अधूरीपतिया की अपनी कहानी
किसी अधूरेपन की कहानी ही क्या हो सकती है? कहानी तो पूरेपन की होती है।
फिर भी, है कुछ, जिसे आपसे कह देना जरुरी-सा लग रहा है। एक बहुत बड़ा
वर्ग है,जो आत्मा को नहीं मानता। दरअसल वह तो परमात्मा को ही नहीं जानता,
फिर आत्मा को क्या मानेगा ! खैर, आत्मा-परमात्मा का विवेचन मेरा अभीष्ट
नहीं है यहाँ। मैं तो सिर्फ आपको एक घटना बताने जा रहा हूँ,जो मुझे बहुत
परेशान किया- एक नहीं, अनेक बार। तब तक,जब तक कि मकरसंक्रान्ति,सन् १९८६
न आ गया और मैं इस घटना को लिपिवद्ध करने को कटिवद्ध न हो गया।