यह नाटक उस दौर में लिखा गया जब मैं नाटक की पढ़ाई श्रीराम सेंटर फॉर आर्ट एंड कल्चर से कर के लगातार बल्लबगढ़, फरीदाबाद और दिल्ली में नाटक कर रहा था । हास्य नाटकों की कमी हमेशा खलती थी । तमाशा शैली में लिखे गए नाटक खासकर “सैंया भये कोतवाल“ और “गधे की बारात“ जैसे नाटक हमारा ग्रुप आकृति रंग मंच मंचित कर चुका था । उसके बाद भी और बहुत से नाटक किये लेकिन तमाशा का जनून उतरते नहीं उतरता था । फिर सोचा के क्यों ना एक ऐसा नाटक लिखा जाए जिसमें हर दूसरे वाक्य में कुछ न कुछ हँसी मज़ाक हो। बात उन दिनों की है जब सीरियल “कुदरत नामा“ शूटिंग पूरी होने के कगार पर था I एडिटिंग शुरू नहीं हुई थी । खाली वक्त में ऑफिस में बैठे हुए “श्री 420” नाटक मैंने पूरा किया और कला रंग मंच फरीदाबाद के साथ रिहर्सल भी शुरू हो गयी । महिला कलाकार मुश्किल से मिलते थे इसलिए महिला पात्र भी नाटक में कम रखे और जो थे उनके संवाद और सीन कम लिखे कि अगर वो रोज़ रोज़ ना भी रिहर्सल में आ सके तो नाटक की रिहर्सल जारी रह सके। नाटक का अंतिम अंक रिहर्सल शुरू होने के बाद लिखा गया ।
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