JUNE 10th - JULY 10th
“नेमु! दो कप चाय ले आ गार्डन में।”
अपने घुँघराले बालों को लपेटकर जूड़े का रूप देते हुए स्वर्णलेखा सीढ़ियों से उतरी और पिछले चालीस बरस की आदत के अनुसार रसोई के आगे से निकलते हुए आया को आदेश दिया। नेमुनि अचम्भित-सी रसोई से बाहर आई। तब तक स्वर्णलेखा ने एक झाड़न अपने हाथ में ले लिया था।
“गार्डन की मेज तो साफ़ की नहीं होगी तूने।”
स्वर्णलेखा ने कृत्रिम नाराज़गी से नेमुनि को देखा और फिर एक दृष्टि हॉल के बाहर गार्डन में रखी दो कुर्सियों के मध्य विराजी मेज पर डाली। नेमुनि ने उसके हाथ से झाड़न ले लिया और हॉल का दरवाज़ा खोलने लगी।
“बोला न! मेज से धूल मैं झाड़ दूँगी। तू जा... दो चाय का पानी रख गैस पर।” स्वर में तल्ख दृढ़ता उभर आई थी।
वह हॉल के दरवाज़े को थोड़ा और खिसकाकर बाहर आई और फुर्ती से लकड़ी की बेमिसाल कारीगरी वाली मेज पर बिखरे अखबार के पन्ने और मैगज़ीन सँभालने लगी।
“दो चाय? बीबी जी!” नेमुनि भी पीछे-पीछे ही चली आई। वह तो चाय पीती न थी।
स्वर्णलता के हाथ से लेकर अखबार तो उसने सँभाल लिए थे किंतु इतनी मजबूती वह अपने हाथों में न पाती थी कि अपनी बीबीजी को सँभाल सके। वह आँखें फाड़े उसे ताक रही थी। अपने चेहरे पर नेमुनि की गढ़ी हुई आँखें महसूस करते ही स्वर्णलता की आँखें पनीली हो आईं। उसका सिर चकराने लगा और वह खड़ी न रह सकी। नेमुनि ने सहारा देकर उसे कुर्सी पर बिठाया। उसने सिर पीछे कर आँखें कसकर बंद कर लीं। जो वह कभी देखना नहीं चाहती थी, वह दृश्य अब उसका जीवन बन चुका था।
“अभी लाई आपके लिए चाय... ” नेमुनि के थके-से कदम रसोई की ओर बढ़ गए।
स्वर्णलेखा की बंद आँखों के पानी में कई स्मृतियाँ तैर गईं। वेदप्रकाश और वह तीनों बेटियों की शादी कर जिम्मेदारियों से गतवर्ष ही मुक्त हुए थे। बेटी को अपने ससुराल में सुखी पाकर वे अब निश्चिंत थे। अत: इस बार एक माह केन्या, युगांडा, तंज़ानिया आदि अफ़्रीकी देशों का भ्रमण करने गए थे। केन्या में ही उन्हें ब्लैकवुड से बनी यह मेज़ पसंद आई थी। सोने की-सी कीमत वाली इस मेज़ और दो कुर्सियों का दुबई तक आने का व्यय भी बहुत था। इतनी राशि में ऐसी ही आबनूस की कई मेज़ खरीदी जा सकती थी और अगर अपनी ही फैक्टरी ‘स्वर्णवेद फर्नीचर्स’ से बनवाई जाए तो ऐसी ही नक्काशी भी आधे व्यय में हो जाए, परंतु वेदप्रकाश नहीं माने। समझौता करना उनकी प्रवृत्ति में शामिल न था।
स्वर्णलेखा तब बहुत भड़की थी। काले रंग का फर्नीचर भी कोई रखता है घर में? बाकी का ट्रिप उसने खिन्नता में ही निकाला। परंतु वेदप्रकाश का कहना था-
‘दुबई तो ब्लैक गोल्ड का शहर कहलाता है। तुम्हारा कुंदन-सा बदन इस बलैकवुड पर बहुत खिलेगा, देखना तुम!’
