सामाजिक,धार्मिक,राजनैतिक विविध विसंगतियों में सहज शान्ति की तलाश वाला
मन जब हिरण की तरह कुलांचे नहीं भर पाता, बल्कि बकरियों की तरह मिंमियाने
लगता है, तब कुछ कहने की विकलता और विवशता होने लगती है । वैसे ही किंचित
विकल क्षणों की कुछ बानगी है यहां- व्यंग्य-वेदना में । वस्तुतः ये वेदना
ही है, एक निरवलम्ब की व्यथा, जो व्यंग्य जैसा तो हो गया है सिर्फ । आशा
है पाठकों को रुचिकर लगेगी मेरी वेदना।