विजयी भवः ऑपरेशन सिन्दूर में रणनीतिक संप्रेषण के संदर्भ में भारतीय राजनयिक समन्वय का एक अध्ययन
मई २०२५ में, पहलगाम नरसंहार के उपरान्त भारत ने पाकिस्तान के विरुद्ध तीन दिवस तक चलने वाला प्रचण्ड सैन्य अभियान प्रारम्भ किया। ऑपरेशन सिन्दूर ने अद्वितीय निपुणता और प्रबल शक्ति का प्रदर्शन किया। परन्तु जैसे ही भारत ने सामरिक उच्चता प्राप्त की, एकाएक युद्धविराम की घोषणा कर दी गयी — यह निर्णय रणक्षेत्र की थकान से नहीं, अपितु राजनयिक थकान से उत्पन्न हुआ।
‘विजय भवः’ इस अकस्मात परिवर्तन की सूक्ष्मता से समीक्षा करता है। यह उद्घाटित करता है कि किस प्रकार भारत की सैन्य प्रतिभा को एक समानान्तर — और सम्भवतः पूर्वनियोजित — राजनयिक पथ द्वारा कुंठित कर दिया गया, जिसने राजनीतिक नेतृत्व को अप्रभावी बनाते हुए गत्यवरोध उत्पन्न कर दिया। कालक्रम, आन्तरिक शक्ति-संरचना तथा सामरिक संप्रेषण की असफलताओं के आधार पर यह ग्रन्थ विशद करता है कि किस प्रकार विदेश मंत्रालय और सेनाओं के मध्य संस्थागत विषमता ने भारत की दीर्घकालीन सामरिक स्थिति को शिथिल कर दिया।
यह कोई युद्ध-संस्मरण नहीं है। यह कोई चिन्तन-मण्डल का शोधपत्र नहीं है।
यह तो एक ‘विजय विश्रान्त’ की रणनीतिक शवपरीक्षा है।
सैन्य विश्लेषकों, विदेश-नीति चिन्तकों और उन सभी के लिए अनिवार्य पठन, जो अब भी यह मानते हैं कि रणभूमि की सफलता ही भू-राजनीतिक श्रेष्ठता का पर्याय है।
युद्ध भूमि पर हि युद्ध नहीं होते। वे होते हैं सत्ता के गलियारों में भी — उन मस्तिष्कों द्वारा, जो निर्णायक क्षण पर झपक जाते हैं।