वेद के लिए श्रीलंका, इंडोनेशिया से इबोनी काष्ठ दुबई मँगवाना और उसका अपनी पसंद से फर्नीचर बनवाना कोई मुश्किल काम न था, उनका तो व्यापार ही यही था। उनकी यह ज़िद और फिज़ूलखर्ची उसे बिल्कुल रास न आई थी। मालजहाज़ से एक माह बाद वह मेज़ कुर्सी आई तो उसने बेमन से उन्हें गार्डन में रख दिया। परंतु वेद उन्हें गार्डन में पाकर और भी खुश हुए। ऐसी मजबूत लकड़ी ही दुबई के उबलते तापमान में बिना झुलसे अपना ध्वज फहराए रह सकती थी।
धीरे-धीरे स्वर्णलेखा का क्रोध जाता रहा। वह वेद के आने से पूर्व ही नेमुनि को कह मेज़ झाड़-पौंछ कर साफ़ करवाती और शाम की चाय की चुस्कियाँ लेते हुए जीवन की दूसरी पारी के आनंद की घड़ियाँ काली मेज़ से उतरतीं और घर भर में डेरा डाल लेतीं। सुबह की चाय और अखबार पढ़ने का ठिकाना भी गार्डन और वह मेज़-कुर्सियाँ हुईं।
उसी कुर्सी पर बैठी स्वर्णलेखा का हृदय आज दु:ख से चीत्कार रहा था। उसकी आँखें बरसाती पतनाले-सी झर-झर झर रहीं थीं। वहाँ अकेले बैठ चाय उसके दिल को जलाती थी। नेमुनि चाय ले आई। तभी स्वर्णलेखा का मोबाइल बज उठा।
“हैलो! क्या मैं वेदप्रकाश जी से बात कर सकता हूँ?” उस ओर से आवाज़ आई।
“जी... वेदप्रकाश जी तो... अब नहीं रहे। आप कौन?” स्वर्णलेखा किसी तरह स्वयं को संयत कर पाई थी।
“ओह! बहुत अफ़सोस हुआ जानकर... । पर यह हुआ कैसे? कब हुआ? अचानक...?” प्रश्नों की झड़ी ने स्वर्णलेखा के दु:ख को और बढ़ा दिया था।
“आपके पास मेरा नम्बर?…क्या वेद जी ने दिया था?” उम्मीद की एक किरण स्वर्णलेखा के मन में कौंधी कि हृदयाघात से पहले का दिया हुआ वेद का ही कोई संदेश इन सज्जन के माध्यम से मुझे मिल जाए, जिसे वे यूँ अकस्मात चले जाने से कह न सके।
“क्षमा कीजिए मैम! मैंने तो वेदप्रकाश जी के नम्बर पर ही फ़ोन मिलाया था।... कोई सेवा हो तो याद कीजिएगा। मैं... ज्ञानदेव...” आगे ज्ञानदेव कुछ कह न सका।
स्वर्णलेखा की भी संज्ञा लौटी। वेद के जाने के बाद उसने स्वयं ही तो उनके मोबाइल का ‘एतिसलात’ सिम अपने मोबाइल के दूसरे सिम स्लॉट में डाल लिया था ताकि वह उन्हें अपने से जुड़ा हुआ महसूस करती रहे। आशा के विपरीत उसके दर्द को सहलाने में यह सिम सर्वथा असफल रही थी। वेद को कभी कॉल करनेवालों को यह बताना कि वे नहीं रहे, उसकी पीड़ा में सुई ही चुभो रहा था। स्वर्णलेखा ने सिम वाली नुकीली सुई से वेदप्रकाश के सिम को निकाल कर मेज़ पर रख दिया।
“बीबी जी! आप अपना जी लगाने को अपना चित्रकारी का काम फिर से क्यों नहीं शुरु करतीं?” नेमुनि, जो पास बैठी सब सुन रही थी अचानक बोल पड़ी।
“कोशिश की थी नेमु! पर कूची मेरे मनचाहे रंगों को कैनवास पर उतार नहीं पाती। ...याकि यूँ कहूँ कि मरे मन की चाह के रंग कौन-से हैं, अपनी तूलिका को मैं ही समझा नहीं पाती। सब ओर बस काला-सा रंग बिखरा दिखाई देता है।” उसने मेज़ पर उचटती सी निगाह डाली।
अपनी इस बात से स्वर्णलेखा स्वयं हैरान थी कि वह यह सब इस नेपाली वृद्धा को क्यों बता रही है, जिसे चित्रकारी की रत्ती भर भी समझ नहीं है। पर..., वह रंग भले ही न समझती हो, बीस साल से उसके साथ रहते हुए उसे अवश्य समझती है।
