उसकी शादी

यंग एडल्ट फिक्शन
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वो छोटी सी बच्ची अपनी मम्मी से एक गिलास दूध पीने को मना कर रही थी, रात में पकौड़ियां नहीं खाने दूंगी बोलके उसकी मम्मी ने जबर्दस्ती उसे दूध पिला दिया, दूध में गुड़ डला था, पापा ने कहा “दूध में गुड़ डला है, गुड़ शरीर को गर्म करता है, ठंड में रोज पिया करो”, बस मुंह बनाते हुए “हा” कह दिया उसने, सुगंधा को दूध-घी बिल्कुल पसंद नहीं था।


बीस साल हुए इस बात को बस बैठके याद कर रही थी इसी बात को सुगंधा, कि कैसे मम्मी जबर्दस्ती दूध पिलाया करती थी, ठंड के मौसम में गुड़ वाला जिससे मैं अंदर से गर्म रहूं।


कुछ आधे घंटे हुए होंगे यही सोच रही थी वो, और अचानक से एक लड़की उसके कमरे में आकर कहती है, “एक आदमी है, तैयार होजा”, सुगंधा दो मिनट में अपने बाल ठीक करकर, लिपस्टिक की एक और परत अपने होंठ में चढ़ाकर बिस्तर में बैठ गई, एक आदमी कमरे के अंदर आया, हाथ में दारू की बोतल लिए हुए था और ढक्कन खोल रहा था, आकर सुगंधा के किनारे की गिलास में दारू भरते हुए बोला, “और बेबी, हाउ आर यू”, और सुगंधा ने लगभग मुस्कुराते हुए कहा “फाइन”, उसने वो दारू से भरा हुआ गिलास सुगंधा की ओर सरकाते हुए कहा, “लो बेबी”, सुगंधा को दारु पीना पसंद नहीं था, मुँह सा बनाकर कहती है, “नहीं यार”, उसके बाद उस आदमी ने सुगंधा की गर्दन में हाथ रखकर मुंह में लगभग जबर्दस्ती गिलास रखकर, एक बार में एक गिलास दारू पिला दी, और बोला “गरम हो जा”, ऐसे ही रोज पांच-सात मर्द उसके कमरे में आते थे और उसे गर्म करते थे, अपने-अपने पसंद की चीजें खिलाते-पिलाते थे, और गर्म करते थे, असल में उसके कमरे में नहीं, कोठे में, क्योंकि अब सिर्फ सुगंधा नहीं, एक वेश्या भी थी वो।


बचपन की बात है, शायद आठ-दस साल की रही होगी वो, बाहर खेल रही थी, लुका-छुपी, और किसी ने उठा लिया उसको, सबको लगा अगवा हो गई, खूब रिपोटा-रपाती कराई गई, अब छोटे शहरों की पुलिस कितनी ही मशक्कत करती हैं।


असल में सुगंधा को उठाकर बेच दिया गया था, कुछ सालों तक उसे बाकी छोटी लड़कियों के साथ रखा गया और फिर जैसे धीरे-धीरे एक-एक लड़की को बाहर निकाल दिया जाता था, एक दिन उसे भी बाहर निकाल दिया गया, असल में बाहर नहीं निकाला गया, बस उन बिकी हुई लड़कियों के झुंड से बाहर निकाला गया और कोठे में बिठाल दिया गया। हर एक वेश्या जैसे उसे भी धंधे की धीरे-धीरे आदत पड़ गई, आदत पड़ गई उन गीले गीले से नोटों की, उन पागल-सनकी लोगों की, उन अजीब-अजीब से पेटों की, उन रहीस-रहीस सेठों की, उनकी झूठी मोहब्बत की, रोज की जिस्मानी मशक्कत की, झूठ-मूठ का हंसने की, नकली प्यार भरे ताने कसने की, मरा-मरा सा जिंदा रहने की, कुछ गिने-चुने शब्द कहने की, नापसंद की चीजें खाने-पीने की, अपने खत्म हो गए, मरे हुए, झूठे-टूटे ख्वाबों को, मन ही मन में सीने की, अंदर से रोते और बाहर से हंसते रहने की, अपने शरीर को जबरदस्ती कसते रहने की, बार-बार जानबूझकर लोगों के साथ फसते रहने की।


