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Subrat SaurabhAuthor of Kuch Woh Pal1964 में जन्म। डॉ. एम.एस. ‘अवधेश’ और दिवंगत कमला की सात संतानों में से एक। कला स्नातकोत्तर। सन् 1991 से जीवन-सृजन के मोर्चे पर वंदना टेटे की सहभागिता। अभिव्यक्ति के सभी माध्यमोंकृरंगकर्म, कविता-कहानी, आलोचना, पत्रकारिता, डॉक्यूमेंट्री, Read More...
1964 में जन्म। डॉ. एम.एस. ‘अवधेश’ और दिवंगत कमला की सात संतानों में से एक। कला स्नातकोत्तर। सन् 1991 से जीवन-सृजन के मोर्चे पर वंदना टेटे की सहभागिता। अभिव्यक्ति के सभी माध्यमोंकृरंगकर्म, कविता-कहानी, आलोचना, पत्रकारिता, डॉक्यूमेंट्री, प्रिंट और वेब में रचनात्मक उपस्थिति। झारखंड व राजस्थान के आदिवासी जीवनदर्शन, समाज, भाषा-संस्कृति और इतिहास पर विशेष कार्य। उलगुलान, संगीत, नाट्य दल, राँची के संस्थापक संगठक सदस्य। सन् 1987 में ‘विदेशिया’, 1995 में ‘हाका’, 2006 में ‘जोहार सहिया’ और 2007 में ‘जोहार दिसुम खबर’ का संपादन-प्रकाशन। फिलहाल रंगमंच एवं प्रदर्श्यकारी कलाओं की त्रैमासिक पत्रिका ‘रंगवार्त्ता’ का संपादन-प्रकाशन। अब तक ‘पेनाल्टी कॉर्नर’, ‘इसी सदी के असुर’, ‘सालो’, ‘अथ दुड़गम असुर हत्या कथा’ और ‘आदिवासी प्रेम कहानियाँ’ (कहानी-संग्रह); ‘जो मिट्टी की नमी जानते हैं’, ‘खामोशी का अर्थ पराजय नहीं होता’, ‘वृक्ष नहीं हैं स्त्रियाँ’ (कविता-संग्रह); ‘युद्ध और प्रेम’ और ‘भाषा कर रही है दावा’ (लंबी कविता); ‘अब हामर हक बनेला’ (हिंदी कविताओं का नागपुरी अनुवाद); ‘छाँइह में रउद’ (दुष्यंत की गजलों का नागपुरी अनुवाद); ‘एक अराष्ट्रीय वक्तव्य’ (विचार); ‘रंग बिदेसिया’ (भिखारी ठाकुर पर सं.); ‘उपनिवेशवाद और आदिवासी संघर्ष’, ‘आदिवासी और विकास का भद्रलोक’, ‘आदिवासियत’ (सं.), ‘आदिवासीडम’ (सं. अंग्रेजी); ‘रंग बिदेसिया (सं. भिखारी ठाकुर पर केंद्रित)’, ‘मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा’ (जीवनी), ‘संविधान-सभा में जयपाल’ (दस्तावेज), आदिवासी गिरमिटियों पर ‘माटी माटी अरकाटी’ तथा आजीवक मक्खलि गोशाल के जीवन-संघर्ष पर केंद्रित मगही उपन्यास ‘खाँटी किकटिया’ प्रकाशित। संपर्क: akpankaj@gmail.com.