“आप बाबू जी के काम सँभालने शुरु कर दीजिए।” वह घर के बड़े-बुज़ुर्ग की भाँति ही उपदेश दे बैठी।
“हाँ नेमु! फैक्टरी जाना शुरु करूँगी अगले महीने से...” अनमनी यंत्रचालित-सी वह बोल उठी।
नेमुनि इस आश्वस्ति विज्ञप्ति को सुनकर भी आश्वस्त नहीं लग रही थी। वह सिम वाली पिन और सिम उठाकर अंदर ले गई और स्वर्णलेखा अजनबी निगाहों से उसे जाते हुए देखती रही।
स्वर्णलेखा की सोच शून्य में गुम हो गई। तीनों बेटियाँ और दामाद भी तो यही कह रहे हैं। पर क्या यह उसकी उम्र है कि वह व्यापार की ऊँच-नीच समझ ले। फर्नीचर का व्यापार तो बहुत ही भारी काम है। माना कि बचपन में वह मेधावी छात्रा थी, एम.बी.ए. भी किया है किंतु इन सबका उसे अब अभ्यास ही कहाँ है? सोचते हुए उसने चाय का कप प्लेट में रखा और शीशे-सी चिकनी मेज़ की सतह पर धूप की चमक में उभर आई अपनी आकृति को देखा। साठ की उम्र उस आकृति की तो कतई न लगती थी। धूप की दृष्टि तो तथ्यों को स्पष्ट ही दिखाती है, फिर आज यह भ्रमित-सी मन:स्थिति क्यों हो रही है?
काले रंग पर धूल अधिक साफ़ दिखती है कदाचित इस कारण यह भ्रमजाल पैदा हुआ हो। उसने पुन: झाड़न लिया और मेज़ की सतह झाड़ने लगी। वह जितना झाड़ती, कहीं न कहीं फिर धूल का कोई कतरा उसे व्यथित करने को बैठ जाता। खिन्नता फिर चुभने को चली आई कि इस कारण भी वह काले फर्नीचर के विरोध में थी। फिर अचानक वेद की याद आते ही वह पुन: सीलनभरी आँखों से मेज़ की दराज़ें खोल-खोलकर सफ़ाई में जुट गई। अपने अपराध उनसे क्षमा करा ले रही थी।
उन दराज़ों में उसे वेद के पत्र, डायरी, हिसाब के पर्चे और न जाने क्या-क्या मिला। आज वे दराज़ें श्याम वर्ण के दर्पण बन गईं। ऐसा दर्पण जिनमें वह अपने ही पति के व्यक्तित्व के उस पक्ष को निकटता से देख पा रही थी जो कदाचित उनके साथ रहते न देख पाई थी। सुयोग्य साथी पर भरोसा निजकर्त्तव्य पर विश्वास को ऐसे ही दबा देता है जैसे आबनूस का रंग अन्य सारे रंगों को दबा देता है।
बाहर धूप तेज़ हो चुकी थी, आँखें चुँधिया रही थीं। सारे कागज़ लेकर वह भीतर आ गई। कच्चा माल कहाँ-कहाँ से आता है, किस-किस कारीगर को दिया जाता है, घिसाई और पॉलिश का निपुण कौन है और क्या भाव में वह काम करता है। अब तक किस-किस से कितना काम कराया और किस-किस का लेना-देना बाकी है, मैनेजर की तनख्वाह, शोरूम का किराया; सारा हिसाब-किताब तो उनकी डायरी में साफ़-साफ़ लिखा था। ‘स्वर्णवेद’ फर्नीचर का दुबई के राजमहल से जारी सम्मान-पत्र, शारजाह के विश्वविद्यालय से आया प्रशस्ति-पत्र आदि उनके उच्च कोटि के ग्राहकों की संतुष्टि प्रमाणित करते थे।
वेद पिछले एक वर्ष से सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे थे। निजी उत्तरदायित्व निभाकर वे सामाजिक उत्तरदायित्व को उन्मुख हुए थे। एक बड़ा कार्टन भरकर पेंसिल नाइज़ीरिया के लिए, खाली बची हुई कॉपियों के पन्ने सोमालिया भेजने के लिए, पुरानी साड़ियाँ सुडान की महिलाओं के लिए, बिस्कुट के पैकेट श्रीलंका के लिए; सब के बक्से फैक्टरी में रखे हुए थे। पूर्ण लेखा-जोखा इन कुछ पर्चों के काले अक्षरों में दर्ज था।