जैसे ही कोठे में बैठना शुरु किया उसने, दूसरी वेश्याओं की तरह धीरे-धीरे करके, सुगंधा भी लड़की से वेश्या बन गई।


बाकी की मंजी हुई वेश्याओं की तरह ही, अब सुगंधा भी दिन के पांच-सात मर्दों से पैसे वसूल लेती थी, अभी जो आदमी सुगंधा को जबरदस्ती शराब पिला रहा था, वो छोटे शहर का पुलिस वाला था, शराब पिलाकर सुगंधा के साथ काफी मशक्कत की उसने और चला गया।


कोई नई बात नहीं थी सुगंधा के लिए, रोज कुछ नामर्द आके सुगंधा के ऊपर चढ़ते थे और नीचे उतरते थे और चले जाते थे। पर ऐसा नहीं था कि सुगंधा को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था, हर बार उसे उतनी ही ठेस पहुंचती थी, उतना ही बुरा लगता था, और जब भी वो उस धंधे से बाहर निकलने की सोचती थी, उसे कोई विकल्प नहीं दिखता था, और धंधा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं दिखता था। वो उन तमाम वेश्याओं की तरह लगभग जानबूझकर इसमें फंसी हुई थी। उसी दिन की बात है, जब पुलिसवाला सुगंधा को खिला-पिलाकर गर्म करके गया था, शाम को खूब बारिश हुई, और सुगंधा बाहर आंगन में निकलके कूद-कूद के बारिश में गीली होती रही…


वो बारिश में आसमान की तरफ हाथ फैलाकर कुछ ऐसी गीली हुई जैसे बादलों से कह रही हो, “और तेज, और तेज”, कुछ इस कदर गीली हुई जैसे वो चाहती है कि बारिश के बहुत तेज पानी से उसका शरीर साफ हो जाए, पर वो कितनी भी गीली हो जाए, अपने आप को सिर्फ गीला ही महसूस करती रही साफ नहीं, गंदी और गीली। उसके शरीर में धूल, मिट्टी, पसीना नहीं लगा था, बल्कि कई लोगों का शरीर लगा था, और जा ही नहीं रहा था। बारिश में गीला होना पसंद भी था उसे, तो होती रही गीली, लंबे समय तक।


कुछ दिनों बाद की ही बात है, जब वेश्याओं के मोहल्ले में गुलाब जी आए, गुलाब जी चौबीस-पच्चीस साल के बहुत ही प्रसिद्ध लेखक है, जब वो वेश्याओं के मोहल्ले से जा रहे थे, तो वेश्याओं के मोहल्ले के रोजाना मुसाफिर मेस्ठ ने गुलाब जी को देखा और मन ही मन में सोचा कि “इतने बड़े लेखक और यहां, सब एक जैसे ही होते हैं, या फिर हो सकता है सिर्फ गुजर रहे होंगे, यहां नहीं बाहर मिले होते तो जरूर एक सेल्फी ले लेता, परसों ही इन्हें किसी नेता के साथ टीवी में देखा था, मेस्ठ के लिए विश्वास कर पाना मुश्किल था कि उसने गुलाब जी को वेश्याओं के मोहल्ले में देखा और वो भी पैदल"।


गुलाब जी हमेशा की तरह अपने सादे से लिबाज़ में पैदल चल रहे थे, कोई उन्हें देखकर नहीं कह पाता कि वो एक बहुत अमीर और प्रसिद्ध लेखक है।


