुआ? आपने मुझे आवाज दी?"
"हां, वो... वो साहब, मैं... आपसे ही मिलने आ रहा था कि आप रास्ते में ही मिल गए। तो सोचा यहीं बात कर लूं।"
"हां हां, कहिए न क्या बात है?"

उस आदमी ने बहुत ही विनम्रता से कहा, "साहब, आज हमारे घर एक छोटा-सा कार्यक्रम है। आप तो शहर से आए हैं। आप यदि हमारे घर आ जाएं तो इस छोटी-सी जगह पर हमारा मान बढ़ जायेगा।"

"हां, हां...क्यों नहीं। मैं जरूर आऊंगा। कब आना है?" मैंने पूछा।

"साहब, कार्यक्रम थोड़ी देर में शुरू हो जाएगा। आपको दिन भर में जब भी समय मिले, आ जाईयेगा।"

इतना कहकर वह चला गया और मैं रोज की तरह झरने के पास जा बैठा। लेकिन आज वह वहां नहीं थी। जब काफी समय बीत गया तो मैं उसी आदमी के घर चला।

घर तो छोटा-सा था लेकिन सजावट बहुत सुंदर थी। शायद पहाड़ी परंपरा के अनुसार सब सजाया गया था। उनके पारंपरिक पेय और खाद्य पदार्थों से पूरा घर महक रहा था। मुझे भी जोरों की भूख लग आई थी।

मैं खाने की प्लेट उठाने ही वाला था कि मुझे वही जेडझरने वाली लडकीजेड की झलक दिखाई दी।

"ओह! तो क्या ये यहां रहती है! अब समझा कि आज यह झरने पर क्यों नहीं आई," मैंने मुस्कुराते हुए खुद से ही कहा और उसके पीछे चल पड़ा।

उसके पीछे मैं घर के बाहर आ गया। पास ही एक जामुनी फूलों से लदा पेड़ था। वह वहीं खड़ी थी।वह इतनी सुंदर दिख रही थी कि एक पल के लिए मेरी धड़कन रुक गई। दिल उछल पड़ा। मैं हिम्मत कर उसके पास पहुंचा तो उसने मुझे बिना देखे ही कहा, "क्या चाहते हो?"

उसके पूछे इस सपाट सवाल पर मैं हड़बड़ा गया और कह बैठा, "तुम्हें..."

वह जोर से हंसी। मैं डर गया कि कहीं उसकी हंसी सुन कोई इधर आ गया और मुझे इस तरह इसके पास खड़ा देख किसी ने कुछ गलत समझ लिया तो!

लेकिन वह अभी-भी हंस रही थी। उसकी हंसी में मैं बंध गया।
उसने धीरे से पूछा, "मुझसे क्या चाहते हो?"

मैंने अपने धड़कते दिल को हाथों से मजबूती से पकड़ा और होठों को गीला करते हुए कहा, "तुम्हें अपनी बनाना चाहता हूं।"

यह सुन वह निर्विकार हो बोली, "वह भी यही कहता था।"

"वह कौन?"

"वही... जो शहर से आया था और मुझे अपना बनाना चाहता था।"
उसने अपनी बिल्लौरी आंखों से मुझे देखा तो मैं उस 'वह' को भूल गया। अब मैं किसी भी हाल में उसे अपना बनाना चाहता था।

उसने मेरी ओर देखा और बोली, "मेरे साथ चलोगे?"

किसी को पाने की चाह सोचने समझने की शक्ति खो देती है।
मैने कहा, "जब कहो, जहां कहो..."
लेकिन तभी पीछे से उसी आदमी की आवाज आई जिसने मुझे यहाँ आने का न्योता दिया था।
वह मेरे पास आकर बोला, "साहब, आप यहाँ हैं... और मैं आपको खोजते हुए झरने तक चला गया था। "
"झरने तक?" मैंने अचकचा कर पूछा।
"हाँ, वो आप अक्सर झरने के पास बैठे रहते हैं न... इसलिए।"
"वो.. वो मैं..." मैं कुछ जवाब न दे पाया तो वह बोला, "साहब, आइये न... खाना लग गया है। सब आपका ही इंतज़ार कर रहे हैं।"
मैंने एक बार पीछे मुड़कर देखा और उस आदमी के साथ हो लिया।
वह सारे मेहमानों के साथ अंदर बैठी थी। वह कुछ गा रही थी... शायद वह कोई पहाड़ी लोकगीत था। उसके सुरीले सुर समा बांध रहे थे। मैं मंत्रमुग्ध हो उसे सुन रहा था।
बीच-बीच में कोई औरत उठकर नाचती फिर अपनी जगह बैठ जाती और वह गाती जाती।
लेकिन मैं तो दीवानों की तरह उसे ही देखे जा रहा था। कभी-कभी वह मेरी ओर देख लेती तो मुझे रोमांच हो आता।
मैं वहां काफी देर रहा। धीरे-धीरे सारे मेहमान जाने लगे तो मैं भी उठा। लेकिन उसे दरवाजे की ओट से मुझे निहारते देख रुक गया। सोचा, आज इसके लिए बात करके ही जाऊं।
मैंने उसे देखा और उस आदमी से कहा, "मैं... मैं आपसे कुछ कहना चाहता था.."
"मैं जानता हूँ साहब लेकिन जो आप चाह रहे हैं वह कभी नहीं हो सकता।"
"लेकिन मैं... मैं उससे बहुत प्यार करता हूँ और... और उससे शादी करना चाहता हूँ।"
"वह भी यही कहता था साहब।
"वह कौन?" मैंने बेसब्री से पूछा।
"रहने दीजिये साहब।"
"नहीं, आज तो मैं जानकर ही जाऊंगा।" मेरी आवाज सख्त हो गयी।
"साहब, आज हमारे कुलदैवत की पूजा थी। आप तो देख ही रहे हैं मैं सुबह से ही किस कदर व्यस्त हूँ। "
"तो आप कल मेरे घर आ जाएँ। इत्मीनान से बात करेंगे.."
इतना कहकर मैं उठ खड़ा हुआ। एक बार दरवाजे की ओट की तरफ देखा... वह वहां नहीं थी। शायद उसने हमारी बातें सुन ली थीं।