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यह पुस्तक हमें उस प्रभावशाली और दूरदर्शी आदिवासी राजनीतिज्ञ के सोच-विचार से परिचित कराती है जिसे गांधी, नेहरु, जिन्ना और अंबेडकर के मुकाबले कभी नहीं याद किया गया। उस आदिवासी व्
यह पुस्तक हमें उस प्रभावशाली और दूरदर्शी आदिवासी राजनीतिज्ञ के सोच-विचार से परिचित कराती है जिसे गांधी, नेहरु, जिन्ना और अंबेडकर के मुकाबले कभी नहीं याद किया गया। उस आदिवासी व्यक्तित्व का नाम है जयपाल सिंह मुंडा। आजाद होते भारत में आदिवासी विषय और प्रतिनिधित्व पर हमारे तथाकथित ‘राष्ट्रपिता’, ‘राष्ट्रनिर्माता’ और ‘दलितों के बाबा साहेब’ कितने गंभीर थे, यह हमें जयपाल सिंह मुंडा के उन वक्तव्यों से पता चलता है जो उन्होंने संविधान निर्माण सभा में दिए थे। यह पहली किताब है जो हमें बताती है कि संविधान-सभा के 300 माननीय सदस्यों ने किस तरह से ‘आदिवासी स्वयात्तता’ का मिलजुलकर अपहरण किया। जिसके खिलाफ संविधान-सभा के भीतर जयपाल सिंह मुंडा ने अकेले राजनीतिक लड़ाई लड़ी और भारतीय राजनीति में आदिवासियत को स्थापित किया।
Santal Hul is a historical chapter in India's anti-British wars that still inspires us to understand the causes of Hul and its far-reaching effects. This war, which lasted for almost a year, forced the change of the ways of British rule and administration and government policies, especially in Adivasi areas. It is necessary to first consider three major stereotypes perceptions related to Hul. Which not only alienate Hul of being the first Indian people-war for
Santal Hul is a historical chapter in India's anti-British wars that still inspires us to understand the causes of Hul and its far-reaching effects. This war, which lasted for almost a year, forced the change of the ways of British rule and administration and government policies, especially in Adivasi areas. It is necessary to first consider three major stereotypes perceptions related to Hul. Which not only alienate Hul of being the first Indian people-war for freedom with a mass participation, but also rejects Hul's true character and goal of an anti-colonial Adivasi war.
This compilation has been done with a view to highlighting these aspects of Hul and describing that history in its entirety. So that the historical reasons for the well organized war of the warriors of Hul can be understood. Its purpose is to underline Hul's reality that it was in fact a war fought against the British Raj and their broker zamindari system. Hul was not a rebellion born of any kind of dissent. It was a war against a foreign nation with strongh thought, planning and mass participation. It was a direct fight against colonial power by an Adivasi nation and their sovereign political system.
गांधी के चम्पारन सत्याग्रह के सौंवें साल में यह समझना बेहद जरूरी है कि आदिवासियों के प्रति गांधी का नजरिया क्या था। क्या उनका दर्शन मौलिक था? क्या आदिवासी लोग वाकई में असभ्य, असं
गांधी के चम्पारन सत्याग्रह के सौंवें साल में यह समझना बेहद जरूरी है कि आदिवासियों के प्रति गांधी का नजरिया क्या था। क्या उनका दर्शन मौलिक था? क्या आदिवासी लोग वाकई में असभ्य, असंगठित, अंधविश्वासी और नैतिक रूप से पतित थे? पचास के शुरुआती दशक में ‘महात्मा गांधी की जय’ कहने वाले आदिवासी क्या सचमुच में गांधी के प्रभाव में ही राष्ट्रीय आन्दोलन में आए? क्या आदिवासी लोग नेतृत्वविहीन और एक कायर समुदाय हैं, जो अपनी लड़ाई लड़ नहीं पा रहे थे। क्या वास्तव में उन्हें गैरआदिवासी समाजों की तरह ही कोई एक क्लासिकल धीरोदात्त ‘नायक’ और बाहरी ‘नेतृत्व’ की जरूरत थी?