जैसे ही कोठे के सामने वाले चपरासी ने गुलाब साहब को देखा तो “साहब साहब” करता पास आया, जब गुलाब साहब ने अंदर जाने की ओर कदम बढ़ाया तो, थोड़ी परेशानी में आकर चपरासी बोला, “साहब, आप अंदर जाएंगे”, तभी गुलाब साहब मुस्कुराते हुए बोले “क्यों भाई, नहीं जा सकते क्या”, चपरासी कुछ कह ना सका, बस धीरे से बोला, “आइए साहब”। बाहर बैठी एक मोटी सी औरत से चपरासी बोला, “देखो-देखो दाई-मां कौन आया है, बहुत प्रसिद्ध लेखक है”, दाई-मां ने बोला “बताइए क्या सेवा करें”, गुलाब जी बोले “कुछ समय के लिए, एक औरत चाहिए, कितने पैसे दूं", दाई-मां कुछ दंग सी हो गई, आज तक इतने आत्मविश्वास और स्वाभिमान के साथ किसी ने अंदर जाने की बात नहीं की थी, मन ही मन में बोली “कितना बड़ा नामर्द है ये”।


एक लड़की को अंदर पहुंचाके दाई-माँ ने सुगंधा को तैयार होने का संदेशा पहुंचाया और गुलाब जी से दाम बोले, गुलाब जी ने बिना कुछ बोले पैसे निकालके दाई-मां के सामने रख दिए, दाई-मां जैसे कुछ पूछना चाहती थी, पर कुछ पूछ नहीं पाई और बस इतना बोली की, “तो, आप लिखते हैं”, गुलाब जी ने सिर हिलाते हुए बस इतना कहा, “जी”, और फिर कुछ समय का सन्नाटा, गुलाब जैसे उस जगह के हर एक कोने को ध्यान से देख रहे थे, बहुत ध्यान से, और फिर अचानक से दाई-मां से सामने की ओर इशारा करते हुए बोले, “वो खून है, या किसी ने पान थूका है”, दाई-मां ने कहा, “पान थूका है साहब, यहां कहां खून”, गुलाब जी ने छत की तरफ देखते हुए कहा “हर जगह खून है”, दाई-मां कुछ समझ नहीं पाई और इतने में ही अंदर से बुलावा आया।


गुलाब जी पूछते हुए अंदर चले गए, सुगंधा के कमरे में जाकर दरवाजा खट-खटाया, और ये सुगंधा के लिए बहुत नया था, क्योंकि एक बार पैसे देने के बाद, आदमी दरवाजा खट-खटाता नहीं, सीधे अंदर जाता है, सुगंधा ने दरवाजा खोला, तो गुलाम ने सुगंधा को देखा, सुगंधा ने लगभग आंखों के इशारे से गुलाब को अंदर बुलाया, और देखा कि गुलाब के हाथ में कुछ नहीं था, ना शराब, ना पान, ना पुड़िया, कुछ नहीं, कमर में बेल्ट भी नहीं, सब कुछ शांत सा था, उस छोटे से कोठे में सब कुछ छोटा ही था, बस एक बिस्तर बड़ा था, सब कुछ लगभग गंदा था, सिर्फ बिस्तर का तकिया, चद्दर और सुगंधा साफ थी।


सुगंधा को गुलाब ने अभी तक देखा नहीं था, बस कमरे में अपनी नजर दौड़ाए जा रहे थे, शायद साहस जुटा रहे थे, पर सुगंधा ने गुलाब को देखा, जवान लड़का, आदमी नहीं कह सकते उसे, लड़का ही था वो, बड़ी-बड़ी सी दाढ़ी-मूछ, एक चश्मा’ लगता है पावर वाला होगा, थोड़े बड़े बाल थे, एक तरफ मांग निकाल कर कंगी की थी, एक कान में बाली, और खाता पीता सा साधारण शरीर, देखने में अच्छा। अचानक से सुगंधा की तरफ देखकर बोला “मैं गुलाब”, और सुगंध अपने लिपस्टिक वाले होंठ से बोली “मैं सुगंधा”, बहुत कम ही लोग ने नाम बताया था उसे अभी तक।


