गांधी के चम्पारन सत्याग्रह के सौंवें साल में यह समझना बेहद जरूरी है कि आदिवासियों के प्रति गांधी का नजरिया क्या था। क्या उनका दर्शन मौलिक था? क्या आदिवासी लोग वाकई में असभ्य, असंगठित, अंधविश्वासी और नैतिक रूप से पतित थे? पचास के शुरुआती दशक में ‘महात्मा गांधी की जय’ कहने वाले आदिवासी क्या सचमुच में गांधी के प्रभाव में ही राष्ट्रीय आन्दोलन में आए? क्या आदिवासी लोग नेतृत्वविहीन और एक कायर समुदाय हैं, जो अपनी लड़ाई लड़ नहीं पा रहे थे। क्या वास्तव में उन्हें गैरआदिवासी समाजों की तरह ही कोई एक क्लासिकल धीरोदात्त ‘नायक’ और बाहरी ‘नेतृत्व’ की जरूरत थी?
स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही सांप्रदायिकता के जिस ‘भगवा धार्मिक उन्माद’ से देश ग्रस्त है, वह गांधी की ही देन है। गांधी के मार्गदर्शन में कांग्रेस ने धर्मांधता की जो फसल बोई, वही अब भाजपा काट रही है। आदिवासी इलाकों में ‘घर वापसी’ गांधी का ही नस्ली कार्यक्रम था। क्योंकि गांधी ने आदिवासियों को असभ्य मानते हुए ‘सभ्यता’ और ‘मुक्ति’ का जो ‘राम’ मंत्र उन्हें दिया था, उसी मंत्र को पिछले सात दशकों में कट्टरवादियों ने विष-बेल की तरह समूचे आदिवासी भारत में फैलाया है। गांधी के नस्लीय व्यवहार की पड़ताल करती यह पहली पुस्तक है जिसमें लेखक ने ऐतिहासिक तथ्यों के सहारे आदिवासियों के संदर्भ में उस राजनीतिक सच को सामने रखा है, जो अभी तक अनकहा है।