अंधेरे-उजाले मेरी ज़िंदगी के उन क्षणों को याद कराते हैं जो क्षण कभी उदासी में तो कभी बहुत मुस्कुराते हुए बीतते थे। हर इंसान की ज़िंदगी में कभी अंधेरा तो कभी उजाला ज़रूर आता है पर इसे हर इंसान को बखूबी सहन करने की आदत रखनी चाहिए।
अंधेरा मेरी ज़िंदगी में तब आया जब मैं अंधेरे को पहचानता ही नहीं था, यानी मैं मात्र दो - ढाई वर्ष का था जब मेरी दोनों टाँगे पूर्णतः चली गई। ज़िंदगी भर मस्त रहते हुए मैं इस अंधेरे को दूर करता रहा। फिर यह अंधेरा मेरी ज़िंदगी में उजाला बन गया। यही कारण है की इस पुस्तक में मैंने काव्य के माध्यम से अंधेरे व उजाले दोनों पर लिखा।
मेरी ज़िंदगी के कुछ अंश भी इसमें डाले गये हैं। ये शायद आपको अच्छे लगेंगे। आप अपने विचारों से मुझे अवगत करवायें। आने वाली पुस्तकों में मैं और बेहतर लिखूँगा।
धन्यवाद....