गुलाब ने अब सुगंधा को देखा, वो सुंदर थी, गुलाब ने कहा, “आप सुंदर हो”, फिर गुलाब ने अगले दस मिनट तक ना कुछ कहा और ना सुगंधा ने, गुलाब बस हर एक चीज को बहुत ध्यान से देख रहे थे, सुगंधा कुछ कह ना पाई, हिच-खिंचाते हुए बस इतना कह पाई, “आपका समय खत्म हो जाएगा”, गुलाब में सुगंधा की तरफ देखा तो सुगंधा ने देखा कि गुलाब रो रहा है, उसकी एक आंख से ज्यादा और एक आंख से कम, पर लगातार आंसू गिर रहे हैं, पर उसने कोई बुरा मुंह नहीं बनाया था, सुगंधा से बोला “ मैं वेश्याओं के ऊपर एक कहानी लिखने वाला हूं, वही देखने आया था, सब अंदर से कैसा दिखता है”, सुगंधा ने सवाल भरी नजरों के साथ बोला “तो आप कुछ करेंगे नहीं”, गुलाब ने सुगंधा का एक हाथ अपने दोनों हाथों के बीच में लिया, और सहलाते हुए थोड़ी सी मुस्कान के साथ कहा, “नहीं, बहन”, सुगंधा लगभग हंस रही थी और लगभग रो रही थी, जाते-जाते गुलाब सुगंधा के सिर पर हाथ फेर कर गया, जब उस दिन सुगंधा ने नहाया तो कुछ साफ सा महसूस किया।


गुलाब ने दाई-मां से जाते-जाते पूछा आप “एक लड़की से पूरी जिंदगी में कितना कमा लेती है”, दाई-मां ने कहा “क्यों”, गुलाब बस घूर के चला गया।


दूसरे दिन गुलाब बहुत सारे हवलदारों और एक सरकारी अफसर के साथ आया, दाई-मां के सामने एक पैसे का कवर रखकर बोला सुगंधा को बुलाओ, दाई-मां कुछ ना कह पाई, गुलाब में सुगंधा को कहा “चलो, जाकर गाड़ी में बैठो”, और गुलाब का दोस्त वो अक्सर दाई-मां से कहता है, “आज से वो वेश्या नहीं है”।


दो महीने बाद सुगंधा की पक्की सहेली आकांक्षा भी वहां से निकल गई, खुद के दम पर, शायद थोड़ा कानून की भी मदद से, और थोड़े साहस से, पर बाहर निकल गई।


उस दिन गुलाब ने सुगंधा से दो घंटे बाद की थी, और उसे यही समझाया था कि यहां से बाहर निकलना संभव है, एक बात जो गुलाब को वेश्याओं के बारे में पता चली थी, वो ये थी की, वो वहां से बाहर आना चाहती हैं, पर उन्हें लगता है, “हमारे लिए ये संभव नहीं है, और अब कुछ बदला नहीं जा सकता”। जब उसी रात सुगंधा ने अपनी दोस्त आकांक्षा से बात की तो बोला “यहां से निकला जा सकता है, हमारा अभी का समय हमारा पुराना समय बन जाता है, और पुराने समय में तो सब में कुछ ना कुछ बुरा किया है, अपने अब को अच्छा कर लो अपने आप सब अच्छा हो जाएगा, बस हिम्मत दिखाओ”, जैसे वो ये सब खुद से कह रही हो पर अपनी दोस्त से भी, और यही गुलाब ने सुगंधा को भी कहा था। अब सुगंधा गुलाब के दोस्त के होटल में काम करती है, और बस उसकी शादी होने वाली है।

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