मेरी रात करवटें बदलते बीती। मुझे सुबह का बेसब्री से इंतज़ार था। सुबह हुई भी लेकिन वो आदमी नहीं आया। मैं उसका इंतज़ार कर थक गया तो झरने की ओर चल दिया।

वैसे भी इंतज़ार में समय धीमा हो जाता है। लगता है जैसे घडी की सुइयों ने बैसाखी पकड़ ली हो।
मैं आगे बढ़ा ही था की वह मुझे दिख गयी। मैं दौड़कर उसकी ओर गया लेकिन उसका मुरझाया चेहरा देखकर रुक गया।
"कल तुम्हें किसी ने कुछ कहा क्या?"
वह कुछ न बोली। बस पैर से मिट्टी उकेरती रही।
मैंने दुबारा पूछा तो उसके बदले में वह बोली, "क्या आप सचमुच मुझसे प्यार करते हैं?"
"हाँ..."
"कितना?"
"मतलब?"
"क्या आपको मेरी देह नहीं चाहिए?"
"ये कैसा सवाल है?"
"बताइये न... यदि मैं कहूं कि मेरा प्यार रूहानी है और मैं आपको दैहिक सुख नहीं दे पाऊँगी… तो भी क्या आप मुझसे उतना ही प्यार करेंगे?"
मैं औचक उसे देखता रहा। मैं उससे प्यार तो करने लगा था लेकिन क्या सचमुच देह से परे...?
मैं पीछे हटा तो उसकी हंसी वादियों में गूंज गयी।
मैं हिम्मत कर आगे बढ़ा... तो वह पीछे हट गयी। मैं रुक गया। उसकी ओर देखकर बोला, "प्रेम में देह भी शामिल होती है।"
"फिर तो आप मुझे नहीं पा पाएंगे," कहकर वह चली गयी।
मैं उसे देखता रहा। देह के बिना प्रेम… मेरी सोचने की शक्ति से परे था। और वह सिर्फ रूहानी प्रेम चाहती थी। सिर्फ दिल-से-दिल का… रूह से रूह का रिश्ता... मैं इसी उधेड़बुन में घर पहुंचा तो कल का वही आदमी, जो उसके पिता थे, मेरा इंतज़ार करते मिले लेकिन अब मुझे उनमे कोई दिलचस्पी नहीं बची थी।
फिर भी मैंने उन्हें बैठने के लिए कहा लेकिन वे खड़े ही रहे। उनके हाथ में एक अख़बार था जो उन्होंने मुझे पकड़ाया और चुपचाप चले गए।
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वह अखबार पढ़ने के बाद मैं कई रातें न सो पाया। वह झरने वाली लड़की मेरे सिरहाने महकती रही। मैं दीवानों की तरह उसे ख्यालों में सजाता रहा। धीरे-धीरे उसकी देह मेरे विचारों से जाती रही। अब वहां सिर्फ प्रेम था। विशुद्ध प्रेम।
यह एहसास होते ही मैं वह अख़बार, जो 2 साल पहले का था, उस पर लिखा था – ‘शहर से आये लड़के ने, प्रेम के बदले देह की मांग न मानने पर, लड़की की गला घोंटकर हत्या कर दी,‘ हाथ में पकडे पागलों की तरह झरने की तरफ भागा। वह अभी-भी वहीं बैठी थी। मैं उसकी ओर बढ़ा, "मैं... मैं समझ चुका हूँ कि प्रेम एक अलौकिक अनुभूति है। इसमें देह का कोई मोल नहीं।"
वह हंसी। उसने मेरा हाथ पकड़ा और झरने की ओर चल दी। मैं उसके पीछे चल पड़ा।
मैं अचानक हल्का महसूस करने लगा जैसे हवा में उड़ रहा हूं। हम दोनों कब पानी पर चलते हुए झरना पार कर गए पता ही न चला।
उसने मुस्कुराकर मेरी ओर देखा, "मैं किसी की बनना नहीं...किसी की होना चाहती थी। उसने भी मुझे अपना बनाया था लेकिन... लेकिन सिर्फ मेरी देह को। मेरे मन, प्राण, आत्मा को तो उसने कभी देखा ही नहीं।"
अब मैं भी देह से परे जा चुका था। हम दोनों… झरने के पार खड़े थे... रूहानी प्रेम में बंधे थे। सदा-सदा के लिए।
दूसरे दिन पुलिस झरने के उस पार से मेरी वही देह उठा रही थी जिसने कभी उस झरने वाली लड़की को सिर्फ पाना चाहा था… उसकी रूह में उतरना नहीं। लेकिन अब उसने मुझे मेरी देह से मुक्त कर दिया था या... मैं खुद ही अपनी देह से मुक्त हो गया था... कुछ याद नहीं।
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वह झरना अभी-भी बह रहा है। आगे भी बहता रहेगा लेकिन अब वह पहाड़ों के दर्द के आंसू बनकर नहीं बल्कि हम दो प्रेमियों की अमर प्रेम कहानी कहता बहेगा।

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