ये सारे पर्चे उसने करीने से मोड़कर अपने पर्स में रखे और ड्राइंग रूम में रखी अपनी अधूरी पेंटिग के सामने बैठ गई। कुछ क्षण बाद रंगमिश्रण की पटिया पर लाल, हरे, पीले रंग निकाले, तारपीन का तेल मिलाकर कूची के साथ उनकी संगत बिठाई और सूर्य की प्रत्यावर्तित किरणें बनकर मन-मस्तिष्क के रंग कैनवास पर छितराने लगे।
“बीबी जी! आज पेंटिंग?” नेमुनि अपनी मालकिन की स्फूर्ति और कला को कब से निहार रही थी।
“हाँ नेमु! यह पेंटिंग बनाने को मुझे तुम्हारे साहब ने कहा था। वे इसे भारतीय कौंसलावास के मुख्य कौंसल को उनके जन्मदिन पर उपहारस्वरूप देना चाहते थे।”
“कितनी सुंदर है न! बीबी जी! इस पेंटिंग में अँधेरे को चीरकर लौटती हुई रोशनी देख कर लग रहा है कि बाबूजी ही लौट आए हैं।” नेमुनि ताली पीटती-सी उछल रही थी। स्वर्णलेखा अपनी हमउम्र नेमुनि की ऊर्जा देखकर हैरत में थी।
“जा नेमु! सिम डालने की पिन और बाबूजी का सिम तो ले आ।” स्वर्णलेखा का चेहरा उमंग, निश्चय और आत्मविश्वास से दमक रहा था।
“हाँ बीबी जी! इसे डालकर ही रखो दूसरे स्लॉट में।” उसकी खुशी का कारण क्या था, पूछने पर शायद वह स्वयं भी न बता पाती।
“दूसरे नहीं... पहले स्लॉट में...।” सिम को अंदर धकेलते ही फ़ोन बज उठा।
“स्वर्णलेखा जी! मैं ज्ञानदेव... कौंसल जनरल साहब का पी.ए.। क्या आप कल कौंसलावास आ सकती हैं?... दरअसल बात यह थी कि वेदप्रकाश जी ने जो एक हज़ार दिरहम दिए थे हमें भूमिदेवी को भारत पहुँचाने के लिए, वे लौटाने हैं।” वे सकुचाते हुए बोले।
“लौटाने हैं? मगर क्यों ज्ञानदेव जी? क्या भूमि देवी को कुछ...?” किसी वीभत्स अंजाम की कल्पना कर स्वर्णलेखा के शब्द उसके गले में ही फँसकर छटपटाने लगे।
“भूमिदेवी तो उस हादसे में अपंग हो गईं थी तो उन्हें पहुँचाने के लिए किसी और को साथ में भारत भेजना था... उसका प्रबंध हम नहीं कर पा रहे हैं। तो बस... इसी लिए... जब कुछ इलाज होगा इस समस्या का तब देखा जाएगा।” ज्ञानदेव का स्वर निराश हो चला था।
“मैं कल आ रही हूँ ज्ञानदेव जी! मुझे कौंसल जनरल को अपनी पेंटिंग भी भेंट करनी है। और... आप भूमिदेवी के साथ मेरी टिकट करा दीजिए। मैं उनके साथ उन्हें उनके गाँव तक छोड़ आऊँगी।” दृढ़ विश्वास से लबरेज थीं स्वर्णलेखा की मुखकांति।
“लेकिन आप... आप स्वयं?” ज्ञानदेव की खुशी आश्चर्य में घुल-मिलकर छलकी।
“आप तैयारी कीजिए। और हाँ! कौंसलावास की ओर से वेद के जिम्मे के कोई काम अधूरे न रहें, इसका जिम्मा मैं लेती हूँ।”
काले रंग के दर्पण ने उसे अपने गंतव्य की दिशा दिखा दी थी। उस राह पर वेद बाँहें फैलाए दूर मुस्कुराते हुए खड़े थे।
-डॉ. आरती ‘लोकेश’
-दुबई, यू.ए.ई.
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dipesh.aggarwal.1978
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bansaldeepak1968
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