पद्मिनी के जौहर के बाद चित्तौड़गढ़, दिल्ली सल्तनत के अधिकार में आ गया| राजनैतिक घटनाक्रम में चित्तौड़गढ़ को जालौर के राजवंशी मालदेव को ठेके पर दे दिया गया| इधर मेवाड़ में फैली अराजकता, पारिवारिक कलह एवं नागरिकों की कठिनाईयों को हल करने में प्रवृत युवा महाराणा हमीर को सामन्तो की उदासीनता के कारण निराशा का समय देखना पड़ा| इन्ही निराशाओं के क्षणों में देवी बरबड़ी नामक तपस्विनी ने अपने सुझावों द्वारा महाराणा हमीर को प्रत्याक्रमण हेतु तत्पर किया| चित्तौड़गढ़ में बैठे मालदेव ने आक्रमणों से त्रस्त होकर अपनी पुत्री का विवाह हमीर से करा कर शांति स्थापना की| इसी शांति काल में हमीर ने अपनी शक्ति बढाकर चित्तौड़गढ़ पर अधिकार कर लिया| पराभूत मालदेव के पुत्र जयसिंह ने अपने प्रभाव से तत्कालीन दिल्ली सुल्तान मुहम्मद तुगलक को साथ लेकर ससैन्य मेवाड़ में प्रवेश किया| सिंगोली गॉंव में हुए इस युद्ध में तुगलक बंदी बनाया गया और ले-देकर तीन माह बाद उसे छोड़ दिया गया| इस विजय की प्रसन्नता एवं देवी बरबड़ी की स्मृति में महाराणा हमीर ने चित्तौड़गढ़ में अन्नपूर्णा मंदिर बनवाया| जौहर की राख जिसे विरासत में मिली उस हमीर द्वारा मन्दिर के शिखर निर्माण तक की यात्रा को इस उपन्यास में उकेरने का सशक्त प्रयास किया गया है|
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