स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही सांप्रदायिकता के जिस ‘भगवा धार्मिक उन्माद’ से देश ग्रस्त है, वह गांधी की ही देन है। गांधी के मार्गदर्शन में कांग्रेस ने धर्मांधता की जो फसल बोई, वही अब भाजपा काट रही है। आदिवासी इलाकों में ‘घर वापसी’ गांधी का ही नस्ली कार्यक्रम था। क्योंकि गांधी ने आदिवासियों को असभ्य मानते हुए ‘सभ्यता’ और ‘मुक्ति’ का जो ‘राम’ मंत्र उन्हें दिया था, उसी मंत्र को पिछले सात दशकों में कट्टरवादियों ने विष-बेल की तरह समूचे आदिवासी भारत में फैलाया है। गांधी के नस्लीय व्यवहार की पड़ताल करती यह पहली पुस्तक है जिसमें लेखक ने ऐतिहासिक तथ्यों के सहारे आदिवासियों के संदर्भ में उस राजनीतिक सच को सामने रखा है, जो अभी तक अनकहा है।
यह पुस्तक हमें उस प्रभावशाली और दूरदर्शी आदिवासी राजनीतिज्ञ के सोच-विचार से परिचित कराती है जिसे गांधी, नेहरु, जिन्ना और अंबेडकर के मुकाबले कभी नहीं याद किया गया। उस आदिवासी व्
यह पुस्तक हमें उस प्रभावशाली और दूरदर्शी आदिवासी राजनीतिज्ञ के सोच-विचार से परिचित कराती है जिसे गांधी, नेहरु, जिन्ना और अंबेडकर के मुकाबले कभी नहीं याद किया गया। उस आदिवासी व्यक्तित्व का नाम है जयपाल सिंह मुंडा। आजाद होते भारत में आदिवासी विषय और प्रतिनिधित्व पर हमारे तथाकथित ‘राष्ट्रपिता’, ‘राष्ट्रनिर्माता’ और ‘दलितों के बाबा साहेब’ कितने गंभीर थे, यह हमें जयपाल सिंह मुंडा के उन वक्तव्यों से पता चलता है जो उन्होंने संविधान निर्माण सभा में दिए थे। यह पहली किताब है जो हमें बताती है कि संविधान-सभा के 300 माननीय सदस्यों ने किस तरह से ‘आदिवासी स्वयात्तता’ का मिलजुलकर अपहरण किया। जिसके खिलाफ संविधान-सभा के भीतर जयपाल सिंह मुंडा ने अकेले राजनीतिक लड़ाई लड़ी और भारतीय राजनीति में आदिवासियत को स्थापित किया।
‘पेनाल्टी कॉर्नर’ की कहानियाँ झारखंड के औपनिवेशिक शोषण-दमन और उससे उपजी सामाजिक-सांस्कृतिक विसंगतियों-विकृतियों को बेहद बारीकी से रेखांकित करती है। इनसे गुजरते हुए कई बार
‘पेनाल्टी कॉर्नर’ की कहानियाँ झारखंड के औपनिवेशिक शोषण-दमन और उससे उपजी सामाजिक-सांस्कृतिक विसंगतियों-विकृतियों को बेहद बारीकी से रेखांकित करती है। इनसे गुजरते हुए कई बार आँखों में आंसू आ जाते हैं, कई बार अनायास ही मुट्ठियां तन जाती हैं। राहत तब मिलती है जब इनके अनेक पात्र जुल्मों के खिलाफ तन कर खड़े हुए दीखते हैं। सही माने में माटी के दुसह दर्द के गहरे एहसास के बिना ऐसी रचनाएं संभव नहीं होती। झारखंड के जन-जीवन को संदर्भित करने वाली ऐसी रचनाएं और रचनाकार बहुत विरल हैं। हिंदी में तो और भी कम। दरअसल बहुत से रचनाकार यहां की जमीनी हकीकत से जुड़ ही नहीं पाते। संभवतः औपनिवेशिक मानसिकता के अवशेष उन्हें ऐसा होने नहीं देते। ‘पेनाल्टी कॉर्नर’ की कहानियाँ अश्विनी कुमार पंकज को उन रचनाकारों से भिन्न पाँत में खड़ा करती हैं-एक शिखर की तरह, नादीन गोर्डिमर की तरह।
देह का कोई भी कोना कोई भी हिस्सा भीतर या बाहर उजाड़ नहीं होता जब आदमी प्रेम में होता है आंख, नाक, कान, मुंह शरीर की सारी Read More...
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